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सिविल ईंजीनियर से 'गंगा योद्धा', गुरु सानंद तक का सफ़र

सिविल ईंजीनियर से 'गंगा योद्धा', गुरु सानंद तक का सफ़र

सिंचाई विभाग में नौकरी करने वाला यह इंजीनियर दूसरोें से हट कर था। गंगा की दुर्गति से वह इस तरह द्रवित हो उठा कि उसने अपनी जिंदगी इस मोक्षदायिनी नदी को सौंप दी। 

रुड़की विश्वविद्यालय से सिविल इंजीनियरिंग पास करने के बाद गुरु दास अगरवाल ने उत्तर प्रदेश सरकार के सिंचाई विभाग में डिज़ायन इंजीनियर के रूप में काम शुरू किया। लेकिन इस महात्वाकांक्षी और तेज़ तर्रार इंजीनियर ने ज़ल्द ही अमरीका स्थित बर्कले के यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलीफ़ोर्निया से पर्यावरण इंजीनयरिंग में पीच डी की।  

जी डी अगरवाल से गुरु सानंद

यह उनके जीवन का महत्वपूर्ण पड़ाव था। उन्होंने इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, कानपुर, में सिविल और पर्यावरण इंजीनियरिंग पढ़ाना शुरू किया। गुरु दास अगरवाल के जी डी अगरवाल और फिर गुरु सानंद बनने की कहानी यहीं से शुरू होती है। वे लंबे समय तक केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव रहे। जी डी अगरवाल   ने पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रदूषण के असर का अध्ययन किया।

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गंगा को जीवन समर्पित

उन्होंने पर्यावरण को हो रहे नुक़सान को नज़दीक से देखा। उन्होंने पाया कि किस तरह देश की तमाम नदियां प्रदूषित हो रही हैं और मानव जीवन को प्रभावित कर रही हैं।  उन्होंने गंगा को चुना। अगरवाल नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी के कामकाज से दुखी थे। वे गंगा नदी के बेहतर रख रखाव के लिए अलग क़ानून बनाने की मांग करने लगे। सरकार ने उनकी एक न सुनी।रिटायर होने के बाद उन्होेंने गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने और इसकी सुरक्षा को ही अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य बना लिया। उन्होने बाद में संन्यास ले लिया और अपना नाम बदल कर संत स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद कर लिया।

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संन्यास

स्वामी सानंद ने हरिद्वार में ही अपना आश्रम बनाया और गांधीवादी तरीके से जीवन यापन करने लगे। वे छोटी सी कुटिया में रहते थे, खुद खाना बनाते थे, कपड़े साफ़ करते थे। सामान के नाम पर उनके पास कुछ कपड़े ही थे।

सरकार की संवेदनहीनता 

वे गंगा पर बन रही पनबिजली परियोजनाओं, बालू निकालने वाले धंधे के विरोधी थे। गंगा को हरिद्वार में राह मोड़ कर सिंचाई और पनबिजली परियोजनाओं में लगाया गया था, वे इसका विरोध करते थे। वे चाहते  थे कि गंगा की धारा को अविरल रखा जाए। इस उन्होंने अलग अलग समय में कई बार भूख हड़ताल की, अनशन पर बैठे, आंदोलन किया। उनकी कोशिशो्ं से यह नतीज़ा ज़रूर निकला की सरकार ने गंगा की समस्या को माना और इस पर काम करने की योजना बनाई। उन्होंने इस साल 22 जून को प्रधानमंत्री को ख़त लिख कर बताया कि वे अगले दिन से आमरण अनशन शुरू करेंगे। इसका मक़सद गंगा पर बन रही पनबिजली परियोजनाओं को रोकना और अविरल धारा सुनिश्चित करना था। यह उनका अंतिम अनशन साबित हुआ। सरकार की संवेदनहीनता का नतीज़ा यह निकला कि 111 दिन के अनशन के बाद उनकी मौत हो गई।

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