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'एमएसपी की गारंटी के बगैर ख़त्म नहीं होगा किसान आंदोलन'

'एमएसपी की गारंटी के बगैर ख़त्म नहीं होगा किसान आंदोलन'

किसान यह मांग क्यों कर रहे हैं कि निजी व्यापारी भी एमएसपी पर ही फ़सलें खरीदें? क्या इसका मतलब यह है कि सारी फ़सलें सरकार ही खरीदे?

पिछले साल कृषि क्षेत्र में लाए गए तीन क़ानूनों के निरस्तीकरण और न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की वैधानिक गारंटी की दो मूल मांगों को लेकर किसानों का एक व्यापक और अभूतपूर्व आंदोलन देशभर में चल रहा है। संविधान दिवस 26 नवंबर के अवसर पर इस आंदोलन का एक साल पूरा हो गया। जब किसान तमाम विषम परिस्थितियों को सहते हुए भी पीछे नहीं हटे तो अन्ततः मोदी सरकार ने 19 नवंबर को इन तीन क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी। 

परन्तु किसान मोर्चे ने अपनी अन्य मांगों को लेकर आंदोलन को और तेज़ करने का निर्णय लिया है। किसानों की मांग है कि घोषित एमएसपी से नीचे फ़सलों की खरीद क़ानूनी रूप से वर्जित हो, यानी कोई भी व्यक्ति, व्यापारी या संस्था जब फ़सलों का क्रय करे तो एमएसपी वैधानिक रूप से 'आरक्षित मूल्य' हो जिससे कम मूल्य पर कोई खरीद ना हो। एमएसपी का निर्धारण भी कृषि लागत मूल्य आयोग की C2 लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर होना चाहिए जैसा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश थी और बीजेपी का वायदा था। एमएसपी की गारंटी की यह मांग किसानों, विशेषकर, छोटे किसानों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस मांग के गणित को समझना बहुत आवश्यक है।

अभी देश में 23 फ़सलों की एमएसपी घोषित होती है। इसमें मुख्य रूप से खाद्यान्न- गेहूं, धान, मोटे अनाज, दालें; तिलहन, गन्ना व कपास जैसी कुछ नकदी फ़सलें शामिल हैं। दूध, फल, सब्ज़ियों, मांस, अंडे आदि की एमएसपी घोषित नहीं होती। 2019-20 में इन फ़सलों का एमएसपी पर कुल मूल्य लगभग 11 लाख करोड़ रुपये था। इसमें से गन्ने की फसल की खरीद सरकारी घोषित रेट पर मुख्यतः निजी मिलें करती रही हैं अतः गन्ने को इस गणना से अलग करके बाक़ी 22 फ़सलों की क़ीमत लगभग 10 लाख करोड़ रुपये बनती है। किसान देश की आधी आबादी है अतः वह स्वयं भी बहुत बड़ी मात्रा में इन फ़सलों का उपभोक्ता है। 

इन फ़सलों में से किसान लगभग 3.5 लाख करोड़ रुपये मूल्य की फ़सलें अपने स्वयं के उपभोग में, अपने पशुओं के आहार में, अगली फ़सल के बीज आदि में इस्तेमाल कर लेता है। कुछ हिस्सा ख़राब भी हो जाता है। अतः गन्ना छोड़कर एमएसपी वाली फ़सलों में से लगभग 6.5 लाख करोड़ रुपये मूल्य की फ़सलें ही बाज़ार में बिक्री हुईं। इसमें से सरकारी खरीद लगभग 2.75 लाख करोड़ रुपये मूल्य की फ़सलों की हुई। बाक़ी लगभग 3.75 लाख करोड़ रुपये के मूल्य की फ़सलें ही निजी क्षेत्र द्वारा खरीदी गईं। एक अनुमान के अनुसार निजी व्यापारी एमएसपी से औसतन 20 प्रतिशत कम मूल्य पर फ़सलें खरीदते हैं, अतः किसानों को इन फ़सलों के लगभग तीन लाख करोड़ रुपये ही मिले।

अब किसानों की मांग यह है कि ये निजी व्यापारी भी एमएसपी पर ही फ़सलें खरीदें, यह नहीं है कि सारी फ़सलें सरकार खरीदे। सरकार को केवल खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अनुसार या अपनी आवश्यकता की मात्रा ही खरीदनी होगी। 

किसानों की मांग निजी क्षेत्र या सरकार द्वारा किसानों की सारी फ़सलें खरीदने के लिए बाध्य करना नहीं हैं, परन्तु यदि कोई निजी व्यापारी या सरकार बाज़ार में उतरते हैं तो वह किसान को एमएसपी वाली क़ीमत देने के लिए अवश्य क़ानूनी रूप से बाध्य हों।

यदि इस मांग को मान लिया जाता है तो सरकार के ऊपर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा, केवल निजी व्यापारी जो अब तक किसानों का आर्थिक शोषण करते रहे हैं उसपर अंकुश अवश्य लग जाएगा। यदि यह क़ानून बने तो उपरोक्त वर्ष की गणना में किसानों को निजी व्यापारियों से 75,000 करोड़ रुपये और मिलते। यही मूलभूत लड़ाई है। प्रश्न यह है कि सरकार इस मांग पर अपने पैर क्यों घसीट रही है, जबकि उसका एक रुपया भी इसमें अतिरिक्त ख़र्च नहीं होना है। उल्टे यह अतिरिक्त धनराशि किसानों के हाथ में पहुंचने से अर्थव्यवस्था में मांग, रोज़गार, कालांतर में निवेश और सरकार का टैक्स बढ़ेगा। सरकार को व्यापारियों के हित से ज़्यादा किसानों के हितों का संरक्षण करना चाहिए।

कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि एमएसपी निजी क्षेत्र पर बाध्यकारी नहीं किया जा सकता है। परन्तु ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां जनहित या वर्गहित में, आर्थिक व सामाजिक कारणों से सरकार सेवाओं या वस्तुओं का मूल्य निर्धारित या नियंत्रित करती है तो किसानों की आर्थिक सुरक्षा के लिए फ़सलों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित क्यों नहीं किया जा सकता। अभी हाल ही में सबसे ताज़ा उदाहरण कोरोना की वैक्सीन व इसके इलाज में लगने वाली अन्य दवाइयों के मूल्य को निर्धारित करने का है। गन्ने का रेट हर साल सरकार घोषित करती है और उसी रेट पर निजी चीनी मिलें किसानों से गन्ना खरीदती हैं। चीनी मिलों को भी सरकार ने चीनी के न्यूनतम बिक्री मूल्य की सुरक्षा दी हुई है। मज़दूरों का शोषण रोकने के लिए सरकार न्यूनतम मज़दूरी दर घोषित करती है। सरकार अपने स्वयं के राजस्व की सुरक्षा के लिए ज़मीनों का न्यूनतम बिक्री मूल्य व सेक्टर रेट घोषित करती है। आजकल सरकार ने हवाई जहाज के न्यूनतम किराए भी घोषित किए हुए हैं। टेलीकॉम क्षेत्र की कंपनियां भी घाटे से उबरने के लिए अपनी सेवाओं के लाभकारी न्यूनतम मूल्य घोषित करने की मांग कर रही हैं। जब यह सब हो सकता है तो किसानों को यह अधिकार क्यों नहीं दिया जा सकता।

एक अन्य तर्क यह भी दिया जा रहा है कि यदि एमएसपी बाध्यकारी होगा तो निजी व्यापारी फ़सलें नहीं खरीदेंगे जिससे किसान बर्बाद हो जाएंगे। ऐसे में सरकार को सारी फ़सल खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। यह एक कुतर्क है।

क्या गन्ने का मूल्य घोषित करने से चीनी मिलें या किसान बर्बाद हो गए, क्या सारा गन्ना सरकार खरीद रही है। क्या न्यूनतम किराए घोषित करने से कोई हवाई यात्रा नहीं कर रहा और सारी एयरलाइंस बर्बाद हो गई हैं या सरकार को सारी उड़ानें बुक करनी पड़ रही हैं। पेट्रोल-डीजल के रेट अभी भी अपरोक्ष रूप से सरकार नियंत्रित कर रही है, तो क्या 100 रुपये से ज्यादा मूल्य करने पर कोई भी पेट्रोल-डीजल नहीं खरीद रहा और तेल शोधक कारखाने सारा तेल सरकार को बेच रहे हैं। क्या न्यूनतम मज़दूरी के क़ानून से कोई उद्योग मज़दूरों को रोज़गार नहीं दे रहा और इन सबको सरकार नौकरी देने के लिए मजबूर है। 

 - Satya Hindi

किसान आंदोलन में ट्रैक्टर से भी आए थे किसान।फ़ाइल फ़ोटो

वास्तविकता तो यह है कि जब तक मनुष्य जीवित है उसे भोजन की आवश्यकता होगी ही होगी, इसलिए एमएसपी पर कोई नहीं खरीदेगा जैसे तर्क बेमानी हैं। निजी व्यापारी जिस मूल्य पर खरीदते हैं उसपर अपना मुनाफा जोड़कर आगे बेच देते हैं अतः उन्हें खरीदने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। एमएसपी क़ानून से उल्टे सरकार की खरीद कम हो जाएगी क्योंकि जब सरकार और निजी व्यापारी एक मूल्य पर ही खरीद करेंगे तो किसान के पास सरकार को बेचने का कोई अन्य आर्थिक कारण नहीं होगा। इससे सरकार अत्यधिक खरीद, भंडारण और वितरण की समस्या और इस कारण सरकारी खजाने पर पड़ रहे अतिरिक्त आर्थिक बोझ से भी बचेगी। इससे फ़सलों के विविधीकरण का उद्देश्य भी प्राप्त होगा क्योंकि जब सभी फ़सलें एमएसपी पर बिकेंगी तो किसान गेहूं-धान के फ़सल चक्र से भी निकलकर अन्य फ़सलों का उत्पादन बढ़ा देगा।

2019 में कंपनियों की आयकर दर घटाने के एक निर्णय से ही सरकार को लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये का घाटा प्रति वर्ष हो रहा है और कंपनियों को यह लाभ हुआ है, जो हर साल बढ़ता जाएगा। इस तथ्य के प्रकाश में सरकार के लिए एमएसपी बाध्यकारी बनाने का निर्णय शायद कुछ आसान हो। इससे सरकार को कोई घाटा नहीं होगा क्योंकि एमएसपी क़ानून बनने से कोई अतिरिक्त राशि सरकार को नहीं चुकानी है। कृषि जिंसों के व्यापार में लगे लाखों व्यापारियों और निजी क्षेत्र की कंपनियों के लिए भी यह बहुत बड़ी रक़म नहीं है। वास्तव में एमएसपी मूल्य किसानों का अधिकार है जो अब तक उन्हें नहीं दिया गया। सरकार को चाहिए कि वह एमएसपी की वैधानिक गारंटी की मांग को तत्काल मान ले व अन्य मांगों का समयबद्ध निस्तारण करने के लिए एक समिति का गठन कर दे जिससे आंदोलनकारी किसान अपने घर लौट जाएँ।

(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)

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