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अदालती कार्यवाही से किसानों का इंकार क्यों?

अदालती कार्यवाही से किसानों का इंकार क्यों?

केंद्र सरकार ने किसानों से कह दिया है कि कृषि क़ानून मान्य नहीं हैं तो सुप्रीम कोर्ट जाइए। किसानों ने भी स्पष्ट कर दिया है कि वे न तो सुप्रीम कोर्ट जाएँगे, न ही अदालती कार्यवाही का हिस्सा बनेंगे और अपना आंदोलन जारी रखेंगे।

तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस लेने से इंकार करते हुए केंद्र सरकार ने अब किसानों से कह दिया है कि अगर आपको हमारे बनाए क़ानून मान्य नहीं हैं तो आप सुप्रीम कोर्ट चले जाइए। यानी सरकार इस बात को लेकर आश्वस्त है कि इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट भी उसकी ही तरफ़दारी करेगा। दूसरी ओर तीनों क़ानूनों को अपने लिए डेथ वारंट मान रहे किसानों ने भी स्पष्ट कर दिया है कि वे न तो सुप्रीम कोर्ट जाएँगे, न ही इस मसले पर पहले जारी अदालती कार्यवाही का हिस्सा बनेंगे और अपना आंदोलन जारी रखेंगे

किसानों का संकल्प है- 'मरेंगे या जीतेंगे।’ इस संकल्प के गहरे मायने हैं। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता पर किसानों ने औपचारिक तौर पर कोई सवाल नहीं उठाया है, लेकिन इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट न जाने का उनका फ़ैसला निश्चित ही इस आशंका से प्रेरित है कि वहाँ उनके साथ इंसाफ़ नहीं होगा।

पिछले डेढ़ महीने से दिल्ली की सीमाओं पर जारी किसान आंदोलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से सवाल पूछने के अंदाज़ में जो टिप्पणी की है, वह चौंकाती है। प्रधान न्यायाधीश शरद अरविंद बोबडे की अगुवाई वाली पीठ ने सरकार से पूछा है कि क्या किसान आंदोलन वाली जगहों पर कोरोना संक्रमण से संबंधित स्वास्थ्य मंत्रालय के दिशा-निर्देशों का पालन किया जा रहा है? उसने सरकार से यह भी पूछा है कि उसने निज़ामुद्दीन स्थित तब्लीग़ी जमात के मरकज वाले मामले से क्या सबक़ लिया है? इन सवालों के साथ ही अदालत ने कहा है कि कहीं किसान आंदोलन भी तब्लीग़ी जमात के कार्यक्रम जैसा न बन जाए, क्योंकि कोरोना फैलने का डर तो किसान आंदोलन वाली जगहों पर भी है।

सुप्रीम कोर्ट ने किसान आंदोलन को लेकर यह सवाल और टिप्पणी तब्लीग़ी जमात के ख़िलाफ़ जम्मू की एक वकील सुप्रिया पंडित की याचिका की सुनवाई करते हुए की।

याचिका में आरोप लगाया गया है कि कोरोना काल में हुए तब्लीग़ी जमात के आयोजन से देश में कोरोना संक्रमण फैला है, लेकिन दिल्ली पुलिस कार्यक्रम के आयोजक निज़ामुद्दीन मरकज के मौलाना साद को गिरफ्तार नहीं कर पाई। 

ग़ौरतलब है कि पिछले साल मार्च महीने में दिल्ली के निज़ामुद्दीन इलाक़े में स्थित तब्लीग़ी जमात के मरकज में एक कार्यक्रम हुआ था, जिसमें देश-विदेश के क़रीब 9000 लोगों ने शिरकत की थी। कार्यक्रम ख़त्म होने पर बड़ी संख्या में आए ज़्यादातर भारतीय तो अपने-अपने घर लौट गए थे लेकिन अचानक लॉकडाउट लागू हो जाने के कारण विदेशों से आए लोग मरकज में ही फँसे रह गए थे। वहाँ से निकले लोग जब तक अपने-अपने राज्यों में पहुँचे तब तक देश भर में कोरोना संक्रमण तेज़ी से फैलना शुरू हो चुका था। देश में मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए हमेशा मौक़े की ताक में रहने वाले तत्वों ने महामारी के इस दौर को अपने अभियान के लिए माकूल मौक़ा माना। उन्होंने सोशल मीडिया के ज़रिए जमकर दुष्प्रचार किया कि तब्लीग़ी जमात के लोगों की वजह से कोरोना का संक्रमण फैल रहा है। 

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तब्लीग़ी जमात के उस कार्यक्रम में शिरकत करने वाले देश-विदेश के कई लोगों के ख़िलाफ़ देश के विभिन्न शहरों में मुक़दमे दर्ज हुए थे। उनमें से कई लोगों को कोरोना फैलाने के आरोप में गिरफ्तार भी किया गया था। मीडिया ने भी पूरे जोर-शोर से यह माहौल बना दिया था कि देश में कोरोना संक्रमण फैलाने के लिए तब्लीग़ी जमात और मुसलिम समुदाय ही ज़िम्मेदार है। इस प्रचार को हवा देने का काम केंद्र सरकार के मंत्री और अफ़सरों के अलावा भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता भी कर रहे थे।

कोरोना महामारी की आड़ में मुसलमानों के ख़िलाफ़ जिस तरह सरकारी और ग़ैर सरकारी स्तर पर योजनाबद्ध तरीक़े से नफ़रत-अभियान और मीडिया ट्रोल चलाया जा रहा था, उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी।

यूरोपीय देशों के मीडिया में भी भारत की घटनाएँ ख़ूब जगह पा रही थी। सबसे पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस तरह का अभियान बंद करने की अपील की और कहा था कि इस महामारी को किसी भी धर्म, जाति या नस्ल से न जोड़ा जाए। बाद में खाड़ी के देशों ने भी भारतीय घटनाओं पर सख़्त प्रतिक्रिया जताई थी। कुवैत और सऊदी अरब ने तो कोरोना महामारी फैलने के लिए मुसलिम समुदाय को ज़िम्मेदार ठहराने और मुसलमानों को प्रताड़ित किए जाने की घटनाओं पर भारत सरकार को चेतावनी देने के अंदाज़ मे चिंता जताई थी।

इन प्रतिक्रियाओं पर न सिर्फ़ भारतीय राजदूतों को सफ़ाई देनी पड़ी थी, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी ट्वीट करके कहना पड़ा था कि कोरोना नस्ल, जाति, धर्म, रंग, भाषा आदि नहीं देखता, इसलिए एकता और भाईचारा बनाए रखने की ज़रूरत है। इससे पहले बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा को अपनी पार्टी के नेताओं से कहना पड़ा था कि वे कोरोना महामारी को लेकर सांप्रदायिक नफ़रत फैलाने वाले बयान देने से परहेज करें। हालाँकि प्रधानमंत्री और बीजेपी अध्यक्ष की ये अपीलें पूरी तरह बेअसर रही थीं, मगर इनसे इस बात की तसदीक तो हो ही गई थी कि देश मे कोरोना महामारी का राजनीतिक स्तर पर सांप्रदायीकरण कर एक समुदाय विशेष को निशाना बनाया जा रहा है। 

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हक़ीक़त यह भी रही कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के अध्यक्ष ने भले ही औपचारिक तौर कुछ भी कहा हो, मगर कोरोना को लेकर सांप्रदायिक राजनीति सरकार के स्तर पर भी हो रही थी और सत्तारूढ़ पार्टी तथा उसके सहयोगी संगठन भी अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए महामारी की इस चुनौती को एक अवसर के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे।

अगर ऐसा नहीं होता तो भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल कोरोना संक्रमण के शुरुआती दौर में रोज़ाना की प्रेस ब्रीफिंग में कोरोना मरीजों के आँकड़े संप्रदाय के आधार पर नहीं बताते, गुजरात में कोरोना मरीजों के इलाज के लिए हिंदू और मुसलमानों के लिए अलग-अलग वार्ड नहीं बनाए जाते, गली, मोहल्लों और कॉलोनियों में फल-सब्जी बेचने वाले मुसलमानों के बहिष्कार का अभियान नहीं चलाते, मुसलमानों को कोरोना बम कह कर उनका मज़ाक़ नहीं उड़ाया जाता, पुलिस लॉकडाउन के दौरान सड़कों पर निकले लोगों के नाम पूछ कर पिटाई नहीं करती, ज़रूरतमंद ग़रीबों को सरकार की ओर से बाँटी जाने वाली राहत सामग्री, भोजन के पैकेट, गमछों और मास्क पर प्रधानमंत्री की तसवीर और बीजेपी का चुनाव चिन्ह नहीं छपा होता, बीजेपी का आईटी सेल अस्पतालों में भर्ती तब्लीग़ी जमात के लोगों को बदनाम करने के लिए डॉक्टरों पर थूकने वाले फर्जी वीडियो और ख़बरें सोशल मीडिया में वायरल नहीं करता। 

खैर, इस सबके बावजूद पिछले पाँच महीनों के दौरान मद्रास, बॉम्बे और पटना हाई कोर्ट के अलावा हैदराबाद और दिल्ली की स्थानीय अदालतों ने भी तब्लीग़ी जमात के सदस्यों के ख़िलाफ़ तमाम मुक़दमों को खारिज कर गिरफ्तार लोगों की रिहाई के आदेश जारी किए हैं।

यही नहीं, इन सभी अदालतों ने तब्लीग़ी जमात के सदस्यों के ख़िलाफ़ निराधार आरोप लगाकर मुक़दमे दर्ज करने के लिए सरकारों की खिंचाई भी की है और एक समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए मीडिया को भी खरी-खरी सुनाई है। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट का कोरोना संक्रमण के लिए तब्लीग़ी जमात को आरोपित करने वाली याचिका की सुनवाई करना आश्चर्यजनक तो है ही, उससे भी ज़्यादा आश्चर्यजनक किसान आंदोलन के संदर्भ में तब्लीग़ी जमात का ज़िक्र करना है। 

भारत में कोरोना वायरस का प्रवेश हुए दस महीने से ज़्यादा हो गए हैं। कोरोना काल में ही देश के विभिन्न हिस्सों में कई बड़े धार्मिक आयोजन भी हुए जिसमें हज़ारों-लाखों की संख्या में लोगों ने शिरकत की। ऐसे कुछ आयोजनों में तो ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हुए। लेकिन ऐसे किसी आयोजन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना संक्रमण फैलने की आशंका नहीं जताई। 

वीडियो में देखिए, आख़िर कब तक मरेंगे किसान?

कोरोना काल में ही बिहार, मध्य प्रदेश और तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद सहित देश के कई हिस्सों में राजनीतिक दलों की बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियाँ हुई हैं और पश्चिम बंगाल में तो अभी भी हो रही हैं, लेकिन इन रैलियों का भी सुप्रीम कोर्ट ने कोई संज्ञान नहीं लिया। यही नहीं, इन दिनों कृषि क़ानूनों को किसानों के हित में बताने के लिए ख़ुद प्रधानमंत्री देश के विभिन्न इलाक़ों में जा रहे हैं, जहाँ उनके कार्यक्रम के लिए हज़ारों की संख्या में लोगों को जुटाया जा रहा है। ऐसे किसी कार्यक्रम से कोरोना संक्रमण फैलने की आशंका भी सुप्रीम कोर्ट को नहीं सता रही है।

कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी तब्लीग़ी जमात और आंदोलन कर रहे किसानों का अपमान है। यही नहीं, इस टिप्पणी से देश की उस न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता पर भी गंभीर सवालिया निशान लगता है, जिसमें लोगों का भरोसा अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है। यही वजह है कि किसान अपनी मांगों को लेकर अदालती कार्यवाही का हिस्सा बनने से इंकार कर रहे हैं।

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