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हिंसा का सामना करने के लिए किसानों को अकेला छोड़ दें?

हिंसा का सामना करने के लिए किसानों को अकेला छोड़ दें?

कृषि क़ानून और किसान आन्दोलन पर क्यों सरकार ढिठाई से बिना पलक झपकाए उस सदन में झूठ बोल रही है, जहाँ संसद को गुमराह करना जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकार का हनन है? 

“मेरी नीति साधारण स्तर की है जबकि स्थितियाँ असाधारण हैं।” नीतिज्ञ माने जानेवाले विदुर अपनी सीमा स्वीकार करते हैं। वे विदुर धर्मवीर भारती के ‘अंधा युग’ के पात्र हैं। इसी तरह कहा जा सकता है कि घटनाओं का वर्णन और उनकी व्याख्या के हमारे साधन और उपकरण नितांत अपर्याप्त हो चुके हैं या नाकारा हैं क्योंकि जो दीखता है, उससे कहीं अधिक वह है जो नहीं दीखता। इस सरकार के समर्थक भी अचंभित हैं कि उस जन रोष की विराटता को देखते हुए भी जो किसान आन्दोलन की शक्ल में भारत के अलग अलग हिस्सों में उमड़-घुमड़ रहा है, क्यों सरकार उसके दमन पर आमादा है!

क्यों सरकार ढिठाई से बिना पलक झपकाए उस सदन में झूठ बोल रही है, जहाँ संसद को गुमराह करना जनप्रतिनिधियों के विशेषाधिकार का हनन है? क्यों वह आज कह पाई कि कृषि संबंधी क़ानूनों से सिर्फ एक राज्य में परेशानी है जबकि शासक दल के गढ़ उत्तर प्रदेश में इन क़ानूनों के ख़िलाफ़ गाँव- गाँव में जन सैलाब उमड़ रहा है? उसके अपने राज्य हरियाणा में उसके मंत्रियों और नेताओं का बाहर निकलना मुश्किल हो गया है, क्योंकि वे जनता का सामना नहीं कर सकते?

राजमार्गों पर सलाखें क्यों?

तब जबकि दिल्ली से दूर राज्यों में भी इन क़ानूनों को लेकर जो असमंजस था उससे लोग मुक्त रहे हैं और दिल्ली की सरहदों पर डेरा डाले किसानों के प्रति सहानुभूति का दायरा बढ़ता जा रहा है? तब भी क्यों यह सरकार इंटरनेट बंद कर रही है, सड़कें खोद रही है, राजमार्गों पर सलाखें ठोंक रही है? 

क्यों एक गायिका या एक पर्यावरण कार्यकर्ता के किसानों को समर्थन के ट्वीट से सरकार हिल गई और क्यों उसने इसे एक अंतर्राष्ट्रीय साजिश मानते हुए अनाम लोगों के खिलाफ़ मुक़दमा दायर कर दिया? 

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ट्वीट से जनतंत्र नहीं हिल जाएगा!

सांसद मनोज झा ने सरकार को झिड़का कि एक ट्वीट से भारत का जनतंत्र नहीं हिल जाएगा तो वे इस ट्वीट और उसके पूरे संदर्भ को सीमित कर रहे थे। दरअसल इस ट्वीट ने भारत की तानाशाही को एक बार तो झिंझोड़ दिया है। उसपर सरकार की बदहवास प्रतिक्रिया से यही मालूम होता है।

ग्रेटा थनबर्ग जब भारत के किसानों के आन्दोलन के पक्ष में खड़ी हुईं तो वे इस आंदोलन के अंतरराष्ट्रीय महत्त्व की तरफ इशारा कर रही थीं।

‘काउंटरकरेंट्स’ में कॉलिन टॉडहंटर ने कहा है कि भारत के इस आंदोलन की पराजय की भारी कीमत भारत को ही नहीं पूरी दुनिया को चुकानी पड़ेगी।

इस आंदोलन का जीतना क्यों ज़रूरी है और क्यों भारत सरकार अलोकप्रिय होने का जोखिम उठाते हुए इन क़ानूनों पर अड़ी हुई है, इसे समझने के लिए विश्व अर्थव्यवस्था को समझना आवश्यक है।

कॉरपोरेट घरानों की लठैत?

टॉडहंटर के पहले लेखक, पत्रकार सत्या शिवरमन ने भी बतलाया था कि सरकार किसानों के आगे झुक कर उन अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेट घरानों को यह संदेश नहीं देना चाहती जो अब भारत को अपनी चारागाह की तरह देख रहे हैं कि वह उनके हितों की रक्षा नहीं कर पाएगी।

सरकार जनता का विश्वास भले खो बैठे, इन कॉरपोरेट घरानों का विश्वास नहीं खो सकती। वह उनकी भरोसेमंद लठैत है और उनके मुनाफ़े के लिए अपने लोगों का खून भी बहा सकती है, यह बतलाना उसके लिए ज़रूरी है।

सत्या और टॉड हंटर के मुताबिक़ पूरी दुनिया में कुछ बड़ी कंपनियां तय कर रही हैं कि कौन सी फसल उगाई जाएगी, कैसे उगाई जाएगी, उसमें क्या क्या पड़ेगा, और उसे कौन बेचेगा। इसका मतलब होगा ढेर सारे रसायनों से  परिष्कृत फसल, विशाल मोनोपॉली वाली सुपरमार्केट श्रृंखला में उनकी बिक्री और औद्योगिक स्तर पर खेती। 

 

बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा

खाद्य सामग्री के वितरण पर कई देशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा हो गया है। स्थानीय खाद्य सामग्री की जगह केंद्रीकृत तरीके से तय की हुई एक ही प्रकार की खाद्य सामग्री से बाज़ार पट जाता है। खरीदारों के पास कोई विकल्प बचता नहीं।

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कंपनियों का कुचक्र!

मेक्सिको के उदाहरण से वे समझाते हैं कि इसका कितना प्रतिकूल असर स्वास्थ्य पर पड़ता है। मेक्सिको में खेती को बड़ी कंपनियों के लिए खोल देने के बाद 1988 से 2012 के बीच 20 से 49 वर्ष के बीच की औरतों में मोटापे का प्रतिशत 9 से 37 तक बढ़ गया। 5 से 11 वर्ष के बीच के बच्चों में अपनी उम्र के हिसाब से अधिक वजनवाले बच्चों का प्रतिशत बढ़कर 29 हो गया जबकि 11 से 19 के बीच की उम्र के बच्चों के लिए यह प्रतिशत 19 तक हो गया। 

बड़ी कंपनियां लंबे वक्त तक खाद्य सामग्री को टिकाए रखने के लिए ज़रूरत से ज़्यादा रसायनों का इस्तेमाल करती है। इससे छोटे व्यवसायी तबाह हो गए क्योंकि स्थानीय स्तर पर उगाई गई फसल और जल्दी खराब हो जानेवाली खाद्य सामग्री के लिए जगह ही नहीं रह गई।

कृषि पर किसका कब्जा?

मेक्सिको के कृषि क्षेत्र पर जल्दी ही अमेरिकी कंपनियों का क़ब्जा हो गया। उन्होंने पारंपरिक वितरण व्यवस्था को नष्ट कर दिया और अपेक्षाकृत सस्ती कीमत पर वैसी खाद्य सामग्री फैला दी, जिसमें पोषण के तत्व न के बराबर थे। इसने पूरी आबादी की सेहत पर बहुत बुरा असर डाला।

मेक्सिको भारत के लिए चेतावनी है। अमरीकी कंपनियाँ मेक्सिको की खेती और कृषि उत्पाद के बाज़ार पर क़ब्जा कर पायें, इसके लिए अमेरिकी सरकार ने उनको भारी आर्थिक मदद दी।

अंबानी और अडानी के अलावा जिनकी लार भारतीय खेती पर टपक रही है, वे हैं अमेज़न, वॉलमार्ट, फ़ेसबुक, कारगिल, आर्चर डेनियल्स मिडलैंड्स, लुई ड्रायफस, गूगल, बुंगे जैसी कंपनियाँ। इनके भारतीय सहयोगी अडानी और अंबानी हैं। भारत के सबसे अमीर और छठे सबसे धनी कॉरपोरेट नाम।

ये सब भारत में भारी निवेश कर रहे हैं। फ़ेसबुक ने 500 करोड़ डॉलर से अधिक अंबानी के जियो प्लैटफ़ॉर्म में लगाए हैं। गूगल ने 400 करोड़ डॉलर से अधिक। भारत में जो ई- कॉमर्स जाल है, उसके 60% हिस्से पर अमेज़न और फ्लिपकार्ट का क़ब्जा है। 

अब हम समझ सकते हैं कि क्यों बड़े बड़े अर्थशास्त्री और मीडिया घराने कृषि संबंधी इन तीन क़ानूनों की तारीफ के कसीदे काढ़ रहे हैं। क्यों वे झुँझला रहे हैं कि सरकार ने मामले को अक्लमंदी से नहीं संभाला। क्यों डेमोक्रेट सरकार भी सरकार को सिर्फ यह सलाह दे रही है कि वह जनतांत्रिक दीखे लेकिन साथ ही उसके क़ानूनों की हिमायत कर रही है।

नफ़रत फैलाते लोग

लेकिन हमारी समझ में यह भी आना ही चाहिए कि क्यों फ़ेसबुक और वॉट्सऐप सरकार की हिमायत में घृणा का पर्यावरण बना रहे हैं। क्योंकि इस पर्यावरण से किसानों पर सरकारी हिंसा को लोकप्रिय समर्थन मिल सकेगा। इनके माध्यम से यह प्रचार किया जा रहा है कि बेचारी सरकार खेती-किसानी को आधुनिक बनाने की कोशिश कर रही है और उसके आलोचक उसके पाँव खींच रहे हैं। जनता को बताया जा रहा है कि जितनी बड़ी कंपनी होगी, उसे सामान उतना सस्ता मिलेगा। 

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भारत पर नज़र

तो दुनिया के सबसे बड़े मुनाफ़ाखोर इस वक़्त भारत को ध्यान से देख रहे हैं। भारत में अगर किसानों का आन्दोलन कामयाब होता है तो दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी इन कॉरपोरेट घरानों को भी पीछे धकेला जा सकेगा। किसानों के इस आंदोलन की सफलता का लाभ सिर्फ भारत के किसानों को नहीं, उसकी औरतों, बच्चों को मिलेगा और सारी आबादी को इस रूप में कि उसे वह नहीं झेलना पड़ेगा जो मेक्सिको की जनता ने झेला है।

सरकार का अड़ियलपन उसकी ताक़त का सबूत नहीं बल्कि इन बड़ी कंपनियों और उनके भारतीय दलालों, यानी अंबानी और अडानी के प्रति उनकी वफ़ादारी का प्रमाण है। सरकारी ताकत और हिंसा का सामना करने किसानों को  क्या अकेला छोड़ दिया जाना चाहिए?

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