लड़ाई मंदिर की नहीं, अयोध्या के उस झूठ से है जहाँ राम की मर्यादा बसती है
"यदि आप अयोध्या जाएँगे तो आपको फुटपाथों पर इतिहास की ऐसी किताबें बिकती मिल जाएँगी कि आपका दिमाग़ चकरा जाएगा। भ्रष्ट भाषा और ख़राब शैली में लिखी गई ये किताबें लाखों-करोड़ों धर्मप्राण हिन्दुओं को इतिहास की गम्भीर पुस्तकों से अधिक प्रमाणिक लगती हैं।"
आज़ादी के बाद से अयोध्या का इतिहास झूठ और प्रपंच से रचा गया इतिहास है। हिन्दू गौरव की राजनीति का आधार झूठ हो यह उस राम की मर्यादा के अनुकूल नहीं है जिनके बारे में शीतला सिंह लिखते हैं कि “राम ऐसा व्यापक चरित्र है जो धर्मों और मान्यताओं के घेरे से बाहर 65 देशों में रामकथा और 29 देशों में रामकथा के मंचन के रूप में विद्यमान है।“ राम अगर मर्यादाओं के नायक हैं तो एक दिन अयोध्या को राम की मर्यादाओं से टकराना ही होगा। तमाम तरह की राजनैतिक अनैतिकताओं से राम की मर्यादा को रौंदा गया है। यह खेल स्थानीय स्तर पर कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति से शुरू होता है जिसे 90 के दशक में विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी व्यापक स्तर पर खेलते हैं। 1948 के साल में कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व छोटे स्तर पर आस्था के नाम पर जो भीड़ बना रहा था उसे 1992 में बीजेपी ने बड़ा और शक्तिशाली कर दिया। शीतला सिंह ने अयोध्या विवाद में कांग्रेस और बीजेपी को एक-दूसरे का पूरक बताया है।
शीतला सिंह ने हिन्दी में ‘अयोध्या रामजन्मभूमि-बाबरी-मस्जिद सच’ नाम से एक किताब लिखी है जिसे कोशल पब्लिशिंग हाउस ने छापा है। इस किताब की क़ीमत 550 रुपये हैं। किताब के पीछे प्रकाशक ने अपना फोन नंबर भी दिया है। 9415048021, 9984856095.। मैं अयोध्या पर आई किताबों की सूची अपने दर्शकों और पाठकों को देता रहा हूँ। ताकि एक अच्छे पाठक की तरह आपमें हर बात को जानने का साहस विकसित होना चाहिए। अयोध्या विवाद को लेकर लोगों में जिस इतिहास और धारणा को घुसा दिया गया है अब उससे ये किताबें भले न पड़ पाएं मगर कोई तो राम का असली साधक होगा जो उनकी मर्यादाओं पर चलता हुए सत्य का अनुसंधान करेगा। व्यक्तिगत जानकारी और समझ के लिए अयोध्या पर लिखी गईं इन किताबों को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।
हाल ही में वलय सिंह की किताब AYODHYA, CITY OF FAITH CITY OF DISOCORD (aleph publication) आई है। उसके पहले 2012 में कृष्णा झा और धीरेंद्र झा की किताब AYODHYA THE DARK NIGHT, THE SECRET HISTORY OF RAMA’S APPEARANCE IN BABRI MASJID (harpercolins publication) आई थी। यह किताब अभी अंग्रेज़ी में ही है। जिनके समय बाबरी मसजिद ढहाई गई थी, पी वी नरसिम्हा राव ने भी एक किताब लिखी है AYODHYA 6 DECEMBER 1992 जिसे पेंग्विन ने छापा था। 2016 में इस विवाद में याचिकाकर्ता रहे और केंद्र की तरफ़ से वार्ताकार रहे किशोर कुणाल की किताब AYODHYA REVISITED की भी जानकारी दी है। पत्रकार हेमंत शर्मा की युद्ध में अयोध्या किताब प्रभात प्रकाशन से आई है।
किशोर कुणाल ने कहा था कि वे मंदिर के पक्ष में हैं मगर अयोध्या को लेकर फैलाए जा रहे ग़लत इतिहास के पक्ष में नहीं हैं। बताते हैं कि अयोध्या में न तो मसजिद बनाने और न ही मंदिर तोड़ने में बाबर की कोई भूमिका थी। लेकिन किशोर कुणाल अयोध्या के ग़लत इतिहास को ठीक करने के मक़सद से 700 पन्नों की किताब तो लिखते हैं मगर विवादित परिसर में रोपे गए झूठ के इतिहास पर नहीं लिखते हैं जिसे शीतला सिंह ने लिखा है और उस रात मसजिद में मूर्ति रखने के प्रसंग पर पूरी किताब लिखते हुए धीरेंद्र कुमार झा ने लिखा है। अब यह आप पर निर्भर है कि आप बाबरी मसजिद ध्वंस के इतिहास को जानने के लिए कितने ईमानदार हैं। अगर ईमानदार हैं तो सभी किताबें पढ़ें और समझें कि क्या हुआ था। उनकी भी किताबें पढ़ें जिन्होंने बाबरी मस्जिद ध्वंस के पक्ष में लिखा है। इन सभी किताबों को पढ़ें। आपकी नागरिकता का धर्म कहता है कि आप थो़ड़ी मेहनत कर सभी पक्षों की किताबों को पढ़ें और अपनी समझ विकसित करें। देखें कि कौन प्रमाण दे रहा है, कौन झूठ गढ़ रहा है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दो तिहाई ज़मीन पर मंदिर बनाने का फैसला तो दे ही दिया है। सुप्रीम कोर्ट के पास नया करने के लिए कुछ नहीं है। सवाल है कि क्या सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ झूठ के आधार पर फैलाए जा रहे इस विवाद से टकराने का साहस दिखा पाएगी
- मूर्ति रखने से लेकर बाबरी मसजिद ढहाने के आरोपियों को आज तक सज़ा नहीं मिली। आरोपी का अपराध तय होने से पहले उस ज़मीन पर फ़ैसला आ रहा है जिसे लेकर अपराध हुआ। भारत का आने वाला इतिहास इस न्याय को अपराध बोध की तरह ढोएगा या सर उठाकर ढोएगा, यह लोगों को तय करना है।
फ़िलहाल झूठ के आधार पर बनाई गई जनभावना के सामने सत्य बेमानी हो चुका है। उसके लिए उसका झूठ ही सत्य है। यह सुप्रीम कोर्ट का ही इम्तहान नहीं है, राम की भक्ति करने वालों के रामत्व का भी है।
शीतला सिंह बाबरी मसजिद विवाद के प्रमाणिक पत्रकार रहे हैं तभी तो चार-चार प्रधानमंत्रियों ने उनकी सलाह ली। अयोध्या पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों ने उनकी मदद ली और किताबें लिखीं। मेरी राय में हर हिन्दी के पाठक के पास शीतला सिंह की यह किताब होनी चाहिए। जानना चाहिए कि यह विवाद कैसे शुरू होता है। इसके किरदार कौन हैं। राम में आस्था अलग बात है। राम में आस्था को लेकर झूठ फैलाना ग़लत बात है। शीतला सिंह की किताब का पहला चैप्टर है भय प्रकट कृपाला। सामने से दिखता है कि बाबरी मसजिद में 22-23 दिसंबर 1949 की रात राम की मूर्ति रखी जाती है। इसका थाने में मुक़दमा दर्ज़ होता है। मगर पीछे बहुत कुछ घटित होता है। इस मुक़दमे के मूल किरदारों को कैसे हिन्दू से मुसलमान में बदला जाता है और क्या क्या होता है, किताब एक फ़िल्म की तरह शुरू होती है।
“क़रीब 7 बजे सुबह के जब मैं जन्मभूमि पहुँचा तो मालूम हुआ कि तखमीनन 50-60 आदमियों का मजमा कुफल जो बाबरी-मसजिद के कम्पाउंड में लगे हुए थे, तोड़कर व नीज दीवार द्वारा सीढ़ी फाँद कर अन्दर मसजिद मदाखिलत कर के मूरति श्री भगवान को स्थापित कर दिया और दीवारों पर अन्दर व बाहर सीता राम जी वगैरह गेरू व पीले रंग से लिख दिया। कांस्टेबल नंबर 70 हंसराज मामूला-डियुटीमना किया, नहीं माने। पी.ए.सी की गारद जो वहाँ मौजूद थी इमदाद के लिए बुलाया, लेकिन उस वक्त लोग मसजिद में दाखिल हो चुके थे।“
मैंने यहाँ सारा हिस्सा नहीं लिखा है। शीतला सिंह लिखते हैं कि इसे लेकर झूठी कहानी बनाई गई कि वहाँ कोई मुसलिम सिपाही था जिसने रात को तेज़ रौशनी के बीच रामलला को प्रकट होते देखा था। तमाम दस्तावेज़ों की छानबीन के बाद शीतला सिंह लिखते हैं कि जिस रात रामलला प्रकट हुए वहाँ कोई मुसलमान सिपाही नहीं था। फैज़ाबाद पुलिस लाइन से जो गारद भेजी गई थी उसमें एक भी मुसलमान कांस्टेबल नहीं था। उस गारद का हेड कांस्टेबल अबुल बरकत मुसलिम था जो पुलिस मैनुअल के हिसाब से कमांडर संतरी ड्युटी पर नहीं होता है। लेकिन इस तथ्य को 1992 में फैज़ाबाद के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक डी. बी. राय ने अपनी किताब अयोध्या का सच में बदल दिया। जबकि वे मूल एफ़आईआर की कॉपी देख सकते थे। यही नहीं जिस शेर सिंह कांस्टेबल के बारे में किस्सा गढ़ा गया वह भी पुलिस लाइन के रिकॉर्ड के मुताबिक़ विवादित स्थल पर नहीं था। डी. बी. राय को इस झूठ का इनाम मिलता है। बीजेपी के टिकट से दो बार सांसद बनते हैं। तीसरी बार टिकट नहीं मिला तो निर्दलीय लड़ते हैं और हार जाते हैं।
अक्षय ब्रह्मचारी एक अलग किरदार हैं। वैष्णव भक्ति करने वाले फैज़ाबाद कांग्रेस कमेटी के ज़िलामंत्री। वह मसजिद में मूर्ति रखने की घटना का विरोध करते हैं और लखनऊ जाकर कांग्रेस कार्यालय पर अनशन भी करते हैं। मूर्ति रखने के समय अयोध्या में कोई तनाव नहीं हुआ। अगली सुबह भी कोई भीड़ नहीं थी। अक्षय ब्रह्मचारी ने लिखा है कि ज़िलाधिकारी के. के. नायर चाहते तो मूर्ति हटाकर विवाद ख़त्म कर सकते थे। इसी नायर की कहानी को कृष्णा झा और धीरेंद्र झा ने अपनी किताब में विस्तार से लिखा है। इनकी पत्नी हिन्दू महासभा के टिकट पर गोंडा से चुना जीतती है और नायर ख़ुद जनसंघ के टिकट पर बहराईच से 1967 में लोकसभा पहुँचते हैं।
विवाद का आइडिया
धीरेंद्र झा ने अपनी किताब के पेज नंबर 25 पर लिखा है कि इस विवाद का आइडिया जन्म लेता है तीन दोस्तों के बीच। महाराजा पटेश्वरी प्रसाद सिंह, महंत दिग्विजय नाथ और ज़िलाधिकारी के. के. नायर। तीनों लॉन टेनिस के दीवाने थे। महंत दिग्विजय नाथ इतना अच्छा लॉन टेनिस खेलते थे कि के. के. नायर और महाराजा पटेश्वरी उन्हें टेनिस कोर्ट पर काफ़ी सम्मान देते थे। महंत दिग्विजय नाथ के ही उत्तराधिकारी आगे चलकर 2017 में यूपी के मुख्यमंत्री बनते हैं। नाम है योगी आदित्यनाथ। भारत में लॉन टेनिस ने भले ही नडाल जैसा खिलाड़ी नहीं दिया मगर इसने भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा विवाद ज़रूर दिया है।
कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति
इन्हीं सब बातों के बीच शीतला सिंह की किताब घूमती है कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति की तरफ़। कांग्रेस में गोविंद वल्लभ पंत को आचार्य नरेंद्र देव से ख़तरा था। नेहरू नरेंद्र देव को यूपी का पहला मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर से उनके नाम का प्रस्ताव पास होता है मगर गोविंद वल्लभ पंत झूठ बोल देते हैं कि नरेंद्र देव ने पद स्वीकार करने से मना कर दिया है। नेहरू आचार्य नरेंद्र देव की प्रतिभा से काफ़ी प्रभावित थे। नरेंद्र देव और कुछ समाजवादी विधायक सदस्यता छोड़ देते हैं और फैज़ाबाद में उपचुनाव होता है। पंत योजना बनाते हैं कि नरेंद्र देव को निपटा देना है। यह समय है विभाजन का जब हिन्दू और मुसलमान के बीच अविश्वास की खाई इतनी गहरी थी कि हर अफ़वाह पर यक़ीन किया जाता था। नेहरू मुसलमानों के साथ हो गए हैं। पाकिस्तान में एक भी मंदिर नहीं बचा है। इस तरह की बातें चल रही थीं। इसी का लाभ उठाकर पंत एक खेल खेलते हैं। देवरिया के बरहज से बाबा राघव दास को लाकर उम्मीदवार बनाते हैं जो मूल रूप से मराठी चितपावन ब्राह्मण थे। उस वक्त के कांग्रेस में सब तरह के लोग थे। राष्ट्रवादी, कम्युनिस्ट, समाजवादी, हिन्दूवादी।
उप चुनाव में अयोध्या और आस्था का सवाल पहली बार बड़ा किया जाता है। पोस्टर छपते हैं जिसमें नरेंद्र देव को रावण बताया जाता है। समाजवादी को नास्तिक और मुसलमान कहा जाता है। धार्मिक और सांप्रदायिक नारे खुलकर लगते हैं।
मसजिद में मूर्ति रखने के आरोप में जिन 6 लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज़ होती है वे सब राघव दास के लिए प्रचार करते हैं। विद्वान माने जाने वाले आचार्य नरेंद्र देव हार जाते हैं। चंद्रभानु गुप्त, कमलापति त्रिपाठी, सुचेता कृपलानी, संपूर्णानंद, अलगू राय शास्त्री जैसे बड़े नेता नरेंद्र देव हराओ अभियान से अलग हो जाते हैं। लाल बहादुर शास्त्री, पुरुषोत्तम दास टंडन, ए जी खेर जैसे नेता पंत के साथ खड़े हो जाते हैं।
बीजेपी जैसी कांग्रेस की भाषा
जो काम 1990 में बीजेपी करती है वही काम स्थानीय स्तर पर उसी स्केल में कांग्रेस करती है। गोविन्द वल्लभ पंत पहली बार इसे फैज़ाबाद उपचुनाव को कश्मीर से जोड़ते हैं। भाषण में कहते हैं कि कांग्रेस के ख़िलाफ़ दिया गया वोट पंडित नेहरू और पटेल द्वारा देश को मज़बूती देने की दिशा में बाधक होगा। ठीक यही भाषा आज की राजनीति में सुनाई देती है। फैज़ाबाद का उपचुनाव संविधान लागू होने से पहले का था, उस उप चुनाव में सांप्रदायिकता चरम पर थी। आज वह राष्ट्रवाद में बदल कर चरम से परम हो चुकी है।
नेहरू नरेंद्र देव को पसंद करते थे मगर इस चुनाव में सांप्रदायिकता को रोकने के लिए उनकी भूमिका कुछ ज़्यादा ही उदार नज़र आती है। वे अपने उस मुख्यमंत्री पर भरोसा करते हैं जो उनकी ही बात को टाल रहा है। नरेंद्र देव को ख़त्म करने के लिए सांप्रदायिकता का सहारा ले रहा है। नेशनल हेरल्ड के संपादक भी आचार्य नरेंद्र देव के ख़िलाफ़ ज़हर उगलते हैं।
शीतला सिंह ने लिखा है कि पंडित नेहरू ने गोविन्द वल्लभ पंत को फ़ोन कर और टेलीग्राम से संदेश दिया कि मूर्ति हटवा दी जाए। सरदार पटेल ने भी चिट्ठी लिख कर मूर्ति रखने को अनुचित बताया।
17 अप्रैल 1950 को नेहरू पंत को पत्र लिखकर मूर्ति नहीं हटाने को लेकर नाराज़गी ज़ाहिर करते हैं। बंगाल के पहले मुख्यमंत्री विधान चंद राय को भी लिखते हैं कि उन्हें अफसोस है कि यूपी सरकार ने इस मामले से निपटने में कमज़ोरी दिखाई है। इस कहानी में कांग्रेस का एक ही हीरो नज़र आता है। अक्षय ब्रह्मचारी। यह शख़्स लाल बहादुर शास्त्री को मेमोरेंडम देता है कि कांग्रेस के उम्मीदवार राघव दास संतुलन खो चुके हैं और प्रतिक्रियावादी ताक़तों की भाषा बोल रहे हैं। मसजिद में मूर्ति रखना अन्याय है। राघव दास चुनाव जीतते हैं और भाषण देते हैं कि कोई धार्मिक स्थल तोड़ा नहीं जाना चाहिए। यह अत्याचार की श्रेणी में आता है।
विश्व हिन्दू परिषद का गठन 1964 में होता है। 1984 तक यह संगठन राम मंदिर की बात नहीं करता है। जनसंघ भी अपने अस्तित्व के दौरान राम मंदिर की बात नहीं करता है। बीजेपी बनती है लेकिन वह भी 1998 से पहले तक इस विवाद से दूर नज़र आती है। 1989 में राजीव गाँधी रहस्यमयी तरीके ताला खुलवाते हैं। जिस रहस्यमयी तरीके से राम की मूर्ति रखी जाती है। इसके आगे का इतिहास सबको लगता है कि सब पता है मगर 26 साल बाद फिर से उन विवादों की तरफ़ लौटना चाहिए। शीतला सिंह पेज नंबर 82 पर लिखते हैं कि शिलान्यास से पहले रामजन्मभूमि-न्यास के अध्यक्ष परमहंस रामचन्द्रदास अशोक सिंहल को पत्र लिखकर धमकी देते हैं कि मंदिर के लिए जमा पैसा राष्ट्रीयकृत बैंक में जमा किया जाए वरना वह धरना शुरू कर देंगे। इस धमकी के कारण रामजन्मभूमि-न्यास के खाते में केवल 8 करोड़ रुपये जमा हुए। कहा गया कि 24 करोड़ नहीं, वास्तविक राशि 8 करोड़ 29 लाख थी जिसमें से काफ़ी कुछ ख़र्च हो गई है।
शीतला सिंह ने विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच की राजनीति का भी ज़िक्र किया है जो ठीक उसी पैटर्न पर है जो 1949 में कांग्रेस के भीतर पंत बनाम नरेंद्र देव के रूप में उभर चुकी थी। शीतला सिंह पेज नंबर 81 पर लिखते हैं कि रथ यात्रा सादे लिबास में पुलिसकर्मियों की सुरक्षा में लखनऊ पहुँचती है और यह बात लखनऊ के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक चन्द्रिका प्रसाद प्रेस को बता देते हैं। वीएचपी में संघ के लोग अभियान छेड़ देते हैं कि वास्तव में यह नेता प्रशासन के दलाल बन गए हैं। इससे महन्त नृत्यगोपालदास आहत होते हैं। और इस तरह के प्रयासों से अलग हो जाते हैं। आपको बता दें कि वीएचपी ने भी रामजानकी रथ यात्रा निकाली थी। आडवाणी की रथयात्रा से पहले।
शीतला सिंह बता रहे हैं कि कैसे बीजेपी और संघ वीएचपी के इस अभियान को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं। आंदोलन से जुड़े साधु-संतों को टिकट दिया जाता है मगर पैसे का सवाल उठाने वाले परमहंस रामचन्द्रदास को टिकट नहीं मिलता है। बाद में उन्हें फैज़ाबाद के मेयर के पद पर लड़ाने की बात होती है और कांग्रेस के नेता कहते हैं कि अयोध्या के सम्मान में वह अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं करेंगे। संघ ने यहाँ भी रामचंद्रदास का टिकट काट दिया। राम का नाम लेने से इतनी बड़ी राजनीति हो गई। राम का नाम होने से भी किसी को उस राजनीति का लाभ नहीं मिला। यही राजनीति है।
शीतला सिंह की एक और बात दिलचस्प है। वे लिखते हैं कि 31 साल पहले आरएसएस ने साफ़-साफ़ कहा था कि राम मंदिर उसका मक़सद नहीं है। वह इसके ज़रिए दिल्ली की गद्दी पाना चाहता है और भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहता है।
1987 में संघ के सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने विहिप के महामंत्री दिवंगत अशोक सिंघल को इस बात पर डाँट लगाई थी कि वह राम मंदिर निर्माण पर तैयार कैसे हो गए। उस वक्त एक फॉर्मूला बना था कि विदेशी तकनीक के इस्तेमाल से बाबरी मसजिद को हटाया जाएगा और राम चबूतरे से राम मंदिर का निर्माण होगा।
- जब यह बात देवरस को पता चली तो उन्होंने सिंघल से कहा था कि “इस देश में 800 राम मंदिर हैं, एक और बन जाए तो 801वां होगा। लेकिन यह आंदोलन जनता के बीच लोकप्रिय हो रहा था, उसका समर्थन बढ़ रहा था, जिसके बल पर हम राजनीतिक रूप से दिल्ली में सरकार बनाने की स्थिति तक पहुँचते। तुमने इसका स्वागत करके वास्तव में आंदोलन की पीठ पर छूरा भोंका है।“
यह बात 1987 दिसंबर की है। हाल ही में इस प्रसंग को लेकर सत्यहिन्दी.कॉम ने इसकी समीक्षा पेश की थी। जिसे आम आदमी पार्टी की राजनीति छोड़ पत्रकारिता में फिर से लौटने वाले आशुतोष ने शुरू किया है। शीतला सिंह की किताब को हेडलाइन की खोज में नहीं पढ़ा जाना चाहिए। बल्कि राम जन्म भूमि विवाद और बाबरी मसजिद ध्वंस की राजनीति को जानने-समझने के लिए पढ़ा जाना चाहिए। ताकि हम यह तो समझ सकें कि एक झूठ के आस-पास कांग्रेस और बीजेपी ने किस तरह अपनी-अपनी झूठ की इमारतें खड़ी कीं। जिसे जल्दी ही मंदिर कहा जाएगा।
(रवीश कुमार के फ़ेसबुक पेज से साभार)