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न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर आख़िर क्यों डरे हुए हैं किसान?

न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर आख़िर क्यों डरे हुए हैं किसान?

विपक्ष की अनुपस्थिति में केंद्र सरकार ने सितंबर महीने में लोकसभा के बाद राज्यसभा से भी आखिरी कृषि विधेयक पारित करा लिया था और फिर बाद में राष्ट्रपति की मुहर लगने के साथ यह क़ानून भी बन गया। लेकिन किसानों का प्रदर्शन जारी है।

आखिरकार विपक्ष की अनुपस्थिति में केंद्र सरकार ने राज्यसभा से आखिरी कृषि विधेयक भी मंगलवार को पारित करा ही लिया। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सुनिश्चित करने की किसानों की माँग जारी है। वहीं सरकार अपने तर्कों पर अड़ी हुई है कि खुले बाज़ार में मंडी से इतर बिक्री का कथित 'अधिकार' देकर उसने किसानों का आमदनी बढ़ाने की दिशा में कदम बढ़ाया है।

किसानों का डर

ऐसे में यह जानना ज़रूरी है कि किसान क्यों डरे हुए हैं कि अगले कदम के तहत केंद्र सरकार सरकारी खरीद कम करने जा रही है और उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल पाएगा। किसानों की फसलों के मूल्य का निर्धारण कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) करता है। यही कृषि उत्पादों के मूल्य निर्धारण का शीर्ष निकाय है। आयोग ने अपनी रबी और खरीफ के लिए दी गई दोनों रिपोर्टों में यह कहा है कि सरकार को ओपन एंडेड खरीद बंद करने की ज़रूरत है। आयोग अपनी रिपोर्टों में इसे बार बार दोहरा रहा है।  

सीसीपी का क्या कहना है

आइए पहले देखते हैं कि खरीफ फसलों की मूल्य नीति विपणन मौसम 2020-21 में सीएसीपी ने क्या कहा है।

आयोग के मुताबिक़, 1 मार्च 2020 को केंद्रीय भंडार में क़रीब 3.1 करोड़ टन चावल का भंडार था, जो पिछले साल की समान अवधि की तुलना में 2.8 गुना ज्यादा है। आयोग का कहना है कि ओपन एंडेड यानी खुला बाज़ार खरीद नीति से अनाज का अधिक भंडार बना हुआ है। 

ओपन एंडेड नीति के तहत एक निर्धारित समय में जितना भी अनाज पहुँचता है, सरकार उसकी खरीद करती है। आयोग ने पहले भी इसका विरोध किया था और ताज़ा रिपोर्ट में भी कहा कि सरकार को इस नीति की समीक्षा करनी चाहिए।

आयोग के बहाने

आयोग कम खरीदारी करने के पीछे आयोग तरह- तरह के तर्क देता रहा है। 

  • पहला तर्क यह है कि सरकार को अनाज खरीद पर धन खर्च करना पड़ता है।
  • दूसरा, इसके भंडारण की समस्या आती है।
  • तीसरा पंजाब व हरियाणा में भूजल कम हो गया, क्योंकि सरकारी खरीद होने के कारण गेहूं व धान में किसानों का मुनाफ़ा होता है और वे इन फसलों का ज्यादा उत्पादन करते हैं।
  • चौथा, इससे फसल का विविधिकरण हतोत्साहित होता है और सरकार जिन अनाजों की खरीद करती है, किसान उन्हीं का उत्पादन करते हैं।

आयोग ने रबी फसल के 2021-22 विपणन सत्र की रिपोर्ट जुलाई 2020 को जारी की। इसमें सरकार की ओर से लाए गए तीन अध्यादेशों की मुक्त कंठ की प्रशंसा की गई है, जो अब लोकसभा और राज्यसभा में पारित होकर क़ानून का रूप ले चुके हैं। आयोग ने कहा कि इन कानूनों से किसानों को बाजार के बेहतर अवसर मिलेंगे। निजी क्षेत्र से निवेश आकर्षित होगा और मूल्यवर्धन के साथ, वैज्ञानिक तरीके से भंडारण गोदामों व मार्केटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर को बढ़ावा मिलेगा।

सरकार नहीं चाहती खरीदना

साथ ही इसमें भी केंद्रीय पूल में गेहूं का भंडारण बहुत ज्यादा होने का रोना रोते हुए कहा गया है कि 31 मई, 2020 को गेहूं का स्टॉक 5.58 करोड़ टन के नए स्तर पर पहुँच गया, जो भंडारण के मानकों की तुलना में दोगुना ज़्यादा है। 

यह कहते हुए सरकार से यह भंडार कम करने की कवायद के साथ चावल व गेहूं की खुली खरीद की नीति की समीक्षा करने की बात कही गई है। साथ ही यह भी कहा गया है कि सरकार हाल के वर्षों में गेहूं और चावल की सबसे बड़ी खरीदार बनकर उभरी है।

पंजाब-हरियाणा में अधिक खरीद

आयोग ने गेहूं और चावल की कम खरीद की सिफारिश करते हुए यह कहा है कि पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश से अधिक खरीद होती है, जबकि उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार की सरकारी खरीद में हिस्सेदारी कम है। आयोग ने इन राज्यों में भी खरीद व्यवस्था मजबूत करने की सिफ़ारिश की है।

कृषि विधेयकों पर देखें यह वीडियो। 

पंजाब और हरियाणा में सशक्त आढ़तिया व्यवस्था है। वे समय से किसानों का अनाज उठाते हैं, उसकी गुणवत्ता के मुताबिक छंटनी और साफ- सफाई के बाद बिक्री कर देते हैं, जिसके एवज में उन्हें 2.5 प्रतिशत के आसपास कमीशन मिल जाता है। सरकार इन आढ़तियों को किसानों के लिए हानिकारक होने का तर्क दे रही है। 

वहीं आयोग कह रहा है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान जैसे राज्यों में खरीद प्रणाली मजबूत की जानी चाहिए। यह खरीद प्रणाली सरकार कैसे मजबूत करेगी और अगर ओपन एंडेड खरीद बंद कर दी जाती है तो कितनी सरकारी खरीद हो पाएगी, यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद बंद करने का किसानों का डर मुख्य रूप से इसी रिपोर्ट की वजह से है।

एमएसपी

आयोग ने 2021-22 के लिए रबी की फसल गेहूं, जौ, चना, मसूर, सरसों और सूरजमुखी और 2020-21 की खरीफ की फसलों धान, ज्वार, बाजरा, रागी, मक्का, अरहर, मूंग, उड़द, मूंगफली, सूरजमुखी, सोयाबीन, तिल, रामतिल, कपास के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की सिफारिश कर दी है। यह मूल्य इन विपणन मौसमों में किसानों की फसल उगाने पर आने वाली संभावित लागत के आधार पर तय की जाती है।

समस्या यह है कि जिन अनाजों की सरकारी खरीद नहीं हो रही है, उनके दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य से बहुत कम रहते हैं। बिहार का उदाहरण लें तो राज्य में मक्का न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधे भाव पर बिक रहा है।

मंडी, कृषि उत्पाद विपणन समितियों (एपीएमसी) से मुक्त कर किसानों को खुले बाज़ार में बिक्री का कथित अधिकार देने वाली सरकार से किसान मांग कर रहा है कि एमएसपी पर खरीद सुनिश्चित कराई जाए। किसानों की यह मांग जायज भी है कि उन्हें लागत के मुताबिक़ फसल के दाम मिलें।

लागत में बढ़ोतरी

खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित रहे, इसे देखते हुए विश्व के क़रीब सभी देश किसानों को सहूलियतें देते हैं, जिससे अनाज की कमी न होने पाए। यह खाद, बीज, सिंचाई, कम कर, बड़े पैमाने पर मशीनीकरण आदि की सुविधा के रूप में दिया जाता है। वहीं भारत में किसानों के उत्पादन लागत में लगातार बढ़ोतरी हो रही है।

सरकार आखिर किसानों पर अहसान क्यों कर रही है जिस तरह से कारखाने अपने उत्पादन पर 30-40 प्रतिशत या तमाम मामलों में उससे भी ज़्यादा लाभ लेकर अपने उत्पाद बेचते हैं, उसी तरह किसानों को भी बेचने का मौका दिया जाए।

सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुताबिक़ खरीद हो और उसके बाद किसानों को जो भी लाभ होता है, सरकार उस पर कर भी ले, किसान खुशी खुशी दे देंगे। किसानों को किसी सब्सिडी की ज़रूरत ही नहीं है।

सरकार की चालाकी

दरअसल सरकार की समस्या संतुलन न साध पाना है। वह कम मजदूरी पर लोगों से काम भी कराना चाहती है। ऐसे में सरकार कम मजदूरी पाने वालों को सस्ता राशन देने की कवायद करती है, जिससे वे जिंदा रह सकें और फैक्टरियों को सस्ते मजदूर मिल सकें।

सरकार किसानों से अनाज खरीदती है, जिससे वह सस्ते में मजदूरों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से अनाज दे सके। सरकारी खरीद से वह किसानों के ऊपर अहसान लादने की कवायद करती है, कि वह उन्हें उचित दाम दे रही है।

पीडीएस का सस्ता अनाज देकर वह मजदूरों व गरीबों पर अहसान लादने की कवायद करती है। न तो किसान को उसका उचित मेहनताना मिल रहा है, न मजदूर को। इस संतुलन के चक्र में केवल एक लाभार्थी उद्योगपति ही रह जाता है। अब सरकार ने कृषि को भी उद्योगपतियों के हवाले कर दिया है, जिससे मजदूर, किसान दोनों उसके मुताबिक चल सकें। किसानों का असल दर्द यहीं से शुरू हो रहा है।

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