रिज़र्व बैंक के पैसे मिलने पर भी एफ़डीआई जैसे फ़ैसले क्यों?
सरकार ने रिजर्व बैंक से पैसे तो ले लिए लेकिन अब वह उसके राजनीतिक नुक़सान से बचने के लिए हरसंभव उपाय कर रही है। एफ़डीआई में छूट और 75 मेडिकल कॉलेज खोलने जैसी घोषणाएँ इसी श्रेणी में हैं। रिज़र्व को ख़र्च करने की स्थिति बन जाना निश्चित रूप से सरकार और अर्थव्यवस्था को संभालने वालों की कमज़ोरी बताती है। मीडिया में भले ऐसा नहीं कहा जा रहा है लेकिन सोशल मीडिया में इससे कोई परहेज नहीं है और सरकार के लिए इससे निपटने के उपाय करना बेहद ज़रूरी है। इसीलिए, एक समय एफ़डीआई का विरोध करने वाले नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार तमाम क्षेत्रों में एफ़डीआई की इजाज़त देने के बाद अब 75 नए मेडिकल कॉलेज खोलने की घोषणा के साथ एफ़डीआई के नियमों में भी ढील दे रही है। मुख्य रूप से इसका मक़सद यह माहौल बनाना है कि रिज़र्व बैंक के पैसे बुनियादी ज़रूरतों के लिए नहीं हैं। यही नहीं, सरकार बिना कहे यह संदेश देना चाहती है कि उसका काम तो एफ़डीआई (और इसमें दी गई छूट से) से चल जाता।
जम्मू-कश्मीर में 50 हज़ार नई नौकरियों और देश भर में 75 नए मेडिकल कॉलेज में 15,700 सीटें बढ़ जाने की घोषणा के साथ यह नहीं बताया गया है कि यह सब कैसे-कहाँ होगा। पैसे कहाँ से आएँगे, परिसर कहाँ और कितने समय में बनेगा और यह सब इतना ही आसान था तो अभी तक क्यों नहीं किया गया? इन सवालों का जवाब नहीं देकर एफ़डीआई में छूट की घोषणा निश्चित रूप से विदेशी पैसे आने की उम्मीद में कम और रिज़र्व बैंक के पैसे आम ख़र्च के लिए लेने की ख़बरों से हुए राजनीतिक नुक़सान की भरपाई करना है। वित्त मंत्री का यह कहना कम नुक़सानदेह नहीं है कि रिज़र्व बैंक के पैसे कहाँ ख़र्च होंगे पर सरकार जैसी है उसमें कोई दूसरा तरीक़ा भी नहीं था। और इन सब चीजों से ध्यान हटाने के लिए नई घोषणाओं के अलावा कोई आसान विकल्प भी नहीं था।
सवाल है कि आर्थिक मंदी तथा ‘टैक्स टेरर’ यानी कर आतंक के माहौल में कितना विदेशी निवेश आएगा और कैसे आएगा? पिछला अनुभव बताता है कि न तो यह सब पूछा जाएगा और न ही कायदे से बताया जाएगा।
कहने की ज़रूरत नहीं है कि किसी भी तरह विदेशी निवेश आए, इस उम्मीद में स्थानीय उद्योग और हितों को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। उदाहरण के लिए, सिंगल ब्रांड रीटेल में पहले यह नियम था कि 30 प्रतिशत सामान देश से ही ख़रीदे जाएँगे। उदाहरण के लिए सिले सिलाए कपड़ों का एक बड़ा ब्रांड देश में किसी कारण से सस्ते कपड़े बेचने लगे तो देसी दर्जी से लेकर छोटे-मोटे निर्माता सब ख़त्म हो जाएँगे। उनके हित में नियम था कि वे यहाँ निवेश से जो बेचेंगे उसका कम से कम 30 प्रतिशत यहीं से ख़रीदेंगे या बनवाएँगे। इससे छोटे दर्जियों और परिधान निर्माताओं के लिए संभावना थी कि वे बड़े विदेशी रीटेल ब्रांड के लिए काम कर सकेंगे।
विदेशी ब्रांड से किसे होगा फ़ायदा?
निश्चित रूप से यह विदेशी कपड़ा पहनना चाहने वालों के लिए अच्छा है और हो सकता है उनकी नज़र में ज़रूरी भी हो। पर इसका असर यह है कि मॉल में दर्जी की दुकानें हो ही नहीं सकतीं क्योंकि दुकानें महँगी हैं और उसके लिए सिलाई इतनी ज़्यादा होगी कि किसी गाँव में मोटर से चलने वाली सिलाई मशीन से बने सिले सिलाए कपड़ों की क़ीमत कम होगी। भारत जैसे देश में क्या ज़रूरी है और किससे ज़्यादा रोज़गार मिलेंगे यह सोचे बगैर ज़्यादा कमाने वालों के लिए विदेशी ब्रांड उपलब्ध कराने और किसी तरह विदेशी निवेश हासिल करने के लिए 30 प्रतिशत की स्थानीय ख़रीद के नियम में भी छूट दी गई है। इसी तरह देश में दुकान खोले बगैर विदेश से ऑनलाइन बिक्री की इजाज़त दे दी गई है।
खनन क्षेत्र में कौन निवेश करेगा?
सरकार ने कोयला खनन में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश की इजाज़त दी है। इसमें कोई शक नहीं है कि इसकी ज़रूरत भी है पर खान और स्पेक्ट्रम आवंटन में होने वाले घोटालों और फिर अदालत में उनके साबित न होने के मद्देनज़र विदेशी कंपनियों को आमंत्रित करने का मक़सद भले एफ़डीआई हो पर उसे तो यहाँ आकर फँसना ही है। और इन ख़बरों के बीच क्या छूट देने भर से कोई निवेश करेगा? अभी तक देश में खनन का काम ज़्यादातर सरकारी कंपनियाँ करती हैं। निजी क्षेत्र को यह काम दिया ही नहीं गया और अब सीधे विदेशी कंपनियों को 100 प्रतिशत एफ़डीआई की छूट है। उधर तेल खनन में निजी क्षेत्र की कंपनी को सरकारी कंपनी के मुक़ाबले लाभ देने के आरोप की भरमार है और कार्रवाई कुछ नहीं।
चीनी मिलों के सब्सिडी क्यों?
आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए किए जाने वाले उपायों के तहत चीनी के बचे हुए देसी स्टॉक को निपटाने के लिए सरकार ने चीनी के निर्यात पर सब्सिडी देने की घोषणा की है। इससे चीनी मिलें किसानों को गन्ने का बकाया चुका सकेंगी। यही नहीं, सरकार चीनी मिलों को गन्ने की ख़रीद के लिए भी सब्सिडी देगी। गैस सिलेंडर पर सब्सिडी ख़त्म करने और बुजुर्ग रेल यात्रियों को मिलने वाली हज़ार-पाँच सौ रुपए की छूट छोड़ने का आग्रह करने वाली सरकार चीनी मिलों को गन्ना ख़रीदने और चीनी निर्यात करने के लिए सब्सिडी देगी। इससे सरकार की प्राथमिकता समझ में आती है। कहने को तो कहा गया है कि यह सब्सिडी किसानों के खाते में गन्ने की क़ीमत के बदले दी जाएगी और चीनी मिलों की ओर से होगी, लेकिन निर्यात के लिए सब्सिडी विपणन और अंतरराष्ट्रीय परिवहन के ख़र्चों के मद में होगा। किसानों की तो गन्ने की क़ीमत मिलेगी और मिलों को चीनी बेचने में सहायता की जाएगी।
अगर सरकार के काम और घोषणाओं का अनुमान लगाना हो तो यह तथ्य है कि संसद में प्रस्तुत वार्षिक औपचारिक बजट घोषणा में आँकड़े नहीं थे, आर्थिक मंदी का अनुमान तो तब भी था पर उससे निपटने के उपाय नहीं के बराबर थे और जो घोषणाएँ व नए टैक्स आदि लगाए गए थे उनमें से ज़्यादातर को अब वापस लिया जा चुका है।