क्या मौजूदा अर्थव्यवस्था 42 साल के सबसे बुरे दौर में है?
भारत की अर्थव्यवस्था 42 साल में इतनी बुरी कभी नहीं थी। इसे ध्वस्त होने के कगार से वापस लाने के लिए कल्पना से अधिक ज़रूरत ईमानदारी की है।
मंगलवार को जारी आँकड़ों के अनुसार इस साल के आर्थिक विकास का अनुमान 5 प्रतिशत लगाया गया है। यह आर्थिक मंदी का तीसरा साल है। और इस आँकड़े को भी आशावादी माना जा सकता है।
उपभोक्ता माँग डवाँडोल है और विकास को आगे बढ़ाने का एक मात्र ज़रिया सरकारी खर्च भी कम किया जा सकता है ताकि बजट में वित्तीय घाटा बहुत न बढ़ जाए।
उपभोक्ता माँग 42 साल के न्यूनतम स्तर पर
यही हाल वास्तविक अर्थव्यवस्था का है। इन अग्रिम आँकड़ों का मक़सद बजट तैयार करने में सरकार की मदद करना है, जिससे सकल घरेलू उत्पाद को संभाला जा सके।इस हिसाब से उपभोक्ता माँग में बढ़ोतरी 7.5 प्रतिशत है जो 1978 के बाद से सबसे कम है, यह सरकार के उस अनुमान से भी कम है कि माँग में 12 प्रतिशत की बढ़ोतरी होगी। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि राजस्व के ये अनुमान बुरी तरह नाकाम साबित हुए हैं।
ज़मीनी हकीक़त
ऐसे में ज़मीनी हकीक़त को स्वीकार करने की ज़रूरत है। नरेंद्र मोदी जब 2019 में दूसरी बार चुन कर आए और प्रधानमंत्री बने, सरकार ने सरकारी वित्तीय स्थिति की काफी अच्छी तसवीर पेश की और इस बात को बिल्कुल नज़रअंदाज़ कर दिया कि कर राजस्व अनुमान से इतना कम है कि वह 1 प्रतिशत जीडीपी के बराबर है। इस बार यानी 1 फ़रवरी को पेश होने वाले बजट में इस तरह की कोई चालबाजी की गई तो निवेशकों का भरोसा और कम होगा।कर उगाही का ज़्यादा अनुमान यह है कि उम्मीद और वास्तविक उगाही में जो कमी होगी वह जीडीपी के 5 प्रतिशत के आसपास होगी। इसमें वह पैसा भी शामिल है जो बाज़ार से कर्ज लिया गया है और अंत में उसका बोझ भी करदाताओं को ही उठाना है। राज्यों को होने वाला घाटा जीडीपी के 3 प्रतिशत के बराबर है। कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि भारत के कॉरपोरेट जगत के लोग विदेशों से पैसे ले रहे हैं।
सॉवरन रेटिेंग
विदेशों से कर्ज़ लेना भी महँगा पड़ेगा। भारतीय कंपनियों ने इस साल 22 अरब डॉलर का कर्ज़ विदेशों से लिया है। यदि भारत की सॉवरन रेटिंग कम कर दी गई तो यह कर्ज़ और महँगा होगा। एस एंड पी ग्लोबल रेटिंग ने भारत को चेतावनी दे रखी है कि भारत की आर्थिक वृद्धि दर नहीं सुधरी तो इसकी रेटिंग कम की जा सकती है।
अप्रैल में शुरू होने वाले वित्तीय वर्ष की दूसरी छमाही में ही अर्थव्यवस्था में कोई सुधार दिख सकता है। लेकिन इस दौरान यदि अमेरिका-ईरान तनाव बढ़ा तो तेल की कीमतें बढ़ेंगी और इससे पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था कमज़ोर होगी।
रिज़र्व बैंक की भूमिका
इस बीच रिज़र्व बैंक अपने बैलंस शीट को तोड़-मरोड़ रहा है, वह कम समय के सरकारी बॉन्डों को बेच रहा है लंबे समय के बॉन्ड खरीद रहा है। पर इससे सरकार के पाँच साल की ढाँचागत सुविधाओं पर होने वाले 1.50 ट्रिलियन डॉलर खर्च के पैसे का जुगाड़ नहीं हो सकेगा।तो अब क्या किया जाए? मैंने सलाह दी थी कि केंद्रीय बैंक ग़ैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थानों की जायदाद खरीद ले, जिससे नन-परफ़ॉर्मिंग असेट कम होंगे और अर्थव्यवस्था को राहत मिलेगी। मंगलवार को नाम मात्र की जीडीपी वृद्धि दर से सरकार को यह कहने में सहूलियत होगी।
हालांकि मुद्रा नीति तय करने वाली संस्थानों को ग़ैर-पारंपरिक ढंग से काम करना होगा, पर सरकार के पास जो सबसे रचनात्मक हथियार है एक्सेल स्प्रेड शीट, उससे कोई ख़ास फ़ायदा नहीं होगा। दरअसल, गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स में जिस बहुत ही ज़रूरी परिवर्तन की ज़रूरत है, वह इस बजट में नहीं हो सकेगा। इसके लिए राज्य सरकारों से काफी बातचीत करनी होगी क्योंकि उन्हें जीएसटी राजस्व साझा करना होता है।
2017 में जीएसटी शुरू किया गया तो कई दूसरे करों को इसमें मिला कर एक कर दिया गया। पर इसे डिज़ायन करने में ही कई खामियाँ थीं, उसके अलावा इसे लागू करना महँगा भी है और वह ठीक से लागू होता भी नहीं है।
जीएसटी राजस्व उगाही में कमी
आईडीएफ़सी म्युचुअल फंड ने अपने एक अध्ययन में पाया है कि इस वित्तीय वर्ष में जीएसटी राजस्व उगाही में सिर्फ़ 4 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। यह तो नाम मात्र की जीडीपी वृद्धि दर से भी कम है। ऐसे में इस तरह का बजट जो यह दिखाने की कोशिश करे कि सबकुछ सामान्य, उससे स्थिति और बदतर होगी।अर्थव्यवस्था में सुधार की दिशा में पहला कदम इस चुनौती को स्वीकार करना होगा।
(लाइवमिंट से साभार )