ओमिक्रॉन: चुनावी रैलियाँ कहीं दूसरी लहर जैसी तबाही न ला दे!
पश्चिम बंगाल सहित पाँच राज्यों में चुनाव से पहले डेल्टा वैरिएंट आया था। हर रोज़ संक्रमण के मामले क़रीब 3 लाख से ज़्यादा आ रहे थे, 4 हज़ार मौतें हो रही थीं और चुनावी रैलियाँ बदस्तूर चल रही थीं। चुनाव तो हो गए, लेकिन डेल्टा वैरिएंट से आई कोरोना की दूसरी लहर ने ऐसी तबाही मचाई कि इसकी देश की सबसे बड़ी त्रासदियों से तुलना की जाने लगी। अब उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में कुछ महीनों में चुनाव होने वाले हैं। डेल्टा से कहीं ज़्यादा तेज़ी से फैलने वाला ओमिक्रॉन वैरिएंट आ चुका है। तो क्या तीसरी लहर आएगी? चुनावी रैलियों और जनसभाओं में बिना मास्क के उमड़ने वाली भीड़ से कैसे हालात बनेंगे?
इसका कैसा असर होगा, यह समझने के लिए याद कीजिए, कोरोना की दूसरी लहर से पहले का वक़्त। पहली लहर कमजोर पड़ गई थी। तब सरकार खुद लापरवाही वाले मोड में आ गई थी। तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने तो 'एंडेमिक' यानी कोरोना को ख़त्म घोषित कर दिया था। सरकार के ऐसे रवैये के बीच ही तब लोगों ने मास्क उतार फेंके थे। लोग सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों को धता बता रहे थे। पाबंदियों में ढील दी गई थी। स्कूल-कॉलेज खुल गए थे। और सबसे बड़ी बात जो हुई थी वह यह कि उसी दौरान चुनाव कराए गए थे। रैलियों में भीड़ जुटाने की होड़ लगी थी। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री मोदी तक 'अप्रत्याशित भीड़' का बखान कर रहे थे। क्या मौजूदा हालात इससे अलग लगते हैं?
बाज़ारों में भीड़ है। बिना एहतियात की शादियाँ हो रही हैं। किसी के चेहरे पर मास्क शायद ही दिखता हो! ट्रेन-बसों में भी ऐसे ही हालात हैं। सोशल डिस्टेंसिंग की तो बात ही दूर है। कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं।
चुनावी रैलियाँ और जनसभाएँ शुरू भी हो गई हैं। वैसी ही भीड़ है। बिना मास्क के। राजनीतिक दल और नेता बड़ी-बड़ी भीड़ के दावे कर रहे हैं।
ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में बीजेपी के चुनाव प्रचार में व्यस्त हैं। वह ताबड़तोड़ रैलियाँ कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी की रैलियाँ समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव और कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी की रैलियों से कम भी मालूम नहीं पड़ती हैं। बसपा जैसी दूसरी पार्टियों के नेता भी ऐसी ही रैलियों में जुटे हैं।
अब चुनावी रैलियों में कोरोना से बचाव के कितने उपाय किए जा सकते हैं, यह इसी साल की शुरुआत में पश्चिम बंगाल सहित कई राज्यों के चुनावों में दिख चुका है। यही वह वक़्त था जब भारत में दूसरी लहर आई थी और हर रोज़ 4 लाख से ज़्यादा संक्रमण के मामले आने लगे थे। ख़बरें आई थीं कि अस्पताल में बेड नहीं मिल रहे थे, मेडिकल ऑक्सीजन के बिना लोगों की जानें जा रही थीं। गंगा में शव तैरते मिले थे और रेतों में शव दफनाए जाने वाली तसवीरें सामने आई थीं। भारत ने ऐसी तबाही शायद ही कभी देखी हो।
कोरोना की दूसरी लहर के दौरान चुनाव आयोग की भी तीखी आलोचना हुई थी। यह आलोचना इसलिए हुई थी कि चुनावी रैलियों और जनसभाओं में कोरोना नियमों की धज्जियाँ उड़ाई गई थीं। इन आलोचनाओं के बीच जब कुछ दलों ने खुद से रैलियाँ नहीं करने का फ़ैसला किया तब चुनाव आयोग ने आख़िरी के दो चरणों में रोड शो, बाइक व साइकिल रैली पर प्रतिबंध लगा दिया था। तब सार्वजनिक सभाओं में संख्या 500 तक सीमित कर दी गई थी। लेकिन यह फ़ैसला लेने में काफी देर हो चुकी थी।
मद्रास हाईकोर्ट ने तो उतने बड़े पैमाने पर संक्रमण फैलने के लिए चुनाव आयोग को ज़िम्मेदार ठहराते हुए जमकर फटकार लगाई थी। कोर्ट ने कहा था कि कोरोना की दूसरी लहर के लिए किसी एक को ज़िम्मेदार ठहराना हो, तो अकेले चुनाव आयोग ज़िम्मेदार है।
अदालत ने यह भी कहा था कि 'यह जानते हुए भी कि कोरोना का ख़तरा टला नहीं है, इसके बावजूद चुनावी रैलियों पर रोक नहीं लगाई। इसके लिए चुनाव आयोग के अधिकारियों पर हत्या का मामला चलाया जाना चाहिए।'
अब ओमिक्रॉन वैरिएंट तेजी से फैल रहा है। भारत में भी 200 से ज़्यादा केस आ चुके हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार यह डेल्टा से 70 फ़ीसदी ज़्यादा तेज़ी से फैलता है। डब्ल्यूएचओ की प्रमुख वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन ने कहा है कि शुरुआती सबूतों से यह निष्कर्ष निकालना 'मूर्खतापूर्ण' होगा कि ओमिक्रॉन पिछले वाले की तुलना में कमजोर वैरिएंट है।
अब तो खुद केंद्र सरकार ने मंगलवार शाम को राज्यों को पत्र लिखकर कहा है कि ओमिक्रॉन वैरिएंट डेल्टा वैरिएंट से तीन गुना ज़्यादा संक्रामक है।
यही वजह है कि उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में होने वाले चुनाव को लेकर चुनावी सभाओं पर सवाल खड़े हो रहे हैं। रैलियों में लोगों के चेहरों पर न तो मास्क हैं और न ही वहाँ सोशल डिस्टेंसिंग के कोई नियम। बिना मास्क के तो खुद प्रधानमंत्री मोदी जैसे नेता भी दिख जाते हैं।
अब जब ओमिक्रॉन का ख़तरा सिर पर है तो क्या इसका अहसास ज़िम्मेदार लोगों को है?