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क्या माओ की किताब रखने से कोई माओवादी हो जाता है?

क्या माओ की किताब रखने से कोई माओवादी हो जाता है?

कथित माओवादी संबंधों के आरोप में जेल में बंद दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा जेल से बाहर आ गए। बॉम्बे हाई कोर्ट ने उनको बरी कर दिया। इसी के साथ एक बड़ा सवाल है कि आख़िर किन वजहों से उनको जेल में रखा गया था और रिहाई की वजह क्या है?

क्या किसी के पास से कोई किताब मिलना किसी अपराध का सबूत हो सकता है? क्या किसी के पास माओ की किताब पाया जाना या पढ़ने से ही किसी को माओवादी साबित किया जा सकता है? जीएन साईबाबा से लेकर गौतम नवलखा, वर्नन गोंसाल्वेस जैसे एक्टिविस्टों पर आख़िर आरोप लगाने के लिए किताबों को सबूत के तौर पर क्यों पेश किया गया? इन मामलों में अदालतों का रुख एकदम साफ़ रहा है कि यह दोषी साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं हो सकता है।

ऐसे कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा है कि किताबें रखना या पढ़ना किसी को आरोपी साबित करने के लिए काफ़ी नहीं है। किन-किन मामलों में इस तरह की दलील देते हुए पुलिस और ऐसी ही एजेंसियों ने कार्रवाई की थी और सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा है, यह जानने से पहले यह जान लें कि आख़िर जीएन साईबाबा का मामला क्या है। 

कथित माओवादी संबंधों के आरोप में जेल में बंद दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा को बॉम्बे हाई कोर्ट ने दो दिन पहले ही बरी किया है। साईबाबा और पांच अन्य को 2017 में एक सत्र अदालत ने दोषी ठहराया था। 

दिल्ली पुलिस के छापे के बाद उस समय प्रोफ़ेसर जीएन साईबाबा ने कहा था कि पुलिस उनका लैपटॉप, चार पेन ड्राइव, चार एक्सटर्नल हार्ड-डिस्क, कुछ किताबें अपने साथ ले गई। सेशन कोर्ट ने कहा था कि साईबाबा और दो अन्य अभियुक्तों के पास नक्सली साहित्य था, जिसे वो गढ़चिरौली में अंडरग्राउंड नक्सलवादियों को बाँटने वाले थे और ज़िले में लोगों को बाँट कर हिंसा फैलाना चाहते थे। 

सत्र अदालत के फ़ैसले के ख़िलाफ़ साईबाबा ने हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। उच्च न्यायालय ने इन सबूतों को नाकाफी माना था और 14 अक्टूबर, 2022 को 54 वर्षीय साईबाबा को बरी कर दिया था। 

सर्वोच्च न्यायालय ने साईबाबा की रिहाई के फ़ैसले को पहले रद्द कर दिया था और मामले को नए सिरे से सुनवाई के लिए उच्च न्यायालय में भेज दिया था। अब फिर से उच्च न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया है।

ऐसे कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा है कि किताबें रखना या पढ़ना यूएपीए के तहत आरोपी बनाने या फिर किसी को आरोपी साबित करने के लिए काफ़ी नहीं है। जानिए, इन मामलों में अदालत का फ़ैसला क्या रहा है।

गौतम नवलखा केस

सोशल एक्टिविस्ट गौतम नवलखा को 2020 में एल्गार परिषद मामले में गिरफ़्तार किया गया था। 2022 से वह घरों में नज़रबंद थे और दिसंबर 2023 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन्हें जमानत दी। एनआईए ने इसके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'मौजूदा केस में एजेंडा, पार्टी का संविधान या इससे मिलते-जुलते दस्तावेज पाये जाने से, जिसने कथित तौर पर हिंसा भड़काने का प्रोपेगेंडा किया, यूएपीए के तहत कार्रवाई नहीं की जा सकती है... सीपीआई (माओवादी) साहित्य पाया जाना यूएपीए के तहत नहीं आता है।'

वर्नोन गोंसाल्वेस केस

वर्नोन गोंसाल्वेस को अगस्त 2018 में जेल भेजा गया था। उनको भी एल्गार परिषद- माओवादी संबंध के मामले में यूएपीए के तहत आरोपी बनाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने वर्नोन गोंसाल्वेस और अरुण परेरा को जुलाई 2023 में जमानत दे दी थी। इसने कहा था, 'सिर्फ़ साहित्य का पाया जाना, यदि यह हिंसा के लिए उकसाता और प्रोपेगेंडा फैलाता है तो भी, न तो यूएपीए के तहत आतंकवादी कार्य में आता है और न ही दूसरे किसी अपराध में...।'

बिनायक सेन केस

बिनायक सेन को 2007 में गिरफ़्तार किया गया था। टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार उनपर कथित तौर पर राजद्रोह वाले साहित्य रखने के लिए राजद्रोह का आरोप लगाया गया था। सत्र न्यायालय ने 2010 में उनको आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में सजा पर रोक लगाते हुए उनको जमानत दे दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, 'सिर्फ़ रखने से ही राजद्रोह नहीं लगाया जा सकता है जब तक कि हिंसा न भड़कायी जाए...। यदि किसी के पास महात्मा गांधी की जीवनी मिलती है तो क्या वह गांधीवादी है? सामग्री मिलने पर भी तब तक राजद्रोह का कोई केस नहीं जब तक कि आप यह नहीं दिखाते कि वह सक्रिय रूप से उसमें शामिल थे या उनकी (माओवादियों) मदद कर रहे थे।'

अन्य मामले

ऐसे ही एक मामले में प्रतिबंधित उल्फा की कथित तौर पर सदस्यता और किताबें व सीडी रखने को लेकर एक शख्स को यूएपीए के तहत गिरफ़्तार किया गया था। इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सामग्री पाया जाना काफ़ी नहीं है। केरल के दो छात्रों के एक अन्य मामले में एनआईए कोर्ट ने 2019 में माओवादी लिंक के आरोप में सजा सुनाई थी। सुप्रीम कोर्ट ने जमानत देते हुए कहा था कि माओवादी विचारधारा का साहित्य पाया जाना आरोपी के ख़िलाफ़ कुछ भी साबित नहीं करता है। ऐसे ही एक अन्य मामले में एनआई ने 11 लोगों पर इस्लामिक स्टेट की विचारधारा फैलाने का आरोप लगाया था। लेकिन दिल्ली की एनआईए अदालत ने कहा था कि सिर्फ़ जिहादी साहित्य पाया जाना यूएपीए के तहत अपराध नहीं है। 

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