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कृषि संकट मध्यम किसानों का है, छोटे खेतिहरों का नहीं

कृषि संकट मध्यम किसानों का है, छोटे खेतिहरों का नहीं

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चौधरी चरण सिंह का हवाला देकर और हाशिए वाले किसानों की दयनीय स्थिति की तरफ़ इशारा कर अपनी सरकार के कृषि सुधार क़ानूनों का बचाव किया है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चौधरी चरण सिंह का हवाला देकर और हाशिए वाले किसानों की दयनीय स्थिति की तरफ़ इशारा कर अपनी सरकार के कृषि सुधार क़ानूनों का बचाव किया है। 1971 में ऐसे एक-हेक्टेयर-से कम जोत वाले लोग भारत की कुल खेती के 51 प्रतिशत हुआ करते थे, यह हिस्सेदारी 2015-16 के कृषि-गणना में 68 प्रतिशत से अधिक हो गयी।

प्रधानमंत्री मोदी ने धाकड़ किसान नेता के हवाले से यह भी कहा कि हाशिए वाले किसान अपने छोटे खेत में चाहे जितना काम कर लें, उन्हें सम्मानजनक जीवन नहीं मिल सकता। उनके कहने का मतलब यह था कि भारतीय कृषि में संकट छोटे किसानों का है और सरकार के सुधारात्मक क़दम छोटी जोत वालों का स्तर ऊपर करना है।

इस ’संकट’ के बारे में ऐसी समझ से कुछ ख़ास मदद नहीं मिलने वाली है, विश्लेषण की दृष्टि से या राजनैतिक दृष्टि से भी। पहली बात, जैसा कि राजनीति वैज्ञानिक पाॅल आर ब्राॅस ने बताया है, चरण सिंह की मान्यता यह नहीं थी कि कृषि नीति एक-हेक्टेयर वाले किसान पर केन्द्रित होनी चाहिए। जो ग़ैर व्यावसायिक छोटे टुकड़ों पर खेती करते हैं उनकी मज़दूरी ग़ैर-कृषि रोज़गार के तहत होनी चाहिए, विशेषकर ग्रामीण लघु-स्तरीय और घरेलू उद्योग में। वास्तव में चरण सिंह ने अधिकतम 27.5 एकड़ और न्यूनतम 2.5 एकड़ जोत की वकालत की थी जिससे एक सम्मानजनक आजीविका मिलती और बड़े पैमाने पर पूंजीवादी खेती से भी बचा जा सकता है। उनका आदर्श जोतदार किसान था जो पूरी सक्रियता से अपना खेत ख़ुद जोतता हो और बाहरी मज़दूर का इस्तेमाल कम से कम करता हो।

आज का किसानी संकट बदहाल छोट किसानों का नहीं है, बल्कि चरण सिंह के ख़ुदकाश्त किसान-मालिक का है जिसने बेहतर समय देखा है। 

यह मामला ग्रामीण मध्यवर्ग का है- इसने 1970 के दशक से मोटे तौर पर चार दहाइयों तक समृद्धि पायी और अब उसकी पीठ दीवार से जा लगी है- वे ही कृषि सुधार क़ानूनों के ख़िलाफ आन्दोलन के अगुवा हैं।

इस खुदकाश्त किसान को किन मुश्किलों से गुज़रना पड़ रहा है, इसका अंदाज़ा सुरिन्दर कुमार पंवार से मिल सकता है। शामली ज़िले के भैंसवाली गाँव, चरण सिंह के अपने बागपत के बगल में, के इस किसान के पास 24 बीघा या 1.7 हेक्टेयर खेत है। इससे वह ’छोटे’ किसान के खाने में आते हैं लेकिन ’हाशिए’ वाले में नहीं। इसके अलावा, अपने 24 बीघा में से 16 पर वे ईख की खेती करते हैं और अपने दो भाइयों के साथ लगाए गए 7.5 हाॅर्सपावर वाले मोटर ट्यूबवेल से सिंचाई की सुविधा भी उनके पास है। उनके भाइयों के पास भी 24-24 बीघा खेत है।

पश्चिमी यूपी के उत्थान में सबसे बड़ा योगदान संभवतः गन्ने का ही है। यह बात तो पुरानी हो गयी है। पंवार अपने मौजूदा उत्पादन ख़र्च का विस्तृत ब्योरा देते हैं।

बीज मिलों से बिकने से बचे उनके खेतों के रह गये गन्ने से मिल जाता है। यूपी सरकार द्वारा प्रस्तावित ईख की दर 325/क्विंटल और कटाई 45/क्विंटल को मिलाकर प्रति बीघा 5 क्विंटल के हिसाब से गुल्लों-बीज की क़ीमत 1850 रुपये होती है। खेत तैयार करने में (सात हल, हर हल पर एक लीटर डीजल की खपत, दर 78/डीजल), खेत में तैयार खाद (एक ट्राॅली का ख़र्च 1500 रुपये), और बुआई (एक पर 200 रुपये के हिसाब से दो मज़दूर और एक लीटर डीजल) पर प्रति बीघा 2524 रुपये का ख़र्च आता है।

उर्वरक के तौर पर पंवार प्रति बीघा 20 किलो डाय-अमोनियम फाॅस्फेट (28 रु./किलोग्राम), 35 किलोग्राम यूरिया (6 रु./किलोग्राम), 5 किलोग्राम पोटाश (18 रुपये/किलोग्राम), 2 किलोग्राम सल्फर (125 रुपये/किलोग्राम), एक किलोग्राम जिंक (80 रुपये/किलोग्राम) डालते हैं जिसपर 1190 रुपये की लागत आती है। वे इससे ज़्यादा अनाज की सुरक्षा पर ख़र्च करते हैंः 30 मिली ’कोरोजेन’ (360 रुपये), 100 मिली क्लोरोपाइरिफाॅस-साइपरमेथरिन (70 रुपये) और एक किलोग्राम ’फरटेरा’ (187.5 रुपये) कीटनाशक; 50 मिली थायोफनेट-मिथाइल फंगीनाशक, (40 रुपये); और ’रीजेंट’ चूर्ण (160 रुपये में दो किलोग्राम) और लिक्विड (50 रुपये में 50 मिली) दीमकनाशक। इसके साथ छिड़काव (प्रति छिड़काव 150 रुपये के हिसाब से तीन बार) के लिए मज़दूरी पर 1317 रुपये प्रति बीघा ख़र्च आता है।

 - Satya Hindi

नये कृषि क़ानूनों पर किसानों का प्रदर्शन।

ध्यान में रखने वाली अगली बड़ी चीज है पानी, इसके लिए प्रति बीघा 200 रुपये के ख़र्च से गड्ढे बनाये जाते हैं जिससे एक दर्जन बार सिंचाई (हर बार 80 रुपये/बीघा) की जाती है। किसान 1200 रुपये/बीघा निराई-गुड़ाई और बंधाई (गन्ना की फ़सल पाँच फीट की होने पर उन्हें बांधने की प्रक्रिया) पर भी ख़र्च करते हैं। पंवार को हर बीघे पर 60 से 65 पैंसठ क्विंटल की फ़सल मिलती है। औसत 62.5 क्विंटल पर प्रति क्विंटल 45 रुपये की दर से कटनी का ख़र्च 2812.5 रुपये आएगा। बारह किलोमीटर दूर चीनी मिल तक आने-जाने में 78 रुपये/प्रति लीटर की दर से छह लीटर डीजल जलता है।

कुल मिलाकर 62.5 क्विंटल प्रति बीघा के हिसाब से गन्ना उपजाने में लागत आएगी 13,722 रुपये, इसके बदले राज्य की आधिकारिक प्रस्तावित दर 325 रुपये/क्विंटल की दर से मिलेंगे 20,312 रुपये। 6590.5 प्रति बीघा शुद्ध कमाई उत्पादन मूल्य से ठीक 48 प्रतिशत अधिक होती है। और इसमें कई और ख़र्च शामिल नहीं हैं। जैसे, पंवार के ट्रैक्टर का रख-रखाव/अवमूल्यन और कृषि उपकरण, पारिवारिक श्रम की क़ीमत और कार्यशील पूंजी आदि।

भुगतान में विलंब की स्थिति में अंतिम ख़र्च से बहुत फर्क पड़ता है। क़ानूनन मिलों को ईख खरीदने के 14 दिनों के अंदर भुगतान कर देना है, लेकिन पंवार को 1000 क्विंटल में से 220 क्विंटल का भुगतान अब तक नहीं हुआ है जो उन्होंने 2019-2020 (अक्टूबर-सितंबर) में बेचा था।

और इस मौसम का अब तक 600 क्विंटल और बेच चुके हैं। न ही 2017-18 से राज्य की प्रस्तावित दर बढ़ायी गयी है, हालाँकि पंवार का बुनियादी उत्पादन ख़र्च पिछले चार सालों में 10,000 रुपये से बढ़कर 13,700 रुपये प्रति बीघा से अधिक हो चुका है। अकेले डीजल का मूल्य ही प्रति लीटर 18 रुपये बढ़ चुका है और 7.5 हाॅर्सपावर के मोटर पंप के लिए मासिक बिजली दर 700 रुपये से बढ़कर 1750 रुपये हो गयी है।

अगर सभी ख़र्चों को जोड़ दिया जाए तो गन्ने से पंवार की कमाई मुश्किल से 5000 रुपये प्रति बीघा होगी- उनके बाक़ी 8 बीघा में गेहूँ, सरसों और बरसीम चारे की खेती होती है- वह भी सही से नहीं। उनकी कुल कमाई प्रति माह 10,000 रुपये से कम होगी। दस साल पहले, या पांच साल पहले भी, वे ठीकठाक निम्न मध्यवर्गीय जीवन जी रहे होंगे।

पंवार उस पीढ़ी की मिसाल हैं जो कभी ख़ुशहाल रहा किसान-मालिक वर्ग महसूस कर रहा है। ये खुदकाश्त किसान भारतीय कृषि में परिवर्तन के वाहक रहे हैं। आजीविका के लिए खेती करने वाले हाशिए के किसानों के उलट बेचने के लिए उपजाने वाले इन पूर्णकालिक किसानों को पता है कि खेती क्या है। उन्हें काॅन्ट्रैक्ट फाॅर्मिंग बहुत रास नहीं आती है, यह बाध्यकारी न होने के कारण गन्ने के मामले में फेल हो चुकी है। उन्हें लगता है कि फ़सल बाज़ार के नियमों को वापस लेकर सरकार अपनी ज़िम्मेदारी से और भाग रही है। उनका ग़ुस्सा और उनकी असुरक्षा की भावना जायज़ है। उनसे बात करना ज़रूरी है, और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है उनकी बात सुनना। ऐसा नहीं करना चरण सिंह और लाल बहादुर शास्त्री व सी सुब्रमण्यम के साथ घोर अन्याय होगा।

(मूल लेख अंग्रेजी में है। अनुवादक - समी अहमद)

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