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क्या भूख से लड़ने के लिए भी सौ करोड़ टीके बनाने पड़ेंगे?

क्या भूख से लड़ने के लिए भी सौ करोड़ टीके बनाने पड़ेंगे?

वैश्विक भूख सूचकांक 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक़, भारत पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे है।  सवाल यह है कि जो संस्थाएँ यह गिनती कर सकतीं हैं कि हज़ार करोड़ की हैसियत वाले सुपर रिच क्लब में कितने और रईस बढ़ गए हैं या देश के सबसे धनाढ्य व्यक्ति मुकेश अम्बानी की सम्पदा बढ़कर 7.18 लाख करोड़ रुपये हो गई है, क्या ये कभी सबसे ग़रीब व्यक्तियों की भी गणना करके देश को बताएँगी? 

देश के विकास पर नजर रखने वालों के लिए इस ज़रूरी जानकारी का उजागर होना निराशाजनक है कि वैश्विक भूख सूचकांक (global hunger index) में दुनिया के 116 मुल्कों के बीच भारत 2020 में अपने 94वें स्थान से नीचे खिसककर 101वें स्थान पर पहुँच गया है। 

हमारे पड़ोसी देशों में नेपाल 76वें, म्यांमार 71वें और दुश्मन पाकिस्तान 92वें स्थान पर हैं। खबरों के मुताबिक़, सहायता, कार्यों से जुड़ी आयरलैंड की एजेंसी कन्सर्न वर्ल्डवाइड और जर्मनी के संगठन वेल्ट हंगर हिल्फे की संयुक्त रिपोर्ट में भारत में भूख के स्तर को चिंताजनक बताया गया है।

अमीरों की संख्या बढ़ी

इसके पहले की एक अन्य महत्वपूर्ण जानकारी यह है कि कोरोना की महामारी के दौरान एक साल में देश में   10000000000 रुपए (एक हज़ार करोड़) से अधिक की सम्पत्ति वाले उद्योगपतियों की संख्या बढ़कर अब 1007 हो गई है। यानी महामारी के दौरान 179 नए लोग इस सूची में जुड़ गए। 

इसी अवधि में गौतम अडाणी ने प्रतिदिन 1002 करोड़ रुपये कमाए। आँकड़े इस बात के भी उपलब्ध हैं कि कोरोना काल में कितने करोड़ लोग मध्यम वर्ग से खिसक कर ग़रीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों में शामिल हो गए।

अगर ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार की स्थिति में हाल में देखे गए आंशिक सुधार को छोड़ दें तो इस समय देश में बेरोज़गारी पिछले पैंतालीस सालों में सबसे अधिक है।

आँकड़े छुपाने का काम 

कोरोना से हुई मौतों की तरह ही इस सबके सही आँकड़े भी कभी नहीं बताए जाएँगे कि देश में ग़रीबी और बेरोज़गारी की वास्तविक स्थिति क्या है; ‌कोरोना काल में कितने लोग और ग़रीब हो गए; कितनों ने क़र्ज़ों के चलते आत्महत्याएँ कर लीं; और कि आने वाले सालों में हालात कितने बेहतर या बदतर होने वाले हैं !

यह शोध का विषय हो सकता है कि जब पूरे देश में लॉकडाउन चल रहा हो, उद्योग-धंधे ठप पड़े हों, करोड़ों मज़दूर घरों में बेकार बैठे हों, करोड़ों नए नाम बेरोज़गारों की सूची में जुड़ गए हों, शॉपिंग मॉल्स और बाज़ार सूने पड़े हों, जनता की क्रय-शक्ति को लकवा मार गया हो, महामारी के इलाज ने परिवार के परिवार आर्थिक रूप से तबाह कर दिए हों, हज़ार करोड़ से ज़्यादा की हैसियत वालों की संख्या कैसे बढ़ गई होगी? 

ये लोग क्या किसी ऐसे व्यवसाय में लगे हैं जिसका आम आदमी की ज़िंदगी से कोई सरोकार नहीं है? चारों तरफ़ जब अकाल पड़ा हो तब लहलहाती हुई फसलें लेने का चमत्कार कैसे सम्भव है? कोई तो कारण अवश्य रहा होगा।

गांधी जी का ताबीज़ 

गांधी जी ने एक ताबीज़ ईजाद किया था। उसका फ़ॉर्मूला दिल्ली में राजघाट स्थित उनकी समाधि पर लगी एक शिला पर अंकित है। उसमें कहा गया है- “मैं तुम्हें एक ताबीज़ देता हूँ। जब भी दुविधा में हो या जब अपना स्वार्थ तुम पर हावी हो जाए तो इसका प्रयोग करो। उस सबसे ग़रीब और दुर्बल व्यक्ति का चेहरा याद करो जिसे तुमने कभी देखा हो और अपने आप से पूछो- जो कदम मैं उठाने जा रहा हूँ, वह क्या उस ग़रीब के कोई काम आएगा? क्या उसे इस कदम से कोई लाभ होगा? क्या इससे उसे अपने जीवन और अपनी नियति पर कोई क़ाबू फिर मिलेगा? दूसरे शब्दों में, क्या यह कदम लाखों भूखों और आध्यात्मिक दरिद्रों को स्वराज देगा? तुम पाओगे कि तुम्हारी सारी शंकाएँ और स्वार्थ पिघलकर ख़त्म हो गए हैं।’’

ख़राब हो रहे हालात 

विश्व बैंक के आँकड़ों की मदद से प्यू रिसर्च सेंटर (Pew Research Centre) ने बताया है कि कोरोना काल के दौरान देश में दो डॉलर (लगभग डेढ़ सौ रुपये) प्रतिदिन से कम की क्रय क्षमता वाले नागरिकों की संख्या छह करोड़ से बढ़कर लगभग चौदह करोड़ (आबादी का दस प्रतिशत) हो गई है। 

भारत ने वर्ष 2011 के बाद से अपने ग़रीबों की गणना नहीं की है पर संयुक्त राष्ट्र के 2019 के आँकड़ों के मुताबिक़, यह संख्या लगभग सैंतीस करोड़ या कुल आबादी का लगभग सत्ताईस प्रतिशत थी। कोराना काल के आँकड़े शामिल कर लिए जाएँ तो यह संख्या और बढ़ जाएगी।

ग़रीबों की ग़िनती होगी?

सवाल यह है कि जो संस्थाएँ यह गिनती कर सकतीं हैं कि हज़ार करोड़ की हैसियत वाले सुपर रिच क्लब में कितने और रईस बढ़ गए हैं या देश के सबसे धनाढ्य व्यक्ति मुकेश अम्बानी की सम्पदा बढ़कर 7.18 लाख करोड़ रुपये हो गई है, क्या ये कभी सबसे ग़रीब व्यक्तियों की भी गणना करके देश को बताएँगी? 

 - Satya Hindi

या इन ग़रीबों में भी सबसे ग़रीब का चेहरा उन मीडिया संस्थानों के लिए जारी करेंगी जो नागरिकों को सरकार की तरह ही अमीरी के नक़ली सपने बेच-बेचकर बीमार कर रहे हैं? यही कारण है कि जब डोनल्ड ट्रम्प अहमदाबाद के मोटेरा स्टेडियम में ‘नमस्ते ट्रम्प’ के लिए कार से रवाना होते हैं तो रास्ते में पड़ने वाली ग़रीबों की झुग्गियों को छुपाने के लिए रातों-रात नक़ली दीवारें खड़ी कर दीं जातीं हैं। हमें लोगों को ग़रीब रखने में शर्म नहीं आती, ग़रीबी के दिख जाने में शर्म आती है।

चीन के सख़्त क़दम 

अमेरिका की बात छोड़ दें (भारत की तरह वहाँ भी कोरोना काल में एक सौ तीस नए उद्योगपति अरबपतियों के क्लब में शामिल हो गए) तब भी यह जानना ज़रूरी है कि हमारे पड़ोस में चीनी राष्ट्रपति ने अपने यहाँ उन बड़े-बड़े अरबपतियों की गर्दनें नापना शुरू कर दिया है जो वित्तीय संस्थानों से लिए गए क़र्ज़े नहीं लौटा रहे हैं। उन पर बड़े-बड़े जुर्माने ठोके जा रहे हैं। इसका उद्देश्य असमानता को पाटना और सम्पन्नता को सभी नागरिकों में बाँटना है। 

चीन में शिखर पर बैठे एक प्रतिशत लोग देश की इकतीस प्रतिशत सम्पदा के मालिक हैं। क्या भारत में भी कभी कोई ऐसा दिन देखने को मिलेगा जब जिन अस्सी करोड़ लोगों को गर्व के साथ अभी मुफ़्त का अनाज बाँटा जा रहा है उन्हें आत्मनिर्भर (भारत) कर दिया जाएगा?

अमीर इसी तरह अरबपति होते रहे और ग़रीब और ज़्यादा ग़रीब तो किसी दिन वैज्ञानिकों को ऐसा टीका भी ईजाद करना पड़ सकता है जो सौ करोड़ नागरिकों को भूख के ख़िलाफ़ भी इम्यूनिटी प्रदान कर सके।

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