कृषि सुधार क़ानून आए और चले गए। लेकिन किसानों की चिंता का मुख्य मुद्दा जहाँ था वहीं है। बीज, खाद, कीटनाशक, बिजली, पानी और मज़दूरी की बढ़ती दरों की वजह से खेती की लागत लगातार बढ़ रही है और किसानों की आमदमी घट रही है। इसलिए किसान अपनी उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्यों की क़ानूनी गारंटी चाहते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्यों की वर्तमान व्यवस्था एक तो, सब उपजों पर और सब राज्यों में लागू नहीं है और दूसरे, सरकारों की इच्छा पर निर्भर है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों के किसानों को इस व्यवस्था से ख़ूब फ़ायदा हुआ है। पर बिहार जैसे राज्यों में न इसके होते हुए लाभ मिल रहा था और न ही इसके हटाए जाने से कोई लाभ हुआ है।
इसकी एक मुख्य वजह शायद बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसानों के खेतों या जोतों का बहुत छोटा होना है।
कृषि विभाग के ताज़ा आँकड़ों के मुताबिक़ पंजाब और हरियाणा के किसानों के पास औसतन 14 और 11 बीघे ज़मीन हैं वहीं बिहार और उत्तर प्रदेश के किसानों के पास मात्र 1.5 से तीन बीघा। इसलिए पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के औसत किसानों के पास बेचने के लिए बहुत कम उपज बचती है और वे ख़रीदार की सौदेबाज़ी का शिकार हो जाते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य की क़ानूनी गारंटी मिलने से बिहार जैसे राज्यों के छोटी जोत वाले किसानों को भी इसका लाभ मिल सकता है।
कृषि उपज का न्यूनतम मूल्य तय किया जाना कोई नई बात भी नहीं है। अमेरिका और यूरोप के देशों में कृषि उपज के बाज़ार मूल्यों में गिरावट को रोकने के लिए किसानों को अपने कुछ खेतों को खाली रखने और वहाँ जैव-विविधता को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी दी जाती है। भारत में किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था है। कारण और तरीक़े भले अलग-अलग हों पर बात वही है। पर भारत सरकार को भय है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की क़ानूनी गारंटी देने से महँगाई बढ़ सकती है क्योंकि गेहूँ, मकई और धान जैसी फ़सलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य उनकी अंतरराष्ट्रीय जिंस बाज़ार क़ीमतों के बराबर आ चुके हैं। इसलिए उपज की गुणवत्ता और किसानों की उत्पादकता में गिरावट आने का भी भय है।
सरकार की सबसे बड़ी चिंता पूरे देश की उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने पर होने वाले ख़र्च की है। हालाँकि कई कृषि अर्थशास्त्रियों की दलील है कि सरकारी बजट पर कुछ हज़ार करोड़ का ही अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। यह दलील मान भी ली जाए तब भी देश भर की उपज को किसानों से ख़रीद कर उसका भंडारण और वितरण करने की चुनौती बहुत बड़ी है। भारत ही नहीं, दुनिया भर की सरकारें ऐसे कामों में बुरी तरह नाकाम होती आई हैं। ऐसे कामों में उपज के भारी मात्रा में बर्बाद होने और घूसखोरी का नया रास्ता खुल जाने का भय बना रहता है। सरकारों को केवल राष्ट्रीय अन्न-सुरक्षा के लायक कृषि उपज को ख़रीदना और उसका भंडारण करना चाहिए। बाक़ी काम बाज़ारों पर छोड़ कर नीतियों के द्वारा मूल्यों पर नियंत्रण रखना चाहिए।
जिस तरह गन्ना और कपास उगाने वाले किसानों को उनकी फ़सलों का न्यूनतम मूल्य दिलाया जाता है उसी तरह बाक़ी फ़सलों के न्यूनतम मूल्य को व्यापारियों से दिलाने की व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती?
हाँ, इस काम के लिए देहातों में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का तेज़ी से विकास किए जाने की ज़रूरत है। क्योंकि घरेलू उपभोक्ता के साथ-साथ यदि खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी कृषि उपज की माँग करने लगेगा तो बाज़ार में उसकी क़ीमतें स्थिर रखने में आसानी होगी। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को कृषि उपज की ख़रीद और भंडारण के लिए बड़ी संख्या में शीत-गोदामों की ज़रूरत होगी जिनके ख़िलाफ़ किसान नेताओं और उनके समर्थक राजनेताओं ने एक विचित्र सी मुहिम छेड़ रखी है जिसका कोई औचित्य समझ में नहीं आता।
खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का तेज़ विकास इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि भारत का कृषि क्षेत्र विकास-दर में सेवा और उद्योग जैसे दूसरे आर्थिक क्षेत्रों की तुलना में लगातार पिछड़ता आ रहा है। आज भी देश के लगभग आधे लोगों की आजीविका का मुख्य आधार होने के बावजूद अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान घट कर केवल 18% रह गया है। भारत में लगभग 14 करोड़ लोगों के पास खेती की ज़मीन है। उनमें से केवल 6 करोड़ लोग ही ऐसे हैं जो अपनी ज़मीन से साल में दो फ़सलें लेते हैं और इनमें से भी 80% के पास औसतन तीन बीघा से कम ज़मीन है। इन सब को गुज़ारे के लिए खेती के साथ-साथ आय के दूसरे साधनों की भी ज़रूरत है। देहात में खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों का विकास ऐसे साधन मुहैय्या करा सकता है।
कृषि क्षेत्र का विकास गाँवों और शहरों के बीच बढ़ती आर्थिक विषमता की खाई को पाटने के लिए भी ज़रूरी है और यह काम व्यापक पैमाने पर कृषि सुधारों के बिना नहीं हो सकता। क्योंकि किसानों की आय बढ़ाने के लिए केवल खाद्य प्रसंस्करण उद्योग के विकास की ही नहीं, बल्कि एक नई कृषि क्रांति की ज़रूरत है।
मिट्टी और सिंचाई का वैज्ञानिक प्रबंधन, नक़दी फ़सलों को बढ़ावा, अच्छे बीज सुलभ कराना, बागवानी, वानिकी और मत्स्यपालन को बढ़ावा और नई पर्यावरण हितकारी तकनीकों का विकास समय की ज़रूरत बन चुका है।
ज़ाहिर है सरकार अकेले दम पर ये सारे काम नहीं कर सकती। इन्हें पूरा कराने के लिए निजी उद्यमों और पूँजी के लिए अवसर खोलने होंगे और नेताओं को उद्यम-विरोधी बयानबाज़ी से बचना होगा।
कृषि जैसे समाज के आधारभूत क्षेत्र को पीछे छोड़ कर देश का संतुलित और समावेशी विकास नहीं किया जा सकता। इसके लिए कृषि सुधारों के साथ-साथ देहात में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग और कुटीर और लघु उद्योगों का विकास करना ज़रूरी है। साथ ही, खेत वाले किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य गारंटी की और उससे भी बढ़कर खेतिहर किसानों के लिए न्यूनतम मज़दूरी की गारंटी की भी ज़रूरत है। क्योंकि न्यूनतम समर्थन मूल्य गारंटी से बढ़ने वाली खाद्य-पदार्थों की महँगाई की सबसे बुरी मार उन्हीं खेतिहर और ग़रीब मज़दूरों पर पड़ने वाली है जो रात-दिन खेतों में काम करते और अन्न उगाते हैं। इसलिए समर्थन मूल्यों की गारंटी के बदले किसानों से न्यूनतम मज़दूरी की गारंटी और जलवायु की रक्षा के लिए पराली जलाने जैसे प्रदूषणकारी काम न करने और खेती में जलवायु की रक्षा का ध्यान रखने का वचन लेना भी आवश्यक होगा।
न्यूनतम समर्थन मूल्यों की गारंटी का मामला कृषि उपज के उत्पादकों और उपभोक्ताओं की ज़रूरतों के बीच संतुलन और सामंजस्य बिठाने पर भी आधारित है। सरकार को किसानों की आय-सुरक्षा के साथ-साथ कृषि उपज के उपभोक्ताओं की आमराय और सहमति भी जुटानी होगी। कोई लोकतांत्रिक सरकार केवल एक वर्ग को ख़ुश करने वाले फ़ैसले करके ज़्यादा दिनों तक नहीं टिक सकती। कृषि उपभोक्ताओं का वर्ग किसानों से भी कई गुना बड़ा है। इसलिए समर्थन मूल्य गारंटी जैसी नीति पर आगे बढ़ने से पहले हर सरकार को उनका ध्यान भी रखना होगा। यह काम आसान नहीं है पर असंभव भी नहीं है। अमेरिका और यूरोप के देशों में हुआ है तो भारत में भी हो सकता है और देश के देहात और कृषि क्षेत्र के विकास के लिए यह ज़रूरी भी है।