अमृत महोत्सव: तब सिनेमा भी प्रधानमंत्री से सवाल पूछता था!
भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने के मौके पर सरकारी देशभक्ति, राष्ट्रवाद के शोरशराबे और उत्साह के बीच देश की विकास यात्रा को समझने के लिए हिंदी सिनेमा एक दिलचस्प नज़रिया और बहुत कारगर ज़रिया है। भारत जैसे देश में जहाँ हर साल हज़ारों फिल्में बनती हैं, जहाँ फिल्म कलाकारों को लेकर दीवानगी का एक अलग ही आलम रहता है, जहाँ फिल्मी संवाद और गाने हमारे जीवन के हर मोर्चे पर, हर मौके पर हमारे साथ रहते हैं, वहाँ सिनेमा को सही मायने में साहित्य की ही तरह समाज का दर्पण कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे भी, सिनेमा मनोरंजन के आवरण में कहानी कहने की अपनी मूल प्रकृति में सभी पूर्ववर्ती कलाओं का संगम होने की वजह से अपने आविष्कार के समय से समाज से संवाद का सीधा और सशक्त माध्यम रहा है।
इससे शायद ही कोई इनकार करे कि एक अच्छी फिल्म समाज को स्वस्थ मनोरंजन देने के साथ साथ दर्शकों को अधिक मानवीय, संवेदनशील और समावेशी बनाती है और सजग नागरिक भी। हाल ही में सिनेमाघरों में पहुँची आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा इसकी सबसे ताज़ा मिसाल है। ऑस्कर से सम्मानित विदेशी फिल्म ‘फ़ॉरेस्ट गम्य’ का यह भारतीय रूपांतरण वैसे तो एक आम इनसान की कहानी है लेकिन यह आजादी के बाद के भारत के पचास वर्षों के महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनैतिक बदलावों, बदलते जीवन मूल्यों का एक आख्यान भी है जिसका संदेश प्यार है, मासूमियत है, इंसानियत है और जो बहुत सूक्ष्म तरीके से युद्ध और सांप्रदायिकता के खिलाफ भी संदेश देती है और कोई राजनीतिक बात न कहते हुए भी वर्तमान राजनीति पर टिप्पणी कर जाती है।
भारत में सिनेमा की शुरुआत ब्रिटिश राज में हुई थी 1913 में। आजादी मिली 1947 में। ब्रिटिश राज के दौरान भारतीय सिनेमा ने मूक फिल्मों से बोलती फिल्मों की तरफ तरक़्क़ी की। ‘आलम आरा’ के बाद फिल्मों में धड़ाधड़ संवाद, गीत-संगीत शुरू हुए और अंग्रेज़ों के जमाने में ही पंकज मलिक, कुंदनलाल सहगल जैसे गायक और संगीतकार उभरे जिन्होंने हिंदी सिनेमा को समृद्ध करने में अविस्मरणीय योगदान दिया। 40 के दशक में, जब आजादी की लड़ाई चरम पर थी, तब हिंदी सिनेमा अपने तरीके से लोगों को जागरूक कर रहा था। 1947 आते आते हिंदी सिनेमा ने कहानी कहने की तकनीक और कला का बहुत तेज़ी से विकास किया। तरह तरह की फिल्में बनने लगी थीं जिनमें सिर्फ पौराणिक या ऐतिहासिक विषय नहीं होते थे बल्कि उस समय देश और समाज की सामाजिक समस्याओं पर भी फ़िल्मकारों की नज़र थी और परदे पर उनसे जुड़ी कहानियाँ भी आ रही थीं।
अशोक कुमार ने 1936 में ‘जीवन नैया’ फिल्म से अभिनय यात्रा शुरू की थी और 1943 में उनकी फिल्म ‘क़िस्मत’ की छप्परफाड़ कामयाबी ने उन्हें हिंदी फिल्मों का पहला सुपरस्टार बना दिया था। फिल्म ने नायक का पारंपरिक प्रतिमान तोड़कर एंटी हीरो का साँचा गढ़ा जिसे जनता ने खूब पसंद किया और फिल्म की कमाई ने रिकॉर्ड बनाया। ‘किस्मत’ फिल्म का संगीत भी बहुत लोकप्रिय हुआ था। फिल्म का एक गाना आज भी देशभक्ति के गीतों में प्रमुखता से गिना जाता है- ‘आज हिमालय की चोटी पे चढ़ हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है।’ 1944 में दिलीप कुमार की पहली फिल्म ‘ज्वार भाटा’ आई थी। देव आनंद की पहली फिल्म 1946 में आई थी- ‘हम एक हैं’।
1947 में जब देश आज़ाद हुआ था तब फिल्म निर्माण के पाँच महत्वपूर्ण केंद्र थे- लाहौर (अब पाकिस्तान में), बंबई (अब मुंबई), कलकत्ता (अब कोलकाता), मद्रास (अब चेन्नई) और पूना (अब पुणे)। 1947 में आजादी के माहौल और बँटवारे की कड़वाहट के बीच तब के बंबई में ही सिर्फ हिंदी या हिंदुस्तानी में 114 फिल्में बनी थीं। इनमें से पाँच ऐसी थीं जिन्होंने तब टिकट खिड़की पर झंडे गाड़ दिये थे। दिलीप कुमार की पहली बड़ी हिट ‘जुगनू’ इसी साल आई थी जिसमें गायिका अभिनेत्री नूरजहां उनकी नायिका थीं। ‘जुगनू’ दिलीप कुमार और नूरजहां की इकलौती फिल्म बन कर रह गई क्योंकि बँटवारे के बाद नूरजहां पाकिस्तान चली गईं। उस साल नूरजहां की एक और फिल्म रिलीज़ हुई थी- ‘मिर्ज़ा साहिबां’। वह भी कमाई के मामले में कामयाब रही।
दिलीप कुमार के छोटे भाई नासिक खान की फिल्म ‘शहनाई’ ने भी उस साल अच्छी कमाई की थी। नासिर खान भी बँटवारे के बाद पाकिस्तान चले गये थे लेकिन वहाँ के हालात देखकर जल्द ही भारत लौट आए। ‘गंगा जमुना’ में उन्होंने दिलीप कुमार के छोटे भाई का किरदार निभाया था। ‘शहनाई’ का संगीत बेहद लोकप्रिय हुआ था। सी रामचंद्र की बनाई धुनें आज तक संगीत प्रेमियों के दिलों में बसती हैं। फिल्म का एक गाना- ‘आना मेरी जान, मेरी जान, संडे के संडे’ - आज तक गुनगुनाया जाता है।
1947 में ही रिलीज़ हुई एक और फिल्म ‘दर्द’ में उमा देवी का गाया गाना- ‘अफ़साना लिख रही हूँ दिले बेक़रार का, आँखों में रंग भर के तेरे इंतज़ार का’- आज भी सदाबहार पुराने गीतों में शुमार किया जाता है। उमा देवी को बाद में लोगों ने हास्य अभिनेत्री टुनटुन के नाम से जाना। टुनटुन अपने समय की बहुत कामयाब हास्य अभिनेत्री रहीं।’लाल सिंह चड्ढा’ में दिखीं बुजुर्ग अभिनेत्री कामिनी कौशल की एक हिट फिल्म ‘दो भाई’ भी 1947 में रिलीज़ हुई थी। राजकपूर पहली बार परदे पर हीरो बनकर आये। इसी साल केदार शर्मा के निर्देशन में फिल्म ‘नीलकमल’ में। उनके साथ नायिका थीं तब 16 साल की मधुबाला।
आज़ादी के फ़ौरन बाद सरकार ने 1949 में फिल्म्स डिवीज़न का गठन किया। 1952 में भारत में पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह हुआ था जिसमें इटली के निर्देशक विटारियो डिसिका की फिल्म ‘बाइसिकिल थीफ’ देखकर बिमल राय के मन में कसक उठी थी कि हम ऐसा सिनेमा क्यों नहीं बना सकते।
उसी रचनात्मक छटपटाहट ने ‘दो बीघा ज़मीन’ जैसी क्लासिक फिल्म को जन्म दिया।
आजादी के बाद लगभग बीस सालों का दौर हिंदी सिनेमा का भी स्वर्ण युग कहलाता है जिसमें मनोरंजन के साथ साथ क्लासिक सिनेमा भी रचा गया। एक नये, स्वतंत्र राष्ट्र का निर्माण हो रहा था, समाज में नयी चेतना थी, उमंग थी जिसे सिनेमा अपने तरीके से दर्ज कर रहा था और बँटवारे की तकलीफ़ों और सांप्रदायिक कड़वाहट भुलाकर लोगों को मिल जुलकर रहने का संदेश दे रहा था। फिल्म ‘धूल का फूल’ का गाना तब जितना प्रासंगिक था, उससे कहीं ज्यादा जरूरी आज लगता है- ‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इनसान की औलाद है इनसान बनेगा’। आज हिंदू मुसलमान की खाई पाटने के बजाय बढ़ाने के मक़सद से ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसी भड़काऊ फिल्म बनती है जिसका प्रचार सरकार के मुखिया करते हैं। यह फ़र्क़ आया है 75 साल की सियासत और सिनेमा में।
नेहरू युग के नायकों - दिलीप कुमार, राजकपूर और देव आनंद की तिकड़ी - ने अपने-अपने लुभावने अंदाज में नये भारत के समाज और सियासत की तस्वीर पेश कीं तो महबूब खान, बिमल रॉय, वी शांताराम, चेतन आनंद और गुरुदत्त जैसे प्रखर और संवेदनशील निर्देशकों ने लोकप्रिय सिनेमा के ढाँचे में गंभीर कहानियाँ भी कहीं। मिसाल के तौर पर आजादी के दस साल बाद, 1957 की दस प्रमुख फिल्मों की सूची बहुत दिलचस्प है। बिमल रॉय की टीम का हिस्सा रहे ऋषिकेश मुखर्जी ने स्वतंत्र निर्देशक के रूप में इस साल यानी 1957 में अपनी पहली फिल्म ‘मुसाफ़िर’ बनायी जिसमें दिलीप कुमार थे। तीन अलग-अलग कहानियों वाली इस फिल्म में दिलीप कुमार के अलावा किशोर कुमार, सुचित्रा सेन, उषा किरन भी थे। फ़िल्म में दिलीप कुमार ने लता मंगेशकर के साथ गाना भी गाया था। देवदास की भूमिका के बाद यह दिलीप कुमार की एक और दुखांत भूमिका थी जिसमें उनके किरदार की मौत हो जाती है।
1957 में ही दो और फ़िल्में ऐसी आई थीं जिन्हें सामाजिक फिल्म या फैमिली ड्रामा की श्रेणी में रखा जा सकता है। ये थीं राजकपूर और मीना कुमारी की फिल्म ‘शारदा’ और बलराज साहनी, नंदा, जगदीप की फिल्म ‘भाभी’। ‘भाभी’ में चित्रगुप्त के संगीत ने तहलका मचा दिया था। फिल्म आज शायद कम लोगों को याद हो लेकिन मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में उसका एक गाना - ‘चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देस हुआ बेगाना’ - आज भी सुपरहिट गिना जाता है।
संगीत शुरू से हिंदी फिल्मों की किस्सागोई का अहम हिस्सा रहा है। 1957 की टॉप फिल्मों का संगीत भी सुपरहिट रहा। शम्मी कपूर की फिल्म ‘तुमसा नहीं देखा’, देव आनंद की फिल्म ‘पेइंग गेस्ट’ और किशोर कुमार की फिल्म ‘आशा’ के गाने आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं। किशोर कुमार का गाया ‘ईना मीना डीका…’ कौन संगीत प्रेमी भूल सकता है!
एक ही साल में चार ऐसी फिल्में रिलीज़ हुई थीं जिन्हें न सिर्फ गीत-संगीत-कहानी-अभिनय-निर्देशन के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है बल्कि पूरी दुनिया में हिंदी सिनेमा के प्रतिनिधि के रूप में इन्हें याद किया जाता है। ये फिल्में थीं- ‘प्यासा’, ‘दो आँखें बारह हाथ’, ‘नया दौर’ और ‘मदर इंडिया’। इन सभी फिल्मों में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में उभर रहे नये भारत के समाज और सियासत के लिए स्पष्ट संदेश था।
नेहरू जिस समय देश दुनिया के हीरो बने हुए थे, उस समय गुरुदत्त और साहिर लुधियानवी ने ‘प्यासा’ फिल्म में उनकी सामाजिक नीतियों पर तीखा सवाल पूछते हुए उन्हें कटघरे में खड़ा कर दिया था - ‘जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहाँ हैं?’
नेहरू ने तब गुरुदत्त या साहिर लुधियानवी को बुलाकर उनसे कोई सफ़ाई नहीं माँगी थी न ही किसी सरकार समर्थक ने इनके खिलाफ कोई निंदा अभियान चलाया था। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ‘प्यासा’ को विश्व की सार्वकालिक सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में गिना जाता है।
‘मदर इंडिया’ में निर्देशक महबूब खान ने कृषि प्रधान भारत में सूदखोर महाजनों के शोषण के शिकार छोटे किसानों की करुण कथा एक स्त्री के माध्यम से बहुत प्रभावशाली ढंग से कही थी। नरगिस, सुनील दत्त और कन्हैया लाल का अभिनय एक मिसाल है। ‘दो आँखें बारह हाथ’ में वी शांताराम ने खूंखार क़ैदियों को प्रेम से सुधारने की कहानी पेश की तो ‘नया दौर’ में बी आर चोपड़ा ने मानव और मशीन के औद्योगिक द्वंद्व का समाधान दोनों के सह अस्तित्व में सुझाकर नेहरू की आर्थिक, औद्योगिक नीति का सिनेमाई रूपांतरण किया था।
ग़ौर करने की बात यह है कि ये चारों फिल्में व्यावसायिक तौर पर भी बेहद सफल रही थीं। करोड़ों की कमाई की थी इन फिल्मों ने। तब आर्ट फिल्म या समानांतर सिनेमा का दौर शुरू नहीं हुआ था। मुख्यधारा की मनोरंजन प्रधान फिल्में ही समाज को सचेत और जागरूक करने वाली बौद्धिक खुराक भी दे रही थीं।
हिंदी सिनेमा ने आजादी के बाद अपने 75 साल के सफ़र में सिर्फ दिल ही नहीं बहलाया, सवाल भी पूछे हैं। यह प्रवृत्ति अब थमती दिख रही है। अब नज़दीकियों के सियासी मतलब हैं। प्रधानमंत्री के साथ सेल्फ़ी खिंचवाना, उनसे पूछना कि आम काट कर खाते हैं या चूस कर। आज फ़िल्म वाले फिल्मों में भी सरकार की आलोचना से डरते हैं। जिनकी बातों में सरकार की आलोचना का हल्का सा भी पुट होता है, उनकी फिल्मों के बहिष्कार का शोर लगता है। आमिर खान की फिल्म ‘लाल सिंह चड्ढा’ के बायकॉट का तमाशा इसकी मिसाल है। सरकार की हाँ में हाँ न मिलाने वाले फ़िल्मकारों, कलाकारों के साथ सत्ता समर्थक समाज का यह व्यवहार भी 75 साल के सफ़र की एक तस्वीर है।