4 माह के लॉकडाउन से देश कराह रहा, 11 माह की पाबंदी में जम्मू-कश्मीर में क्या हाल?
जब सिर्फ़ चार महीने के लॉकडाउन से देश ही नहीं, बल्कि राज्यों की भी अर्थव्यवस्था तबाह हो गई है तो फिर जहाँ 11 महीने से लॉकडाउन है वहाँ क्या हालत होगी! क्या इसकी कल्पना की जा सकती है 4 महीने के लॉकडाउन में ही कराहते देश में जम्मू-कश्मीर ऐसा राज्य है जहाँ 11 महीने से 'लॉकडाउन' है। कहीं ज़्यादा सख़्त लॉकडाउन। ज़ाहिर है इसका असर भी उतना ही भयावह होना तय था। इसी बात को जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार फ़ोरम ने एक रिपोर्ट में माना है।
जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार फ़ोरम ने एक रिपोर्ट में कहा है कि लॉकडाउन का आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव जम्मू-कश्मीर क्षेत्र और यहाँ के लोगों पर 'विनाशकारी' रहा है। यानी लॉकडाउन ने सिर्फ़ अर्थव्यवस्था को ही तबाह नहीं किया है, बल्कि हर चीज को इसने प्रभावित किया है।
इस फ़ोरम की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन बी लोकुर और जम्मू-कश्मीर के लिए वार्ताकार समूह की सदस्य रहीं राधा कुमार ने की। इस फ़ोरम में इन दोनों के अलावा पूर्व जज एपी शाह व हसनैन मसूदी, पूर्व नौकरशाह गोपाल पिल्लई व निरुपमा राव और लेफ़्टिनेंट जनरल एच एस पनाग (सेवानिवृत्त) सहित 19 सदस्य भी शामिल थे। फ़ोरम ने कहा है कि जब राज्य को दो भागों में बाँटा गया तब अगस्त 2019 से लेकर जुलाई 2020 तक क़रीब 11 महीने के लॉकडाउन ने उद्योगों को ज़ोरदार झटका दिया है। अधिकतर लोगों को या तो डिफ़ॉल्टर बना दिया है या उनका धंधा बंद करा दिया है। हज़ारों लोगों की नौकरी गई है या फिर सैलरी कम हुई है।
जम्मू-कश्मीर के लिए फ़ोरम की रिपोर्ट में क्या कहा गया है उससे पहले यह जान लीजिए कि चार महीने के लॉकडाउन में देश में क्या हुआ। कोरोना संकट के कारण 24 मार्च को घोषित किए गए लॉकडाउन के क़रीब एक महीने में यह रिपोर्ट आ गई थी कि 10 करोड़ से ज़्यादा लोग बेरोज़गार हो गए थे। आर्थिक गतिविधियाँ ठप होने और काम बंद होने से शहरों से करोड़ों आप्रवासी लोग अपने-अपने घरों को जाने को मजबूर हुए। कई लोगों के सामने भूखे मरने तक की नौबत आ गई। स्कूल, कॉलेज, मेट्रो, जिम, सिनेमा हॉल सब बंद रहे।
स्थिति ज़्यादा ख़राब होने लगी तो ज़िंदगी को पटरी पर लाने के लिए 68 दिनों के लॉकडाउन बाद अनलॉक की प्रक्रिया शुरू की गई। लॉकडाउन के बीच ही यह प्रक्रिया जारी है।
अब जम्मू-कश्मीर की स्थिति को देखिए। पिछले साल अगस्त में जब अनुच्छेद 370 में बदलाव किया गया और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया गया था तब इंटरनेट के साथ ही परिवहन-व्यवस्था व दूसरी सेवाओं पर कई पाबंदियाँ लगाई गई थीं। सैकड़ों लोगों को नज़रबंद किया गया। बाद में पाबंदियों में धीरे-धीरे ढील दी गई। 7 महीने बाद इस साल मार्च महीने में जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने सोशल मीडिया से पाबंदी हटाई। तब भी लोगों को इंटरनेट की स्पीड 2जी की ही मिली। हिरासत और फिर राजनीतिक नज़रबंदी में रहे राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को 24 मार्च को रिहा किया गया। इसस दो हफ़्ते पहले उमर के पिता फ़ारूक़ अब्दुल्ला को भी रिहा कर दिया गया था। जबकि राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती अभी भी नज़रबंद हैं।
मार्च का यही वह महीना है जब कोरोना संकट के कारण पूरे देश भर में लॉकडाउन लगाया गया। इसमें जम्मू-कश्मीर भी शामिल है। इसका मतलब यह हुआ कि पिछले साल 5 अगस्त से लगाई गई पाबंदी धीरे-धीरे हटाई जा रही थी कि कोरोना के कारण लॉकडाउन लगा दिया गया। यानी पहले से ही बदहाल स्थिति में पहुँच गए जम्मू कश्मीर के लिए लॉकडाउन और ख़तरनाक साबित हुआ।
शिक्षा व्यवस्था तबाह!
इसी स्थिति पर जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार फ़ोरम ने रिपोर्ट तैयार की है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि लॉकडाउन में स्कूल और विश्वविद्यालय बंद रहे और इससे शिक्षा व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई। यही स्थिति स्वास्थ्य व्यवस्था की भी रही। कर्फ़्यू और सड़कों के बंद रहने से स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई। रिपोर्ट में कहा गया है कि 'कश्मीर भारत के लोकतंत्र के लिए लिटमस टेस्ट के तौर पर रहा है और जैसा कि यह रिपोर्ट संकेत करती है हम इसमें बुरी तरह असफल रहे हैं'।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पाबंदियों का सबसे ज़्यादा बुरा असर यह रहा कि 'जम्मू कश्मीर के लोगों के हित की बात की नुमाइंदगी करने के लिए कोई भी चुना हुआ प्रतिनिधि नहीं था'।
फ़ोरम ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि 'हालाँकि कुछ राजनीतिक नज़रबंदियों को रिहा किया गया, लेकिन उनमें से कई को यह शपथ लेनी पड़ी कि वे सरकार के काम की आलोचना नहीं करेंगे'। रिपोर्ट के अनुसार इन वजहों से कश्मीर घाटी के लोग क़रीब-क़रीब अलगाव महसूस करने लगे। फ़ोरम ने यह भी कहा कि स्थानीय मीडिया भी बुरी तरह प्रभावित हुआ। रिपोर्ट के अनुसार पत्रकारों को प्रताड़ित किया गया और सख़्त जुर्माना लगाया गया। फ़ोरम ने यह भी कहा है कि मीडिया पर नयी पॉलिसी स्वतंत्र मीडिया और अभिव्यक्ति की आज़ादी पर गहरा आघात है।