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'मुझे एग्ज़िट पोल के नतीजों पर क़तई भरोसा नहीं'

'मुझे एग्ज़िट पोल के नतीजों पर क़तई भरोसा नहीं'

अगर आर्थिक मोर्चे पर सरकार के नाकाम रहने के बाद भी चुनाव नतीजे एग्ज़िट पोल के मुताबिक़ आते हैं तो समझना चाहिए कि देश नरेंद्र मोदी नाम के एक जादूगर के इशारे पर नाचता है।

23 तारीख़ को जब तक चुनाव के नतीजे नहीं आ जाते तब तक मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ कि भारतीय जनता पार्टी और एनडीए को 300 से ज़्यादा सीटें मिल रही हैं, जैसा कि तमाम एग्ज़िट पोल बताने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ एग्ज़िट पोल तो इतने उत्साह में दिखे कि उन्होंने एनडीए को 350 से ज़्यादा सीट मिलने की बात कही। उनके आंकड़ों से ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी के नाम से कोई आंधी नहीं बल्कि सुनामी चल रही थी। जिसने तमाम विपक्षी दलों के तंबू उखाड़ दिए, घर बर्बाद कर दिए और इमारतें धराशायी हो गईं।

साथ ही, सारे के सारे राजनीतिक पंडित और विश्लेषक परले दर्जे के बेवकूफ़ साबित हुए। अगर 23 तारीख़ को यही नतीजे आते हैं तो फिर यह समझ लेना चाहिए कि हिंदुस्तान पूरी तरीके़ से बदल गया है और वह नरेंद्र मोदी नाम के एक जादूगर के इशारे पर नाचता है। मैं फिलहाल, यह मानने को तैयार नहीं हूँ कि हिंदुस्तान को कोई अपनी उंगलियों पर नचा सकता है।मुझे, एग्ज़िट पोल के इन आंकड़ों पर क़तई यकीन नहीं है और इसके अपने कारण हैं। यह बात सच है कि पिछले 5 सालों में देश में काफ़ी बदलाव आया है। देश एक नई दिशा में निकलने को तैयार हो गया लगता है। लेकिन यह देश उसी दिशा में अंत में जाएगा, अभी यह बात पूरी तरीक़े से साफ़ नहीं है। 

यह सच है कि 2014 के बाद एक ऐसा हिंदू समाज उठ खड़ा हुआ है जिसे ख़ुद को हिंदू कहने पर कोई संकोच नहीं है और वह बड़े गर्व से अपने हिंदू होने की बात कहता है।

एक ऐसा भी समय था जब लोग अपने को खुलकर हिंदू कहलाने पर संकोच करते थे। उन्हें लगता था कि कहीं उन्हें सांप्रदायिक न समझ लिया जाए। यह वह वक़्त था जब देश का विमर्श वामपंथ के हाथ में था और धार्मिक पहचान महत्वपूर्ण नहीं हुआ करती थी। हर आकलन या विश्लेषण के लिए आर्थिक आधार को महत्व दिया जाता था। लेकिन राम मंदिर आंदोलन के समय से ही हिंदू समाज का एक तबक़ा अपने आप को गर्व से हिंदू कहलाना पसंद करने लगा।

लाल कृष्ण आडवाणी को इस बात का क्रेडिट मिले या न मिले लेकिन हिंदू मानस को इस स्थिति तक लाने में उनकी बड़ी भूमिका रही है। 2014 के बाद नरेंद्र मोदी ने हिंदू मानस की इस सोच को एक नई ऊँचाई दी और उसमें आक्रामकता के नए संस्कार डाले।

तैयार हुआ हिंदू वोट बैंक

मोदी के आने के बाद हिंदू को न केवल अपने हिंदू होने पर गर्व है बल्कि वह एक 'राजनीतिक मानव' में भी तब्दील हो गया। हिंदू होना न केवल उसकी धार्मिक पहचान बन गई बल्कि इस धार्मिक पहचान को उसने एक राजनीतिक वोट बैंक में तब्दील कर दिया। और इस तरह से एक बड़ा हिंदू वोट बैंक तैयार हो गया वैसे ही जैसे कि आज़ादी के बाद एक मुसलिम वोट बैंक बन गया था।  
लेकिन यह कहना कि हिंदुस्तान की आबादी का 80 फ़ीसदी हिंदू पूरी तरीक़े से वोट बैंक में तब्दील हो गया है, ग़लत होगा। अभी भी हिंदू समाज का एक बड़ा तबक़ा बीजेपी के साथ नहीं जुड़ा है। दलितों और पिछड़ों का एक बड़ा वर्ग विपक्षी दलों में अपनी भूमिका तलाश रहा है। ऐसे में यह मानना कि नया बना हिंदू वोट बैंक भारतीय जनता पार्टी को 300 से ज़्यादा सीटें दिला पाएगा, यह बात गले नहीं उतरती।

मेरा अपना मानना है कि उत्तर भारत में यह हिंदू वोट बैंक काफ़ी प्रभावी है लेकिन पश्चिम-दक्षिण और पूर्वोत्तर के राज्यों में इसका असर या तो नहीं है या आंशिक है।

आर्थिक हालात ख़राब, बेरोज़गारी बढ़ी

दूसरा, यह बात भी गले नहीं उतरती कि नया बना हिंदू वोट बैंक आर्थिक मजबूरियों को पूरी तरीके़ से नकार देता है। 2014 के बाद से देश की अर्थव्यवस्था में काफ़ी गड़बड़ी आई है। बेरोज़गारी भयानक तौर पर बढ़ी है। एनएसएसओ के मुताबिक़, बेरोज़गारी के आंकड़े पिछले 45 सालों में सबसे ऊँचे पायदान पर हैं। सीएमआई के मुताबिक़, अप्रैल के तीसरे हफ़्ते में बेरोज़गारी का आंकड़ा 8.4% था। हालाँकि सरकार यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि बेरोज़गारी बढ़ी है और एनएसएसओ और सीएमआई के आंकड़े सही हैं। सरकार ने रोज़गार के आंकड़े देना भी बंद कर दिया है और इस हद तक कुतर्क दिया जा रहा है कि पकौड़े बेचना भी रोज़गार है।

बेरोज़गारी के साथ-साथ, औद्योगिक उत्पादन में भी गिरावट आई है। मैन्युफ़ैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर का बुरा हाल है। गाँव-देहात में ख़पत में कमी आई है और लोगों की क्रय शक्ति कम हुई है। हाल ही में ऑटो सेक्टर में आई मंदी इस बात का ताज़ा प्रमाण है। मारुति कारों की बिक्री में 20 प्रतिशत की कमी आई है। सैकड़ों कार डीलरों ने अपनी दुकानें बंद कर दी हैं या बंद करने की कगार पर हैं।

आयात-निर्यात में भी कमी आई है और विदेशी पूँजी निवेश बिलकुल नहीं बढ़ रहा है। तमाम अर्थशास्त्री यह आशंका जता रहे हैं कि देश एक बड़ी मंदी के दौर की तरफ़ बढ़ रहा है जो अर्थजगत के लिए एक बुरी ख़बर है और आम आदमी भी इससे परेशान है।

यह वही मोदी थे जिन्होंने 2014 में हर साल 2 करोड़ रोज़गार देने का वादा किया था और हिंदुस्तान के हर व्यक्ति को यह भरोसा दिलाया था कि उनकी परेशानियाँ चुटकी बजाते ही हल हो जाएँगी। लेकिन 5 साल बाद चुनाव के दौरान मोदी जी बदले-बदले से नज़र आए। न उन्होंने रोज़गार की बात की और न ही उन्होंने कहा कि देश आर्थिक सुपर हाईवे पर सरपट दौड़ रहा है। यह दावे ज़रूर किए गए कि भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से भागने वाली अर्थव्यवस्था है। लेकिन उसके जीडीपी के आंकड़े भी अब संदेह के घेरे में आ गए हैं क्योंकि यह ख़ुलासा हुआ है कि जिन कंपनियों के आधार पर जीडीपी निकाली गई उनमें से 39 फ़ीसदी कंपनियाँ फ़र्जी हैं।

ऐसे में यह कह पाना बहुत मुश्किल होगा कि आम आदमी मोदी के कार्यकाल में इतना ख़ुश हो गया है कि उसने छप्पर फाड़ के बीजेपी को वोट दिया है। एग्ज़िट पोल करने वाले तो यह मान सकते हैं लेकिन मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं हूँ।

ईवीएम पर खड़े हुए सवाल

2017 में हुए पंजाब विधानसभा के चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी ने ईवीएम पर तगड़े सवाल खड़े किए थे और इसके कुछ दिनों बाद विपक्षी पार्टियों ने राष्ट्रपति को ज्ञापन भी दिया था और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल यह कहा है कि 5 प्रतिशत नतीजों का मिलान वीवीपैट से किया जाए। हालाँकि विपक्ष की माँग थी कि आधे वोटों का मिलान वीवीपैट से होना चाहिए और ज़रूरी हो तो एक बार फिर बैलट पेपर से ही चुनाव कराये जाएँ। लेकिन अगर एग्ज़िट पोल के नतीजे ही 23 तारीख़ को आते हैं तो ईवीएम का भूत एक बार फिर खड़ा हो जाएगा और फिर यह चर्चा गरम होगी कि क्या मशीनों में गड़बड़ी तो नहीं थी।

देश के लोकतंत्र के लिए यह अच्छी ख़बर नहीं होगी। सरकार बीजेपी की हो या कांग्रेस की या फिर तीसरे मोर्चे की, लोकतंत्र में लोगों की आस्था किसी भी तरीक़े से कम नहीं होनी चाहिए लेकिन अगर आर्थिक मोर्चे पर सरकार के नाकाम रहने के बाद भी चुनाव नतीजे ऐसे आते हैं जिस पर लोगों को स्वाभाविक रूप से विश्वास नहीं होता तो फिर पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही संदेह के घेरे में आ जाती है।

मैं, किसी भी निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले 23 मई को आने वाले चुनाव परिणामों को देखना पसंद करूंगा और फिर उसके बाद यह कहने की स्थिति में रहूँगा कि क्या राजनीतिक पंडित ग़लत थे जो जनता का मूड भांपने में नाकाम रहे या फिर कुछ दूसरे बाहरी कारण चुनाव को प्रभावित कर रहे थे।

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