बेगम अख्तर: ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया...
वे सरापा ग़ज़ल थीं। उन जैसे ग़ज़लसरा न पहले कोई था और न आगे होगा। ग़ज़ल से उनकी शिनाख्त है। ग़ज़ल के बिना बेगम अख्तर अधूरी हैं और बेगम अख्तर के बगैर ग़ज़ल। देश-दुनिया में ग़ज़ल को जो बेइंतिहा मकबूलियत मिली, उसमें बेगम अख्तर का बड़ा रोल है। एक दौर में जब ग़ज़ल बादशाहों, नवाबों के दरबार की ही जीनत होती थी, ख़ास लोगों तक ही महदूद थी, उसे उन्होंने आम जन तक पहुँचाया। बेगम अख्तर ने बतलाया कि ग़ज़ल सिर्फ़ पढ़ी ही नहीं जाती, बल्कि इसे संगीत में ढालकर गाया भी जा सकता है।
बेगम अख्तर ने जो भी गाया, उनकी पुरकशिश आवाज़ ने इन ग़ज़लों को अमर कर दिया। ग़ज़ल को क्लासिकल म्यूजिक में वह मर्तबा दिलवाया, जिसकी वह हकदार थी। वे बेगम अख्तर ही थीं, जिन्होंने सबसे पहले कहा, ग़ज़ल भारतीय शास्त्रीय संगीत की परम्परा का हिस्सा है। एक अहम बात और जो उन्हें अजीम बनाती है। उस दौर में जब महिलाएँ साहित्य, संगीत और कला हर क्षेत्र में कम दिखलाई देती थीं, तब बेगम अख्तर देश की उन चुनिंदा गायिकाओं सिद्धेश्वरी देवी, गौहरजान कर्नाटकी, गंगूबाई हंगल, अंजनीबाई मालपकर, मोगूबाई कुर्डीकर, रसूलन बाई में से एक थीं, जिन्होंने सार्वजनिक कॉन्सर्ट दिए। और भारतीय समाज को बतलाया कि महिलाएँ भी भारतीय शास्त्रीय संगीत, उप-शास्त्रीय संगीत के गायन में किसी से कम नहीं।
1960 के दशक के मध्य में जब एलपीज चलन में आए, तो जो शुरुआती रिकॉर्डिंग आईं, उसमें भी बेगम अख्तर के ग़ज़लों की रिकॉर्डिंग थीं। वे बड़े बेलौस अंदाज में, बिना किसी तनाव के महफिलों में खुलकर गाती थीं। हारमोनियम पर उनके हाथ पानी की तरह चलते थे। अख्तरीबाई फैजाबादी बैठकी और खड़ी दोनों ही तरह की महफिलों में गायन के लिए पारंगत थीं।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि बेगम अख्तर ने अपने गायन से हिंदुस्तानी उप-शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाया। उसे आम जन तक पहुँचाया। आज हम इक़बाल बानो, फरीदा खानम, मलका पुखराज, शोभा गुर्टू, रीता गांगुली, मेंहदी हसन, गुलाम अली, जगजीत सिंह वग़ैरह की ग़ज़ल गायकी के कायल हैं, उनकी ग़ज़लों के मुरीद हैं। लेकिन एक दौर था, जब बेगम अख्तर के अलावा ग़ज़ल गायन के मैदान में दूर-दूर तक कोई नहीं था। उन्होंने ही उप-शास्त्रीय संगीत में ग़ज़ल को सम्मानजनक मुकाम तक पहुंचाया। पंडित जसराज, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, नर्गिस से लेकर सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर तक बेगम अख्तर की गायकी की कायल हैं। यही नहीं शास्त्रीय गायक कुमार गंधर्व, संगीतकार मदन मोहन और शायर जिगर मुरादाबादी, कैफी आजमी उनके अच्छे दोस्तों में से एक थे।
बेगम अख्तर ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थीं। बावजूद इसके उर्दू और फारसी अल्फाजों से लबरेज ग़ज़लों के तलफ्फुज को वे बड़े ही सरलता से पकड़ लेती थीं और इस अदायगी से गाती थीं कि सुनने वालों के मुंह से वाह-वाह ही निकलता था। उर्दू अदब से उन्हें मोहब्बत थी, ख़ास तौर पर बेहतरीन शायरी उनकी कमज़ोरी थी। जो कलाम उन्हें पसंद आ गया, अपनी बेहतरीन गायकी से उन ग़ज़लों में उन्होंने रूह डाल दी। बेगम अख्तर ने जिस शायर का कलाम गा दिया, वह ज़िंदा जावेद हो गया।
कवि, कला-संगीत मर्मज्ञ यतीन्द्र मिश्र, जिन्होंने बेगम अख्तर पर हाल ही में एक शानदार किताब ‘अख्तरी सोज और साज का अफसाना’ का सम्पादन किया है। उनका कहना है, ‘अपनी अद्भुत पुकार तान और बिल्कुल नये ढंग की मींड़-मुरकियों-पलटों के साथ खनकती हुई आवाज़ के चलते बेगम अख्तर को असाधारण ख्याति हासिल हुई। अपनी आवाज़ में दर्द और सोज को इतनी गहराई से उन्होंने साधा कि एक दौर में उनकी आवाज़ की पीड़ा, दरअसल एक आम-ओ-खास की व्यक्तिगत आवाज़ का सबब बन गई।’
ग़ज़ल के अलावा बेगम अख्तर ने भारतीय उप शास्त्रीय गायन की सभी विधाओं मसलन ठुमरी, दादरा, कहरवा, ख्याल, चैती, कजरी, बारामासा, सादरा वगैरह में भी उसी महारत के साथ गाया।
वे ठेठ देशी ढंग से ठुमरी गाती थीं। उनकी ठुमरी में कभी-कभी बनारस के लोक गीतों की शैली का असर भी दिखलाई देता था। बेगम अख्तर ने ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को शास्त्रीय संगीत के बराबर लाकर खड़ा किया और बड़े-बड़े दिग्गज उस्तादों से अपनी गायकी का लोहा मनवाया।
बेगम अख्तर बनने के लिए अपनी ज़िंदगी में उन्होंने काफ़ी जद्दोजहद और संघर्ष किए। रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक समाज ने उन्हें लाख बेड़ियाँ पहनाईं, लेकिन एक बार उन्होंने जो फ़ैसला कर लिया, फिर कोई ताक़त उन्हें उनके पुराने पेशे में वापिस न ला पाई। शादी के बाद बेगम अख्तर ने लखनऊ में दोबारा इसलिए नहीं गाया, क्योंकि उन्होंने अपने पति इश्तियाक अहमद अब्बासी से इसका वादा किया था। 7 अक्टूबर, 1914 को अवध की राजधानी रही फैजाबाद के भदरसा कस्बे में एक तवायफ मुश्तरीबाई के यहाँ जन्मीं अख्तरीबाई फैजाबादी उर्फ बिब्बी जब सिर्फ़ सात साल की थीं, तब उनकी माँ ने उन्हें मौसिकी की तालीम देनी शुरू कर दी थी। उस्ताद इमदाद खां, उस्ताद अब्दुल वहीद खां (किराना), उस्ताद रमजान खां, उस्ताद बरकत अली खां (पटियाला), उस्ताद गुलाम मोहम्मद खां (गया) और अता मोहम्मद खां (पटियाला) की शागिर्दी में बेगम अख्तर ने संगीत और गायकी का ककहरा सीखा।
13 साल की उम्र में पहली परफॉर्मेंस
महज तेरह साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली पब्लिक परफॉर्मेंस दी। मौक़ा था, कोलकाता में बिहार रिलीफ़ फंड के लिए एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का। अपने पहले ही कार्यक्रम में उन्होंने ढाई घंटे तक ग़ज़ल, दादरा और ठुमरी सुनाई। इस प्रोग्राम में सरोजिनी नायडू मुख्य अतिथि थीं, जो उनकी आवाज़ सुन इतनी मुतास्सिर हुईं कि कार्यक्रम के आख़िर में उन्होंने बेगम अख्तर को एक साड़ी गिफ्ट की। बहरहाल, तेरह साल की ही उम्र में उनका पहला रिकॉर्ड, मेगाफोन रिकॉर्ड कंपनी से आया। साल 1930 में वे पारसी थियेटर से जुड़ गईं। कॉरिंथियन थियेटर कंपनी के लिए उन्होंने कुछ नाटक आगा मुंशी दिल लिखित, निर्देशित नाटक ‘नई दुल्हन’, ‘रंगमहल’ ‘लैला मजनूं’, ‘हमारी भूल’ में अभिनय और गायन किया।
वह दौर पारसी थियेटर और फ़िल्मों का था। ख़ास तौर पर फ़िल्में सभी को आकर्षित करती थीं, स्वभाविक था बेगम अख्तर भी फ़िल्मों की ओर आकृष्ट हुईं। उन्होंने कुछ साल फ़िल्मों में काम किया। ‘एक दिन का बादशाह’ से उन्होंने अपने सिने करियर की शुरुआत की, जो अदाकार-गायक के.एल. सहगल की भी पहली फ़िल्म थी। ‘नल दमयंती’ (साल-1933), ‘मुमताज बेगम’, ‘अमीना’, ‘जवानी का नशा’, ‘रूपकुमारी’ (साल-1934), ‘नसीब का चक्कर’ (साल-1935), ‘अनार बाला’ (साल-1940), ‘रोटी’ (साल-1942), ‘दानापानी’ (साल 1953), ‘एहसान’ (साल 1954) वे फ़िल्में हैं, जिनमें बेगम अख्तर ने अदाकारी की। साल 1958 में आई महान फ़िल्मकार सत्यजीत राय की फ़िल्म ‘जलसाघर’ उनकी आख़िरी फ़िल्म थी। इस फ़िल्म में वे पेशेवर गायिका के ही रोल में थीं और निर्देशक ने उन पर एक बैठकी महफिल का सीन फ़िल्माया था।
फ़िल्म में उन्होंने अपनी दर्द भरी आवाज़ में एक दादरा ‘हे भर भर आई मोरी अँखियाँ पिया बिन’ भी गाया था। निर्देशक महबूब की फ़िल्म ‘रोटी’ में बेगम अख्तर ने अदाकारी के साथ-साथ गाने भी गाए थे। यही नहीं, संगीतकार मदन मोहन के लिए उन्होंने दो फ़िल्मों में यह ग़ज़ल ‘ए इश्क मुझे और कुछ याद नहीं’ (फ़िल्म-दानापानी), ‘हमें दिल में बसा भी लो..’ (फ़िल्म-एहसान) रिकॉर्ड करवाई थीं।
बेगम अख्तर ने फ़िल्में ज़रूर कीं, लेकिन उन्हें फ़िल्मी दुनिया ज़्यादा रास न आई। बाद में उन्होंने फ़िल्मों से हमेशा के लिए दूरी बना ली। और वे अपने संगीत की दुनिया में ही खुश थीं।
साल 1945 में लखनऊ के एक बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी, जिनका काकोरी के नवाब खानदान से ताल्लुक था, के साथ उनका निकाह हुआ और अख्तरी बाई फैजाबादी से वह बेगम अख्तर बन गईं। अपने खाविंद से उनका क़रार था, शादी के बाद वे गायकी छोड़ देंगी। बेगम अख्तर ने इस कौल को पाँच साल तक निभाया भी। लेकिन इसका असर उनकी सेहत पर पड़ा। वह बीमार रहने लगीं। गम-उदासी और डिप्रेशन उन पर हावी होने लगा। इश्तियाक अहमद अब्बासी से बेगम अख्तर की यह हालत देखी नहीं गई, वे उन्हें लेकर डॉक्टर और हकीमों की तरफ़ दौड़े। डॉक्टर, उनका मर्ज फौरन पहचान गए। डॉक्टरों ने इस बीमारी का इलाज गाना बतलाया।
खैर, उनके पति ने उन्हें आकाशवाणी में गाने की इजाज़त दे दी। साल 1949 में उन्होंने फिर गाना शुरू कर दिया। उनकी वापसी पहले से ज़्यादा शानदार रही। ऑल इंडिया रेडियो, आकाशवाणी और दूरदर्शन के अलावा वे निजी महफिलों में भी ग़ज़ल गायकी और उप-शास्त्रीय गायन के लिए जाने लगीं।
बेगम अख्तर की ग़ज़ल के प्रति दीवानगी
बेगम अख्तर की ग़ज़ल के जानिब बड़ी दीवानगी थी। बेगम अख्तर ने कई अजीम ग़ज़लकारों मिर्ज़ा गालिब, जौक, मिर्जा रफी सौदा, मोमिन, मीर तकी मीर, फिराक गोरखपुरी, कैफी आजमी, जां निसार अख्तर, जिगर मुरादाबादी की रूमानी और दर्द भरी ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी। ‘उल्टी हो गईं सब तदबीरें’, ‘दिल की बात कही नहीं जाती (मीर तकी मीर), ‘वो जो हम में तुम में करार था, तुम्हें याद...’ (मोमिन खान ‘मोमिन’), ‘जिक्र उस परीवश का और फिर...’, ‘वो न थी हमारी किस्मत...’ (मिर्जा गालिब), ‘कभी ए हकीकत मुंतजर नजर आ लिबासे मजाज में’ (इकबाल) ‘ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, ‘मेरे हमनफस, मेरे हमनवा...’, ‘आँखों से दूर सुबह के तारे चले गए...’ (शकील बदायूँनी), ‘दीवाना बन जाना...’ (खुमार बारावंकवी), ‘आये कुछ अब्र कुछ शराब आए...’ (फैज अहमद फैज), ‘कोई ये कह दे गुलशन-गुलशन, लाख बलाएं...(जिगर मुरादाबादी), ‘इतना तो ज़िंदगी में किसी की खलल पड़े...’ (कैफी आजमी), ‘कुछ तो दुनिया की इनायत ने दिल तोड़ दिया’ (सुदर्शन फाकिर), ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे...’ (बहजाद लखनवी), ‘सख्त है इश्क की रहगुजर...’ (शमीम जयपुरी), ‘अब छलकते हुए सागर नहीं देखे जाते’ (अली अहमद जलीली) बेगम अख्तर द्वारा गायी, वे ग़ज़लें हैं, जो उन्हीं के नाम और गायन से जानी जाती हैं। जिसमें भी उनकी ये ग़ज़ल ‘ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, उस जमाने में नेशनल ऐन्थम की तरह मशहूर हुई। वे जहाँ जातीं, सामयीन उनसे इस ग़ज़ल की फरमाइश ज़रूर करते। इस ग़ज़ल के बिना उनकी कोई भी महफिल अधूरी रहती। ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे...’ भी बेगम अख्तर की सिग्नेचर ग़ज़ल है।
बेगम अख्तर की आवाज़ में पुरबिया, अवधी और भोजपुरी बोलियों की मिठास थी। उन्होंने ग़ज़ल के अलावा लोक संगीत को भी अपनी आवाज़ दी। उनकी गायी हुई ठुमरी, दादरा, कजरी और चैती का भी कोई जवाब नहीं।
उन्होंने शास्त्रीय बन्दिशें भी गजब की गाई हैं। अपनी ठुमरियों में वे पूरब और पंजाबी शैलियों का सुंदर मेल करती थीं। मिसाल के तौर पर उनकी कुछ उप शास्त्रीय बंदिशें जो उस समय ख़ूब मशहूर हुईं, वे इस तरह से हैं- ‘हमरी अटरिया पे आओ संवरिया...’, ‘कोयलिया मत कर पुकार करेजवा लागे...’, ‘छा रही काली घटा जिया मेरा लहराये’, ‘लागी बेरिया पिया के आवन की’, ‘जरा धीरे-से बोलो कोई सुन लेगा’, ‘पपीहा धीरे-धीरे बोल’, हमार कही मानो हो राजा जी’, ‘कौन तरह से तुम खेलत होरी’, ‘जब से श्याम सिधारे...’।
बेगम अख्तर ज़्यादातर ख़ुद ही अपनी ग़ज़लों और तमाम उप शास्त्रीय गायन की धुन तैयार करती थीं। यही नहीं, गायन में वह कहन को ज़रूरी मानती थीं। उनका मानना था, जो भी गाओ खुलकर गाओ।
बेगम अख्तर, हरदिल अजीज फनकार थीं। उनसे जुड़े कई क़िस्से हैं, जो आज किंवदंती बन गए हैं। मसलन कोई ग़ज़ल यदि बेगम अख्तर को पसंद आ जाती थी, तो वे देखते-देखते उसकी बंदिश बना देती थीं। सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने रेडियो पर उनकी मशहूर ग़ज़ल ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे’, ‘आपकी फरमाइश’ प्रोग्राम में महज इसलिए भेजी थी कि वे उनके नाम के साथ, अपना नाम सुनना चाहती थीं। मशहूर शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां, बेगम अख्तर के गायन पर इसलिए फिदा थे कि गायन के दौरान दुगुन-तिगुन के समय उनकी आवाज़ जो लहरा के भारी हो जाती थी, वह कमाल उन पर जादू करता था। शायर कैफी आजमी ने अपने एक इंटरव्यू में बेतकल्लुफ होकर यह बतलाया था,
‘मैं ग़ज़ल इसलिए कहता हूँ कि, ताकि मैं ग़ज़ल यानी बेगम अख्तर से नज़दीक हो जाऊँ।’ बेगम अख्तर से जुड़ा एक क़िस्सा और है, जो उनकी शार्गिद शान्ती हीरानंद ने बतलाया था, ‘एक बार जब बेगम अख्तर लाल क़िले में परफार्मेंस के लिए गईं, तो प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू उनको देखकर आदर में खड़े हो गए और उनका अभिवादन किया।’
अपने एक इंटरव्यू में बेगम अख्तर ने कहा था,
‘तासीर रचने के लिए सुर की सच्चाई सबसे ज़रूरी है।’ उनका कहना था, ‘आवाज़ के साथ उसमें दर्द ज़रूरी है। यही दर्द, आवाज़ में रस पैदा करता है।’
अपनी पसंदीदा शार्गिद रीता गांगुली, जो ख़ुद बेगम अख्तर परम्परा की बेजोड़ गायिका हैं, को नसीहत देते हुए वे हमेशा कहती थीं, ‘अगर ज़िंदगी में कामयाब होना है, तो तन्हाई से दोस्ती कर लो। वो तुम्हारा साथ कभी नहीं छोड़ेगी।’ जाहिर है कि ज़िंदगी में मिली तन्हाई और गम ने उनकी गायकी को और संवारा।
30 अक्टूबर, 1974 को महफिल-ए-ग़ज़ल की जीनत बेगम अख्तर इस जहाने फानी से हमेशा के लिए रुखसत हो गईं। अपने इंतकाल से पहले आकाशवाणी के लिए उन्होंने अपनी आख़िरी ग़ज़ल रिकॉर्ड कराई थी। यह कैफी आजमी का कलाम ‘सुना करो मेरी जां इनसे उनसे अफसाने..’ था। बेगम अख्तर की मौत के बाद सिद्धेश्वरी देवी, जो उनकी अच्छी साथी और उन्हीं के टक्कर की उप शास्त्रीय गायिका थीं, उन्होंने जज्बाती होकर कहा था, ‘अख्तर गयी, उसके साथ ग़ज़ल गयी, ठुमरी गयी, गायिकी गयी, ग़ज़ल की दुनिया चली गयी।’ बेगम अख्तर के बाद, ग़ज़ल तो आज भी गायी जा रही है, लेकिन उनके जाने के साथ ही ग़ज़ल का वह जुदा अंदाज़ और उसकी शोखी, उनके साथ ही चली गई।