कृषि क़ानून वापस: विधानसभा चुनाव में हार के डर से पीछे हट गए मोदी!
19 नवंबर, 2021 का दिन भारतीय राजनीति के इतिहास में एक बड़े दिन के रूप में याद किया जाएगा। किसान आंदोलन में शामिल रहे लोग, विपक्षी राजनीतिक दलों के नेता यह कहकर इस दिन की मिसाल देंगे कि इस दिन उन्होंने ताक़तवर राजनेता और वज़ीर-ए-आज़म नरेंद्र मोदी को झुकने के लिए मज़बूर कर दिया था।
बेशक, किसानों ने मोदी सरकार को झुकाया है, वरना पिछले सात साल में कभी ऐसा नहीं हुआ जब केंद्र सरकार या वज़ीर-ए-आज़म मोदी किसी तरह के दबाव में दिखे हों।
यह साफ नज़र आता है कि इस दबाव की वजह सामने खड़े पांच राज्यों के चुनाव हैं। इनमें से भी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन के गहरे असर के कारण बीजेपी परेशान थी और उसे कृषि क़ानूनों को लेकर जल्द कोई फ़ैसला लेना था।
मोदी सरकार और बीजेपी के पास तमाम एजेंसियों, राजनीतिक विश्लेषकों से यह फ़ीडबैक ज़रूर पहुंच रहा था कि किसान आंदोलन उसके उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापसी की उम्मीदों को चकनाचूर कर देगा।
संघ परिवार भी इस आंदोलन को लेकर चिंता जता चुका था। ऐसे में कृषि क़ानूनों को रद्द करने के अलावा कोई और रास्ता मोदी सरकार के पास नहीं बचा था।
मज़बूती से चला किसान आंदोलन
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ग़ाजियाबाद से लेकर गौतमबुद्ध नगर, मेरठ से लेकर मुज़फ्फरनगर और मथुरा तक, बाग़पत से अलीगढ़, आगरा, हाथरस, अमरोहा, बिजनौर और सहारनपुर तक किसान आंदोलन का अच्छा-खासा असर दिखाई दिया। इसी तरह उत्तराखंड के हरिद्वार और उधमसिंह नगर के इलाक़ों में किसान आंदोलन काफ़ी मज़बूती से चला।
पंजाब और हरियाणा में तो किसानों ने बीजेपी और उसके सहयोगी दलों के नेताओं का छोटे-मोटे कार्यक्रमों में जाना तक दूभर कर दिया था। हरियाणा में हर दिन बीजेपी और जेजेपी के नेताओं का पुरजोर विरोध हो रहा था और राजस्थान से भी विरोध की ख़बरें आ रही थीं। इसके अलावा सिंघु, टिकरी और ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर भी किसान डटे हुए थे।
मतलब साफ था कि इन जगहों के किसान कृषि क़ानूनों को वापस लेने से कम पर राजी नहीं थे। हालांकि एमएसपी व अन्य कुछ मुद्दे बाक़ी हैं लेकिन किसान कृषि क़ानूनों को लागू नहीं होने देना चाहते थे।
लखीमपुर खीरी की घटना के बाद तो किसान और बुरी तरह भड़क गए थे और बीजेपी के लिए उनके विरोध से निपट पाना बेहद मुश्किल हो गया था।
पंजाब में बीजेपी इस बार अपनी सियासी क़यादत बनाने की मंशा लिए आगे बढ़ रही थी लेकिन किसान आंदोलन ने उसके नेताओं को घर बैठने पर मज़बूर कर दिया था।
ऐसे में इस आंदोलन के कारण उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड और पंजाब के विधानसभा चुनाव में होने वाले सियासी नुक़सान की आशंका से बीजेपी और संघ परिवार परेशान था।
सियासी घाटे का डर
अगर उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और पंजाब के चुनाव सामने नहीं होते तो मोदी सरकार कुछ और वक़्त के लिए रुक सकती थी। लेकिन वह चुनावी हार को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं थी। क्योंकि इन चुनाव के नतीजों का बहुत बड़ा असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर होना है। ऐसे में किसी बड़े ख़तरे को टालने के लिए सरकार और संगठन इस नतीजे पर पहुंचे कि किसान आंदोलन का जारी रहना सियासी घाटे का सौदा है और बिना देर किए किसानों की मांगों को मान लिया जाए।
यहां यह भी बताना ज़रूरी है कि बीजेपी ने उत्तर प्रदेश के साथ ही बाक़ी चुनावी राज्यों में जीत की पताका फहराने के लिए पूरा जोर लगाया हुआ है। वह नहीं चाहती थी कि किसान आंदोलन इसमें बाधा बने और इसके लिए कृषि क़ानूनों को वापस लेना बेहद ज़रूरी था। इसलिए बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने विधानसभा चुनाव से महज साढ़े तीन महीने पहले कृषि क़ानूनों पर हाथ खींच लिए।