क्या धर्मांतरण कानून धर्मांतरण रोकने में वाक़ई सफल होगा?
क्या धर्मांतरण कानून लोगों को धर्मांतरण करने से रोकने में वाक़ई सफल होगा? यह सवाल फ़ैज़ान मुस्तफा अंग्रेजी में लिखे अपने एक लेख में पूछते हैं। वह इसका जवाब भी देते हैं। वह कहते हैं, 'हममें से बहुत से लोग इस बात से अवगत नहीं हैं कि आज़ादी से पहले भी कई हिंदू रियासतों में धर्मांतरण विरोधी क़ानून थे, जैसे रायगढ़, बीकानेर, कोटा, जोधपुर, सरगुजा, पटना, उदयपुर और कालाहांडी में। उड़ीसा (1967), मध्य प्रदेश (1968), अरुणाचल प्रदेश (1978) राज्यों ने भी 1960 के दशक में इसी तरह के क़ानून पारित किए। अरुणाचल प्रदेश के क़ानून को कभी लागू नहीं किया गया।' इस पर वह एक सवाल रखते हैं कि आख़िर ये कानून जबरन धर्मांतरण को रोकने में सक्षम कैसे नहीं हुए?
उनका यह लेख उस संदर्भ में है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने इसी हफ़्ते देश में जबरन धर्मांतरण के मुद्दे पर चिंता जताई है और केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। अदालत ने सोमवार को कहा था कि जबरन धर्म परिवर्तन एक बेहद गंभीर मुद्दा है। इसने केंद्र सरकार से कहा है कि ऐसे मामलों को रोकने के लिए क़दम उठाया जाए। इसके साथ ही इसने हलफनामा दाखिल करने को भी कहा है।
सुप्रीम कोर्ट उस याचिका पर सुनवाई कर रहा था जिसमें केंद्र और राज्यों को निर्देश देने की मांग की गई थी कि धमकाकर या लोगों को उपहार और पैसे का लालच देकर जबरन धर्मांतरण के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए।
इस फ़ैसले को लेकर वह लिखते हैं कि शायद सुप्रीम कोर्ट के जजों के दिमाग में विवेकानंद का वह कथन हो जिसमें उन्होंने 1893 में विश्व धर्म संसद में अपने प्रसिद्ध संबोधन में कहा था, 'ईसाई को हिंदू या बौद्ध नहीं बनना है, न ही हिंदू या बौद्ध को ईसाई बनना है। लेकिन प्रत्येक को दूसरों की भावना को सम्मान करना चाहिए और फिर भी अपनी वैयक्तिकता को बनाए रखना चाहिए और विकास के अपने नियम के अनुसार बढ़ना चाहिए।' बता दें कि न्यायमूर्ति एमआर शाह और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने कहा था कि जबरन धर्मांतरण आख़िरकार राष्ट्र की सुरक्षा और धर्म की स्वतंत्रता और नागरिक की अंतरात्मा को प्रभावित कर सकता है।
द इंडियन एक्सप्रेस में लिखे लेख में फैज़ान मुस्तफा लिखते हैं, "जो लोग राष्ट्रीय स्तर पर धर्मांतरण विरोधी क़ानूनों का समर्थन करते हैं, वे अक्सर 1977 के रेव स्टैनिस्लास बनाम मध्य प्रदेश राज्य में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का सहारा लेते हैं। उसमें यह माना गया था कि एमपी फ्रीडम ऑफ़ रिलिजन एक्ट, 1968 और उड़ीसा फ्रीडम ऑफ रिलिजन एक्ट, 1968 ये दोनों अधिनियम धर्म के प्रचार में बाधक होने पर भी संवैधानिक थे। यह माना गया कि 'धर्म का प्रचार करने का अधिकार' का अर्थ 'धर्मांतरण का अधिकार' नहीं है।" वह यह भी लिखते हैं कि धर्म का प्रचार कहाँ ख़त्म होता है और धर्मांतरण कहाँ शुरू होता है, कहना मुश्किल है।
फैज़ान लिखते हैं कि इस निर्णय के कारण पिछले 20 वर्षों में राजस्थान, गुजरात, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, यूपी, उत्तराखंड जैसे एक दर्जन से अधिक राज्यों ने कड़े धर्मांतरण या 'लव जिहाद' क़ानून पारित किए।
वह लिखते हैं कि हिमाचल प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने भी ऐसा क़ानून बनाया था। वहाँ के मुख्यमंत्री ने विधानसभा को बताया था कि चार साल में क़रीब 500 लोगों का धर्मांतरण हुआ है। कोई नहीं जानता कि उनमें से कितने स्वैच्छिक थे और कितने वास्तव में जबरन धर्मांतरण थे? लेकिन क्या ये इतनी बड़ी संख्या है?
द इंडियन एक्सप्रेस के अपने लेख में फ़ैज़ान मुस्तफा पूछते हैं कि इन क़ानूनों के तहत दायर मामलों और अदालतों द्वारा दी गई सजा का आँकड़ा कहाँ है? यदि राज्य के क़ानून सफल नहीं हुए हैं, तो इस बात की क्या गारंटी है कि एक केंद्रीय कानून जबरन धर्मांतरण को समाप्त कर देगा? वह लिखते हैं, 'जनवरी 2021 में मध्य प्रदेश ने एक कड़ा अध्यादेश लाया और पहले 23 दिनों के भीतर जबरन धर्मांतरण के आरोप में 23 मामले दर्ज किए गए। उनमें से किसी को भी सजा नहीं हुई है। यूपी के कानून के तहत 16 मामलों में निचली अदालत ने सिर्फ एक को सजा सुनाई है। छत्तीसगढ़ में, रायगढ़ की एक अदालत ने 2002 में दो पुजारियों और एक नन को 22 लोगों के जबरन धर्म परिवर्तन के आरोप में दोषी ठहराया था।' उन्होंने आगे लिखा है, 'लेकिन अदालत ने धर्मान्तरित लोगों की जिला अधिकारियों के सामने लिखित गवाही को कोई महत्व नहीं दिया था कि उन्होंने अपनी मर्जी से अपना धर्म बदल लिया था।' उन्होंने लिखा है कि इसी तरह, हिंदू धर्म में धर्मांतरण की घटनाएँ भी हुई हैं। 2014 में 200 से अधिक सदस्यों वाले 57 मुस्लिम परिवारों ने आगरा में हिंदू धर्म अपना लिया। 2021 में हरियाणा में 300 मुसलमानों ने हिंदू धर्म अपना लिया। फैज़ान मुस्तफा लिखते हैं, "...लेकिन आश्चर्यजनक रूप से ये सभी क़ानून इस धर्मांतरण को धर्मांतरण नहीं मानते हैं। बल्कि उन्हें 'घर वापसी' कहा जाता है।"
वह कहते हैं कि इन क़ानूनों के साथ दूसरी समस्या धर्म की स्वतंत्रता क़ानून को लेकर है। वह कहते हैं कि ये क़ानून धर्मांतरण के लिए अधिकारियों की पूर्व अनुमति लेने को कहते हैं जो कि एक निजी मामला है जिसके साथ राज्य का कोई सरोकार नहीं होना चाहिए।
वह कहते हैं कि, 'ये कानून भी समस्याग्रस्त हैं क्योंकि ये सभी पुराने आधार पर अधिनियमित किए गए थे कि महिलाएँ, एससी और एसटी कमजोर हैं, उन्हें सुरक्षा की ज़रूरत है और वे अपने जीवन में महत्वपूर्ण निर्णय खुद नहीं ले सकती हैं।'
फ़ैज़ान लिखते हैं कि "धर्मांतरण बीजेपी के एजेंडे में रहा है और इसके ख़िलाफ़ क़ानून उसके घोषणा पत्र में रहा है। 2006 में लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि 'हम धर्मांतरण के अभियान की कड़ी निंदा करते हैं, जो हिंदू समाज और राष्ट्रीय एकता के लिए भी गंभीर ख़तरा पैदा करता है… यह बेहद ख़राब है कि प्रलोभन के माध्यम से और जबरन व्यवस्थित तरीक़े से धर्म परिवर्तन किया जाता है।' आरएसएस से जुड़े साप्ताहिक, ऑर्गनाइज़र ने 'अमेज़िंग क्रॉस कनेक्शन' शीर्षक वाली एक स्टोरी प्रकाशित की है, जिसमें अमेज़ॅन पर पूर्वोत्तर में ईसाई धर्मांतरण के लिए वित्तपोषण करने का आरोप लगाया गया है।"
सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फ़ैसले के संदर्भ में फ़ैज़ान लिखते हैं, 'न्यायमूर्ति शाह की चिंताएँ वास्तविक लगती हैं, क्योंकि न केवल पूर्वोत्तर या आदिवासी क्षेत्रों में बल्कि पंजाब के मैदानी इलाकों में भी लोग बड़ी संख्या में ईसाई धर्म की ओर आकर्षित हो रहे हैं। रामजीत सिंह, नौसेना से सेवानिवृत्त होने के बाद फर्स्ट बैपटिस्ट चर्च का हिस्सा बन गए हैं और वह भारी भीड़ जुटा लेते हैं। चर्च ऑफ़ साइन्स एंड वंडर्स के अंकुर यूसुफ नरूला और द ओपन डोर चर्च एंड जीसस हीलिंग मिनिस्ट्री के हरप्रीत देओल की भी ऐसी ही लोकप्रियता है। जीसस दा लंगर लोकप्रिय हो रहा है। लेकिन, राष्ट्रीय स्तर पर ईसाईयों की संख्या में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है, हालाँकि कुछ गाँवों-आदिवासी क्षेत्रों में उनकी संख्या में वृद्धि हुई है। ईसाई देश की आबादी का महज 2.3 फीसदी हैं लेकिन नागालैंड, मिजोरम और मेघालय में उनकी संख्या बहुसंख्यक है। PEW के निष्कर्षों के अनुसार, केवल 0.4 प्रतिशत हिंदू वयस्क ईसाई में धर्मांतरित हैं।'