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पहला चुनाव, जिसमें एक दूध वाले से हार गए थे आंबेडकर

पहला चुनाव, जिसमें एक दूध वाले से हार गए थे आंबेडकर

1947 में आज़ाद होते समय दुनिया में यह किसी ने भी नहीं सोचा था कि भारत जैसा ग़रीब पिछड़ा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बन जाएगा।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में 2019 का चुनाव सिर पर है चारो तरफ़ चुनावी माहौल है, सारी राजनीतिक पार्टियाँ रैलियों और रणनीतियाँ बनाने में मशगूल हैं। एक लोकतांत्रिक देश के लिए चुनाव एक त्योहार सा होता है, जिसमें जनता को अपना प्रतिनिधि चुनने का मौका मिलता है। लेकिन 1947 में आज़ाद होते समय दुनिया में ये किसी ने भी नहीं सोचा था कि भारत जैसा ग़रीब पिछड़ा देश दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बन जाएगा।

चुनाव को बताया था जुआ

कुछ विदेशी विद्वानों का भारत में चुनाव को लेकर नज़रिया बहुत ही नकारात्मक था। उनका मानना था कि भारत जैसे गरीब-अशिक्षित देश में जहाँ लोगों को यह तक पता नहीं है कि वोट क्या होता है इसकी क्या कीमत होती है वहाँ चुनाव कराना एक जुए से कम नहीं हैं। 

कुछ का यह तक कहना था कि गरीबी देशों को पहले कुछ सालों तक किसी तानाशाह के द्वारा चलाया जाना चाहिए। लेकिन फिर भी भारत ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाकर लोगों को सकते में डाल दिया था।

लागू किया वयस्क मताधिकार

भारत 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हुआ लेकिन भारतीय लोग मानते हैं कि ये देश अपनी संस्कृति के कारण बहुत पहले से ही लोकतंत्र अपनाने के लिए मानसिक तौर पर तैयार था। इसलिए आज़ाद होने के दो साल बाद ही यहाँ चुनाव आयोग का गठन हो गया। और मार्च 1950 में सुकुमार सेन को भारत का पहला मुख्य चुनाव आयुक्त भी चुन लिया गया।

इसके बाद भारत ने वो रास्ता अख़्तियार किया जो पश्चिमी देशों ने नहीं किया था। पश्चिमी देशों में शुरुआत में केवल अमीर तबके को ही मतदान करने का अधिकार था। लेकिन भारत ने आज़ाद होने के बाद ही वयस्क मताधिकार को अपनाया यानी कि देश के वे सारे लोग वोट कर सकते थे जिनकी आयु 21 साल से ऊपर थी।

पार्टी नाम के बजाय चिन्ह पर वोट

उस वक़्त के ग़रीब और औसत से ज़्यादा अशिक्षित भारत में चुनाव प्रक्रिया का सफलतापूर्वक समापन कराना कोई आसान काम नहीं था। घर-घर जाकर मतदाताओं के नाम दर्ज करना ही अपने आप में इतिहास बनाने जैसा था। पूरे देश में उस समय 17 करोड़ 60 लाख मतदाताओं के नाम दर्ज हुए थे और उसमें से 85 फीसदी की एक बड़ी आबादी अशिक्षित थी।

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राजनीतिक दलों के चुनाव चिन्ह

मात्र पन्द्रह फीसदी ही मतदाता पढ़ना लिखना जानते थे। इसलिए पश्चिमी देशों के एक दम उलट जहाँ के मतदाता साक्षर होने की वजह से राजनीतिक पार्टियों को नाम से पहचान लेते थे, यहाँ  मतदाताओं के लिए पार्टी के नाम के बजाय तसवीर यानी कि पार्टी चिन्ह रखने की व्यवस्था की गई। और चुनाव चिन्ह भी ऐसे रखे गए जो उनके दैनिक जीवन से संबंधित हों, जैसे दो बैलों की जोड़ी, लैम्प, झोपड़ी, हाथी जिनको लोग देखते ही पहचान लें और किसी भी अशिक्षित व्यक्ति को मतदान करने में परेशानी न हो। लेकिन आज की तरह मतदान पत्र नहीं थे, अलग-अलग उम्मीदवार की अलग मतदाता पेटी थी जिसपर उनका चुनाव चिन्ह था।

कांग्रेस के सामने अन्य पार्टियाँ

भारत जैसे विशाल देश में इस समय कुल मिलाकर 4500 सीटों पर चुनाव होने थे, जिसमें क़रीब पाँच सौ लोकसभा सीटों पर सांसद के लिए और बाकी सीटों पर प्रांतीय विधानसभा के लिए चुनाव होने थे। चुनाव में कांग्रेस के सामने जे.बी कृपलानी की कृषक मजदूर पार्टी और भारत छोड़ो आंदोलन के मुख्य नायक जयप्रकाश नारायण की सोशलिस्ट पार्टी जैसे दल थे।

इसके अलावा नेहरू के मंत्रिमंडल के ही दो पूर्व सहियोगियों ने उनके ख़िलाफ़ पार्टियों की शुरुआत की थी। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की तो वहीं भीम राव आंबेडकर ने शेड्यूल कास्ट फेडेरेशन को ज़िंदा कर दिया था।

ये सभी पार्टियाँ कांग्रेस पर पूँजीवादियों की पार्टी और गरीबों से किए गए वादे से मुकरने का इल्ज़ाम लगाती थीं। वहीं ख़ुद को किसानों, गरीब, मजदूरों और अनुसूचित जाति की पार्टी बताते थे।

भौगोलिक और सामाजिक परेशानियाँ

चुनाव के लिए बूथ बनाए गए लेकिन ये बहुत दूर-दूर थे इस कारण लोगों को पैदल, साइकिलों, बैलगाड़ियों से मीलों चलकर चुनाव में मत डालने जाना पड़ा था। मतदान करने के लिए 90 से लेकर 110 साल तक की आयु के लोगों की वोट डालने की ख़बरें आईं थीं। वहीं सुदूर गाँव में नदियों पर आनन-फानन में छोटे-मोटे पुल बनाए गए, जिससे लोग नदी पार कर मतदान करने पहुँच पाएँ।

इसके इतर उस वक़्त केवल भौगोलिक समस्या ही नहीं थी, सामाजिक समस्याएँ भी चुनाव में आढ़े आ रही थीं। जैसे कि महिलाएँ अपना नाम वोटर लिस्ट में लिखाने से हिचकती थीं और अपने नाम की जगह वे किसी की पत्नि के रूप में या किसी की माँ के रूप में नाम दर्ज कराती थीं। इस कारण करीब 28 लाख महिलाओं के नाम तक काटने पड़े थे।

चुनाव प्रचार करने के तरीके

चुनाव के बारे में जागरुकता फैलाने के लिए एक साल पहले से ही टीवी, रेडियो आदि के माध्यमों से लोगों को लोकतंत्र की इस  कवायद के बारे बताया जाने लगा। जगह-जगह सिनेमाघरों में चुनाव से संबंधित डाक्यूमेंट्री दिखाई गईं। ऑल इंडिया रेडियो पर चुनाव संबंधित कई कार्यक्रम किए गए। सभी पार्टियों ने चुनाव में प्रचार के लिए भी हर कोशिश की। नेता घर-घर जाकर, जन-सभाओं से, और विभिन्न तरीके से प्रचार कर रहे थे। 

दीवारों से लेकर वायसराय की मूर्तियों के ऊपर तक, चारो तरफ राजनीतिक पार्टियों के पर्चे ही चिपके हुए थे। यही नहीं गायों और भैंसों के ऊपर तक राजनीतिक पार्टियों के नारे लिख दिए गए थे और उन पर राजनीतिक पार्टियों के पोस्टर चिपका दिए गए थे।

उस वक़्त जवाहर लाल नेहरू ने देश के एक छोर से दूसरे छोर तक प्रचार किया था। जिसमें उन्होंने 25,000 मील का दौरा किया था। जो उस वक़्त के भारत में जिसमें संसाधनों की भारी कमी थी बड़ी बात थी।

देश में पहला चुनाव

देश में 25 अक्टूबर1951 को हिमाचल प्रदेश की चिनी तहसील में पहली बार वोट डाला गया। यहाँ सर्दियों और बर्फबारी की वजह से चुनाव देश में सबसे पहले करा लिये गये थे क्योंकि बर्फबारी के बाद यहाँ चुनाव कराने संभव नहीं होते।

वहीं देश के बाकी क्षेत्रों में चुनाव जनवरी और फरवरी 1952 तक ख़त्म हुए। चुनाव में लगभग 45 फीसदी मतदान हुआ। जिसमें कांग्रेस ने बड़े ही आराम से एक बड़ी जीत हासिल की। कांग्रेस ने लोकसभा की 489 सीटों में से 364 पर अपना कब्जा जमाया, जबकि विधानसभा की 3,280 सीटों में से 2,247 सीटों पर जीत हासिल की।

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देश के पहले चुनाव में मतदान करते नागरिक

वहीं सोलह सीटों के साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरी। जयप्रकाश और डॉ लोहिया के नाम वाली सोशलिस्ट पार्टी को 12, और आचार्य कृपलानी के नतृत्व वाली कृषक मजदूर पार्टी को  9, हिंदू महासभा को 4, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व वाले दल जनसंघ को 3, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी को 3 और शेड्यूल कास्ट फेडेरेशन को 2 सीटें मिलीं।

बी आर अंबेडकर को दूध वाले ने हराया

ध्यान देने वाली बात यह थी कि इस माहौल में कांग्रेस के 28 मंत्री चुनाव हार चुके थे। लेकिन उससे भी बड़ी चौंकाने वाली बात ये थी कि इस चुनाव में बी. आर. अंबेडकर जैसे नेताओं की हार हुई थी। उनको एक दूध बेचने वाले नौसिखिए नेता काजरोलकर के हाथों हार मिली थी। काजरोलकर को देश में कांग्रेस के पक्ष में चल रही हवा का फायदा मिला था। और नेहरू ने काजरोलकर के लिए जबरदस्त सभाएँ भी की थी।

कयास लगाए जा रहे थे कि अगर आंबेडकर जीत गए तो राजनीति में एक अलग धड़ा खड़ा हो जाएगा। अंतत: देश ने काफी मशक्कत के बाद सफलता पूर्वक चुनाव करा कर दुनिया को अपनी लोकतांत्रिक काबिलियत का एक नमूना पेश कर दिया। जिससे भारत में एक विश्वास जागा और एक नए-नए आज़ाद हुए देश ने अपने प्रतिनिधियों को ख़ुद चुना था।

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