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मोदी की मनमर्जी की कार्यशैली की वजह से कृषि क़ानून रद्द?

मोदी की मनमर्जी की कार्यशैली की वजह से कृषि क़ानून रद्द?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मनमर्जी की कार्यशैली की वजह से ही कृषि क़ानूनों को अंत में रद्द करना पड़ा, रद्द करने के तरीके से भी उनकी यह कार्यशैली ही उजागर होती है।

कृषि क़ानूनों के वापस लेने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कामकाज की शैली और उनके तौर तरीकों पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं।

मोदी ने 2020 में बगै़र मंत्रिमंडल के राय मशविरे के इन क़ानूनों से जुड़े अध्यादेश जारी कर दिए थे और बाद में सदन में शोर- शराबे और नियम के उल्लंघन के आरोपों के बीच इन्हें पारित करवा लिया था। और अब बगैर मंत्रिमंडल की बैठक के ही इन क़ानूनों को वापस लेने का एलान भी कर दिया।

मोदी की मनमर्जी?

इससे यह साफ है कि सरकार ने इतने अहम क़ानूनों पर किसी तरह की आम राय बनाने की कोशिश नहीं की, किसान संगठनों, अर्थशास्त्रियों, अपनी पार्टी और अपनी सरकार तक से इस पर विचार विमर्श नहीं किया। इसी तरह इन क़ानूनों को वापस लेते वक़्त भी किसी से सलाह नहीं ली और यकायक घोषणा कर दी। ठीक इसी तरह नोटबंदी और लॉकडाउन से जुड़े एलान भी किए गए थे। 

क्या यह प्रधानमंत्री की कार्यशैली है कि वे सिर्फ अंतिम परिणति पर यकीन करते हैं और प्रक्रिया की परवाह नहीं करते? क्या यह उनकी कार्यशैली है कि वे खुद निर्णय लेकर उसे लागू करने की ज़िम्मेदारी दूसरों पर डाल देते हैं?

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भूमि अधिग्रहण क़ानून

मई 2014 में सत्ता में आने वाली मोदी सरकार ने दिसंबर 2014 में ही भूमि अधिग्रहण क़ानून के संशोधन से जुड़ा अध्यादेश जारी कर दिया। जब इससे जुड़ा विधेयक सदन में रखा गया तो कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों ने इसे सेलेक्ट कमेटी के पास भेजने को कहा था। 

पर सरकार ने किसी की नहीं सुनी और लोकसभा में इसे पारित भी कर दिया गया क्योंकि सरकार के पास पूर्ण बहुमत था। लेकिन राज्यसभा में बहुमत नहीं होने के कारण यह बिल वहाँ लटक गया।

सरकार ने अध्यादेश की तीन महीने की मियाद ख़त्म होने के बाद मई 2015 में एक बार फिर से वही अध्यादेश जारी किया। लेकिन इसके बाद भी वह पारित नहीं किया जा सका तो सरकार ने उस अध्यादेश को ख़त्म हो जाने दिया। 

यानी दो कोशिशों के बाद भी अध्यादेश क़ानून नहीं बनाया जा सका, लेकिन सरकार ने दूसरे लोगों की बातों को उसमें शामिल नहीं किया। आम सहमति बनाने की तो बात ही दूर है।

कृषि सुधार

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 15 मई 2020  को पहली बार कृषि सुधारों का संकेत दिया। यह वह समय था जब कोरोना महामारी से देश जूझ रहा था और पूरा ध्यान कोरोना पर ही होना चाहिए था। 

सरकार ने 3 जून को तीन कृषि क़ानूनों से जुड़े अध्यादेश जारी किए। 14 सितंबर को बड़े आराम से इन्हें लोकसभा से पारित करवा दिया गया क्योंकि सरकार के पास बहुमत था। लेकिन राज्यसभा में इसका विरोध हुआ। भीषण शोरशराबे और हंगामे के बीच यह विधेयक पारित हुआ। 

राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश पर यह आरोप लगा कि उन्होंने नियम कानून का उल्लंघन कर इस बिल को पारित करवाया। इसके तुरन्त बाद यह राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया और 27 सितंबर 2020 को राष्ट्रपति ने दस्तख़त कर दिए।

कृषि सुधारों पर प्रधानमंत्री की हठधर्मिता का यह हाल रहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उससे जुड़े कृषि संगठन और दूसरे संगठन स्वदेशी जागरण मंच तक को इन क़ानूनों के ख़िलाफ़ बोलना पड़ा।

संघवाद के ख़िलाफ़!

कई राज्य सरकारों ने कृषि के राज्य का विषय होने का मुद्दा उठाया और इसे सहकारी संघवाद के ख़िलाफ़ बताया। बिहार जैसे बीजेपी की मदद से चलने वाली राज्य सरकारें भी इससे असहमत थीं, पर प्रधानमंत्री पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। 

नोटबंदी

इसी तरह प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के मुद्दे पर यकायक रात के आठ बजे टीवी पर देश को संबोधित करते हुए एलान कर दिया कि रात के 12 बजे यानी चार घंटे बाद 500 रुपए और एक हज़ार रुपए के नोट बेकार हो जाएंगे।

 - Satya Hindi

लेकिन इसके लिए पहले से कोई तैयारी नहीं की गई, रिज़र्व बैंक को विश्वास में नहीं लिया गया, नए नोट की व्यवस्था नहीं की गई, लोगों को पुराने नोट वापस करने का समय नहीं दिया गया।  न तो मुख्य आर्थिक सलाहाकर न ही किसी आार्थिक थिंक टैंक से राय ली गई। 

लॉकडाउन!

ठीक इसी तरह कोरोना लॉकडाउन का एलान प्रधानमंत्री ने किया। एक बार फिर उन्होंने रात के आठ बजे टीवी पर देश को संबोधित करते हुए एलान कर दिया कि रात के 12 बजे से लॉकडाउन लागू कर दिया जाएगा। एक बार फिर किसी राज्य सरकार से राय नहीं ली गई, किसी को अपने गंतव्य पर पहुँचने का समय नहीं दिया गया। लेकिन इसे लागू करने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन पर ही थी। 

इससे यह बात साफ है कि प्रधानमंत्री किसी मुद्दे पर सभी संबंधित पक्षों से आम राय बनाने की बात तो दूर, अपनी पार्टी और अपनी सरकार से भी राय नहीं लेते है। वे खुद फैसले लेते हैं, उसका बस एलान कर देते हैं और उन्हें लागू करने की ज़िम्मेदारी दूसरों पर डाल देते हैं।

इससे एक बड़ा नुकसान यह होगा कि सरकार की अर्थव्यवस्था, श्रम, शिक्षा या दूसरे मुद्दों पर सुधार की जो योजना होगी, उसे झटका लगेगा। पर इसके लिए भी ज़िम्मेदार प्रधानमंत्री ही होंगे जो सिर्फ अपनी मनमर्जी से काम करने की कार्यशैली पर चलते हैं।

अमेरिका के राष्ट्रपति को असीमित क्षमता है, वह अपने प्रेसिडेन्सियल ऑर्डर से कुछ भी आदेश दे सकता है, पर वह भी अपने सलाहकारों से राय मशविरा लेता है, वह भी थिंक टैंक से बात करता है, सभी पक्षों से राय लेता है, लोगों को विश्वास में लेता है।

पर लोकसभा से संचालित होने वाले वेस्टमिंस्टर मॉडल की सरकार के प्रधानमंत्री इन बातों में यकीन नहीं करते। उनकी कार्यशैली सबसे हट कर है। नतीजा सामने है।

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