सत्ता में बने रहने के लिए जॉर्ज ने किया सिद्धांतों से समझौता
आख़िरकार जॉर्ज फ़र्नांडिस विदा हुए। कुछ वर्षों से वे थे भी और नहीं भी थे। एक व्यक्ति जिसका नाम डाइनामाइट केस से जुड़ा हो और जिस वजह से ही वह धमाकेदार माना जाता हो, उसके आख़िरी वर्ष इस तरह असहाय अवस्था में गुज़रें, इससे बढ़कर अफ़सोस की बात कुछ और हो नहीं सकती। तो, एक तरह से यह उनकी मुक्ति है।
जॉर्ज का जाना : ग़ैर-कांग्रेसवाद के समाजवादी नायक थे जॉर्ज फ़र्नांडिस
भारत वर्ष में मृत्यु के बाद व्यक्ति की समीक्षा को बुरा माना जाता है। प्रायः उन पक्षों को याद किया जाता है जो सकारात्मक हैं। ऋणपक्ष को बाद के लिए छोड़ दिया जाता है। इसलिए आज जॉर्ज को आपातकाल के हीरो के रूप में याद किया जा रहा है। उनके भेष बदल कर गुप्त ढंग से रहने के क़िस्से दुहराए जा रहे हैं। उनकी मृत्यु को एक जुझारू नेता के अंत के रूप में पेश करने का लोभ संपादन करना आसान नहीं है।
फिर भी कहना होगा कि जॉर्ज के जुझारू, संघर्षमय जीवन की छवियाँ उतनी नहीं हैं जितनी उनकी एक सांसद और मंत्री के करियर की हैं।
जॉर्ज को कहा समाजवादी जाता है, और थे भी वह समाजवादी ही लेकिन यह देखकर आश्चर्य हो सकता है कि समाजवादी अपनी जो आत्मछवि चाहते हैं, उससे उलट उनका यथार्थ सत्ता में येन-केन प्रकारेण बने रहने का ही है।
दुश्मनों से भी मिलाया हाथ
जॉर्ज, जनता पार्टी के शासनकाल में तो मंत्री थे ही, विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार में भी मंत्री थे। लेकिन सत्ता का आकर्षण इतना अधिक था कि किसी समय जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को वह विष मानते थे, उसके राजनीतिक दल बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में भी वह मंत्री बने। संकोच से नहीं, शान से। यही नहीं कि वह मंत्री बने बल्कि उन्हें संघ और बीजेपी ने इतना अपना माना कि उन्हें गठबंधन का संयोजक भी बना दिया। जॉर्ज ने इस वक़्त राजा से अधिक वफ़ादार की भूमिका निभाई।
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संघ, बीजेपी के बने पैरोकार
मृत्यु के इस क्षण में यह याद करना अप्रीतिकर लग सकता है कि जॉर्ज संघ और बीजेपी के सबसे बड़े पैरोकार बन कर उभरे। इस देश के मुसलमान और अन्य जनतांत्रिक लोग उनका वह बयान भूल नहीं सकते जो उन्होंने गुजरात के दंगों पर दिया था। एक स्त्री का भ्रूण निकालकर उसकी हत्या के प्रसंग को यूं ही हवा में उड़ाते हुए उन्होंने कहा था कि यह कोई ख़ास बात नहीं, यह सब होता रहता है।
जॉर्ज उस समाजवादी धारा के स्वाभाविक सदस्य हैं जो नेहरू से अपनी घृणा और कांग्रेस से नफ़रत के चलते किसी भी हद तक जा सकता है। लोहिया इसके लिए शैतान से हाथ मिलाने को तैयार थे।
जिन लोगों को महात्मा गाँधी की हत्या के बाद जयप्रकाश और कमलादेवी चट्टोपाध्याय की प्रेस कॉन्फ़्रेंस याद है तो वे उस जयप्रकाश को नहीं समझ पाए जिन्होंने कहा कि अगर आरएसएस फ़ासिस्ट है तो वह भी फ़ासिस्ट हैं।
धर्मनिरपेक्षता के साथ किया समझौता
यह कोई जनतांत्रिक इच्छा नहीं है, बिना मिलावट की सत्ता लोलुपता है जो जॉर्ज के साथ और बाद की पीढ़ी के समाजवादियों को बीजेपी के दामन में इत्मिनान देती है। कांग्रेस को दूर रखना अपने आप में कोई जनतांत्रिक कार्य नहीं है, जिसके लिए कोई भी क़ीमत अदा की जाए। जॉर्ज और उनके साथियों ने, जिनमें शरद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह जैसे लोग शामिल हैं, जनतंत्र के नाम पर भारत की बुनियाद, यानी धर्मनिरपेक्षता के साथ समझौता कर लिया।
नीतीश कुमार का सबसे नया अवतार भी जॉर्ज की परंपरा की ही बढ़त है। उन्हें अब यह कहने में संकोच भी नहीं कि उनकी पार्टी में किसे पद मिले, यह भी बीजेपी के अध्यक्ष तय करते हैं।
इसका अर्थ यह नहीं कि समाजवादी विचार अनिवार्य रूप से शैतानी है। लेकिन उसके संसदीय व्यवहार में ज़रूर गहरे खोट हैं। निरपवाद रूप से वह बहुसंख्यकवादी राजनीति की दोयम दर्ज़े की पार्टनर बनने में कभी झिझकी नहीं। जॉर्ज की मृत्यु के मौक़े पर यह कहना अप्रिय हो सकता है लेकिन आज के लिए यह फ़र्ज़ है।