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सुपर रिच टैक्स की बात से आगबबूला क्यों है सरकार?

सुपर रिच टैक्स की बात से आगबबूला क्यों है सरकार?

केंद्र सरकार ने कर्मचारियों के महँगाई भत्ते पर क़रीब डेढ़ साल के लिए रोक लगा दी। पेंशनरों को भी नहीं छोड़ा। मगर अब जब बड़े दौलतमंदों पर टैक्स लगाने का सुझाव दिया गया तो वह बौखलाई हुई है।

केंद्र सरकार ने कर्मचारियों के महँगाई भत्ते पर क़रीब डेढ़ साल के लिए रोक लगा दी। पेंशनरों को भी नहीं छोड़ा। मगर अब जब बड़े दौलतमंदों पर टैक्स लगाने का सुझाव दिया गया तो वह बौखलाई हुई है। सुपर रिच टैक्स का सुझाव देने वाले अधिकारियों से वह ख़फ़ा हो गई है और उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का मन बना रही है। 

ऐसे समय में जब देश न केवल कोरोना महामारी के संकट से गुज़र रहा है, बल्कि अर्थव्यवस्था का भी सत्यानाश हो रहा है, यह एक बहुत ही समझदारी का सुझाव है कि उन लोगों पर कुछ बोझ लादा जाए जो उसे उठा सकते हों।

केंद्रीय राजस्व सेवा के अधिकारियों ने राजस्व बढ़ाने के लिए जो प्रस्ताव पीएमओ, वित्त मंत्रालय और केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड को सौंपा है उसमें एक 'सुपर रिच टैक्स' भी है। लेकिन सरकार को यह पसंद नहीं आया है। उसका कहना है कि उनसे सुझाव नहीं माँगे गए थे, तो उन्होंने दिए क्यों।

राजस्व अधिकारियों के एक दल ने ‘फ़ोर्स’ नाम से 44 पेज की एक रिपोर्ट तैयार की थी। फ़ोर्स यानी फिस्कल ऑप्शंस एंड रिस्पाँस टू कोविड-19 एपिडेमिक की इस रिपोर्ट को चालीस अधिकारियों ने मिलकर तैयार किया है। इन अधिकारियों ने अपने दल को टीम फ़ोर्स का नाम दिया है। 

टीम फ़ोर्स ने सुपर रिच यानी जिनकी सालाना आय एक करोड़ रुपए से ऊपर है उन पर टैक्स 40 फ़ीसदी लगाने, संपत्ति एवं पैंडेमिक कर लगाने और विदेशी कंपनियों पर टैक्स को बढ़ाने जैसे सुझाव दिए हैं।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस तरह के सुझाव का स्वागत किया जाना चाहिए मगर सरकार ऐसा करने के बजाय नाराज़ हो रही है और इन अधिकारियों को दंडित करने का मन बना रही है। 

ध्यान रहे कि पिछले साल के बजट में सरकार ने डायरेक्ट टैक्स से 24 लाख साठ हज़ार करोड़ की आय का लक्ष्य रखा था मगर बाद में उसे इसमें से तीन लाख करोड़ कम करना पड़ गया था। इस साल के लिए भी उसने 12 फ़ीसदी ज़्यादा का लक्ष्य रखा है, मगर अर्थव्यवस्था की जो हालत है उसमें लगता है कि टैक्स कलेक्शन और भी कम होगा। यानी संकट गहरा है और अमीरों पर टैक्स लगाए बिना काम नहीं चलेगा।

आपको बता दें कि भारत में आर्थिक विषमता अपने चरम पर है। केवल दस फ़ीसदी लोगों के पास राष्ट्रीय संपदा का 77 फ़ीसदी है। यानी नब्बे फ़ीसदी आबादी के पास महज़ तेईस फ़ीसदी। एक और चौंकाने वाला आँकड़ा यह बताता है कि एक फ़ीसदी सुपर रिच ने 2019 में पैदा हुई कुल संपदा का 73 फ़ीसदी हड़प लिया था। इसके पहले वाले साल में इस एक फ़ीसदी के हिस्से में 58 प्रतिशत संपत्ति गई थी। 

यानी सरकारी नीतियों की वज़ह से अमीरों की अमीरी बढ़ती जा रही है और ग़रीब और ग़रीब हो रहे हैं। इसी वजह से बेरोज़गारी भी अपने चरम पर पहुँच गई है। इस समय भारत में बेरोज़गारी पैंतालीस साल में सबसे अधिक है।

आँकड़े ये भी बताते हैं कि पाँच हज़ार करोड़ से ज़्यादा की संपत्ति वाले कुल 934 सुपर रिच भारत में रहते हैं। अब अगर इनको अपनी आय का चालीस फ़ीसदी टैक्स के रूप में देना पड़े तो कौन सी आफ़त आ जाएगी।

ग़ौरतलब है कि दौलतमंदों पर अधिक टैक्स लगाने की बात केवल हिंदुस्तान के राजस्व अधिकारी ही नहीं कर रहे बल्कि यह चर्चा दुनिया भर में हो रही है। यूरोपीय यूनियन में इस पर बात चल रही है और अमेरिका में भी ट्रम्प प्रशासन पर दबाव पड़ रहा है कि संकट की इस घड़ी में दौलतमंदों पर कुछ बोझ डाले। अमेरिका में सुपर रिच पर 3 प्रतिशत संपत्ति कर पहले से ही वसूला जा रहा है। 

सरकार अपने फ़ंड देने वालों को नाराज़ नहीं करना चाहती। ये सुपर रिच ही हैं जो बीजेपी के चुनावी फंड में दिल खोलकर दान दे रहे हैं। इसीलिए वह इन पर टैक्स लगाने की नहीं उन्हें स्टीमुलस पैकेज यानी प्रोत्साहन के लिए मोटी रक़म देने की घोषणा करने वाली है।

सुपर रिच टैक्स के विरोधी ये दलीलें देकर भी सरकार को डरा रहे हैं कि टैक्स के बढ़ने से अर्थव्यवस्था को सुधारने की योजना पर असर पड़ेगा। मगर यह एक बड़ा झूठ है। असल में तो अर्थव्यवस्था इससे बेहतर होगी क्योंकि टैक्स से आया पैसा आम लोगों के पास जाएगा और उनके ख़र्च करने से इकोनामी में डिमांड बढ़ेगी।

दूसरा भय यह दिखाया जा रहा है कि बहुत सारे सुपर रिच देश छोड़कर भी जा सकते हैं। हालाँकि ऐसा होगा नहीं, मगर यदि ऐसा है भी तो देश छोड़कर जाने की बात करने वाले उद्योगपतियों की संपत्ति को तुरंत ज़ब्त कर लेना चाहिए। जो दौलतमंद मुसीबत के समय देश के काम नहीं आ सकते और भागने की सोचते हैं उनके साथ नरमी से पेश आना समझदारी नहीं कही जा सकती।

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