विदेशियों का स्वागत, अपनों पर रोक, क्या सरकार को भारतीय सांसदों पर भरोसा नहीं?
क्या केंद्र सरकार को अपने ही देश के संसद सदस्यों पर भरोसा नहीं है? क्या वजह है कि उसने अपने देश के सांसदों को जम्मू-कश्मीर नहीं जाने दिया, लेकिन यूरोपीय संसद के 23 सदस्यों के एक दल को कश्मीर जाने की न सिर्फ़ अनुमति दी है, बल्कि वहाँ उनकी सहूलियतों का पूरा ख़्याल रखा है?
ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 में बदलाव कर जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्ज़ा ख़त्म करने के बाद कई बार कई दलों के सांसदों ने वहाँ जा कर हाल जानने की कोशिश की। पर केंद्र सरकार ने उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी। जो लोग वहाँ गए, उन्हें हवाई अड्डे पर ही रोक दिया गया, हिरासत में ले लिया गया और वहीं से वापस भेज दिया गया।
सीताराम येचुरी को अनुमति नहीं
सबसे दिलचस्प उदाहरण भारतीय मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी का है। उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी के नेता युसुफ़ तारीगामी को भी गिरफ़्तार कर लिया गया, वह जेल में बंद हैं, वह बीमार और उनकी तबियत बिगड़ रही है जबकि उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। ऐसे में वह ख़ुद वहाँ जाकर तारीगामी से मिल कर उनका हाल जानना चाहते हैं। उन्हें अनुमति नहीं मिली।
येचुरी ने थक-हार कर सुप्रीम कोर्ट का सहारा लिया। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुआई में बने तीन-सदस्यीय खंडपीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा था, 'कोई नागरिक देश में कहीं भी जा सकता है।'
सुप्रीम कोर्ट के खंडपीठ ने इजाज़त तो दे दी, पर कई शर्तें भी थोप दीं। खंडपीठ ने कहा था, 'येचुरी सिर्फ़ अपनी पार्टी के नेता से मिलने जा सकते हैं, पर इसका इस्तेमाल किसी राजनीतिक मक़सद को साधने में न करें।' बेंच ने कहा कि यदि येचुरी इस मौके का इस्तेमाल किसी राजनीतिक गतिविधि में करते हैं तो इसकी रिपोर्ट अदालत से की जा सकती है।
क्या हुआ राहुल गाँधी के साथ?
इसके पहले एक बार राहुल गाँधी कश्मीर गए तो उन्हें श्रीनगर हवाई अड्डे पर ही रोक दिया गया और वापस भेज दिया गया। राहुल ने इस पर सवाल उठाया तो जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कहा कि राहुल को कश्मीर की स्थिति की जानकारी नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि वे ख़ुद हवाई जहाज़ भेजेंगे ताकि राहुल आकर कश्मीर का हाल अपनी आँखों से देखें। इस पर राहुल ने तंज करते हुए कहा कि उन्हें हवाई जहाज़ की ज़रूरत नहीं, सिर्फ़ अनुमति दे दी जाए।राहुल गाँधी ने राज्यपाल मलिक का जम्मू-कश्मीर आने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। राहुल गाँधी ने कहा कि वह विपक्ष के 9 नेताओं के साथ 24 अगस्त को राज्य का दौरा करेंगे और वहाँ के हालात के बारे में जानकारी लेंगे।
प्रशासन का यू-टर्न
लेकिन जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने राहुल गाँधी और विपक्षी नेताओं के राज्य में आने की ख़बर मिलते ही यू-टर्न ले लिया। प्रशासन ने ट्वीट कर कहा कि जब सरकार सीमापार के आतंकवाद और आतंकवादियों और अलगाववादियों के हमले से जम्मू-कश्मीर के लोगों को सुरक्षित करने के लिए काम कर रही है और राज्य में हालात सामान्य बनाने की कोशिश कर रही है, ऐसे में राजनीतिक दलों के नेताओं को सामान्य होती स्थिति को बिगाड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
राहुल गाँधी और विपक्ष के दूसरे 11 नेता जम्मू-कश्मीर गए तो उन्हें श्रीनगर हवाई अड्डे पर ही रोक लिया गया और वहाँ से वापस भेज दिया गया। प्रशासन ने कहा कि राज्य की स्थिति सुधर रही है और ऐसे में उनका वहाँ जाना ठीक नहीं होगा।
राहुल के साथ कांग्रेस के ग़ुलाम नबी आज़ाद और आनंद शर्मा, सीपीआईएम के सीताराम येचुरी, सीपीआई के डी. राजा, राष्ट्रीय जनता दल के मनोज झा, डीएमके के तिरुचि सिवा, तृणमूल कांग्रेस के डेरेक ओ ब्रायन और दूसरे नेता थे।
आज़ाद को भी जाना पड़ा अदालत
यही हाल जम्मू-कश्मीर के मूल निवासी और कांग्रेस नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद का भी हुआ। वह दो बार कश्मीर गए तो उन्हें श्रीनगर हवाई अड्डे पर ही हिरासत में ले लिया गया और वहाँ से वापस भेज दिया गया।
आज़ाद ने अंत में सुप्रीम कोर्ट की गुहार लगाई। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुआई में बने तीन-सदस्यी खंडपीठ ने उन्हें कश्मीर जाने की अनुमति दे दी। अदालत ने कहा कि वह सिर्फ़ चार ज़िले - श्रीनगर, जम्मू, बारामुला और अनंतनाग जा सकते हैं।
सवाल यह उठता है कि आख़िर सरकार ने सांसदों को जम्मू-कश्मीर क्यों नहीं जाने दिया? संविधान के अनुसार, संसद सार्वभौम है। ये सांसद इस सार्वभौम सांसद के सदस्य हैं। इन्हें रोका गया। पर यूरोपीय संसद के लोगों को कश्मीर जाने दिया गया। इतना ही नहीं, उनसे ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुलाक़ात की, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने उन्हें कश्मीर की ताज़ा स्थिति से अवगत कराया।
सवाल यह है कि यह सदाशयता अपने ही देश के सांसदों को क्यों नहीं दिखाई गई? सरकार को क्या आशंका है? क्या सरकार कुछ छुपा रही है? यदि हाँ, तो फिर वही बातें वह बाहरी लोगों से क्यों नहीं छिपा रही है?
इससे जुड़ा एक और सवाल है जो इतना ही अहम है। सवाल यह है कि इस दौरे से भारत सरकार को क्या हासिल होगा? पर्यवेक्षकों का कहना है कि यदि सरकार ने यह सोचा हो कि इससे दुनिया में कश्मीर को लेकर भारत की इज्ज़त बढ़ेगी तो वह मुग़ालते में है। इसकी वजह यह है कि ये सभी एमईपी विवादास्पद चरित्र के हैं, अपने मुसलिम विरोधी बयानों के लिए बदनाम हैं। फासीवादी और नात्सीवादी विचारों के लिए इनकी काफी आलोचना होती रही है। यदि इन्होंने भारत की तारीफ कर भी दी तो इसे कोई गंभीरता से नहीं लेगा। इससे भारत की छवि ख़राब ही होगी, ग़लत संकेत ही जाएगा।
सरकार क्या विदेश से कोई सर्टिफिकेट लेना चाहती है? वह किससे सर्टिफिकेट लेना चाहती है? उन दलों से सर्टिफिकेट लेना चाहती है, जो मुसलिम विरोधी नीतियों के लिए बदनाम है? क्या घनघोर फासीवादी और नात्सीवादी सांसदों से मिले सर्टिफिकेट से भारत की इज्ज़त सुधरेगी, या बची-खुची साख पर भी बट्टा लगेगा? मोदी सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए था।