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नागरिकता क़ानून-एनपीआर के विरोध में 106 सेवानिवृत्त अफ़सरों ने लिखा खुला ख़त

नागरिकता क़ानून-एनपीआर के विरोध में 106 सेवानिवृत्त अफ़सरों ने लिखा खुला ख़त

नागरिकता संशोधन क़ानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाते हुए अब 106 सेवानिवृत्त अफ़सरों ने खुला पत्र लिखा है। उन्होंने एनपीआर और एनआरआईसी को ग़ैर ज़रूरी और बेकार बताया।

नागरिकता संशोधन क़ानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाते हुए अब 106 सेवानिवृत्त अफ़सरों ने खुला पत्र लिखा है। उन्होंने यह पत्र आम लोगों के नाम लिखा है। पत्र में उन्होंने लिखा है कि एनपीआर यानी राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और एनआरआईसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ़ इंडियन सिटीज़न ग़ैर ज़रूरी और बेकार की प्रक्रिया है जो लोगों के लिए मुश्किलें खड़ी करेगी। उन्होंने इस पत्र का शीर्षक ही ‘भारत को सीएए-एनपीआर-एनआरआईसी की ज़रूरत ही नहीं’ दिया है। इन पूर्व अफ़सरों में शामिल दिल्ली के पूर्व लेफ़्टिनेंट गवर्नर नजीब जंग, पूर्व कैबिनेट सचिव के.एम. चंद्रशेखर और पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला ने नागरिकों से आग्रह किया है कि वे नागरिकता अधिनियम, 1955 में राष्ट्रीय पहचान पत्र से जुड़ी धाराओं को निरस्त कराने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाएँ।

बता दें कि नागरिकता संशोधन क़ानून पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बाँग्लादेश के हिंदू, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध और ईसाई धर्म के लोगों को भारत की नागरिकता देने की बात करता है। मुसलिमों को इसमें शामिल नहीं किया गया है। इसी आधार पर कहा गया है कि यह क़ानून धार्मिक आधार पर भेदभाव करता है और यह संविधान में उल्लेखित धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन है। इस बीच अमित शाह ने पूरे देश में एनआरसी लागू करने की बात की और फिर एनपीआर की बात कही। एनआरसी और एनपीआर में लोगों से अपनी पूरी जानकारी के साथ ही माँ-बाप के जन्म और उनके जन्म स्थान की जानकारी देने की बात कही गई है। माना जा रहा है कि इससे लोगों को काफ़ी दिक्कतें होंगी और वे शायद ये कागजात नहीं दे सकें। इसी को लेकर विरोध हो रहा है।

सेवानिवृत्त अफ़सरों ने इन्हीं मुद्दों को उठाया है। उन्होंने पत्र में लिखा, ‘सीएए प्रावधानों की संवैधानिक वैधता के बारे में हमारी गंभीर चिंता है, जिसे हम नैतिक रूप से भी अपरिहार्य मानते हैं। हम इस बात पर ज़ोर देना चाहेंगे कि एक ऐसा क़ानून जो जानबूझकर मुसलिम धर्म को इसके दायरे से बाहर रखता है, भारत की आबादी के एक बहुत बड़े वर्ग में निश्चित तौर पर आशंकाओं को जन्म देगा।’

पत्र में कहा गया है कि ऐसे समय में जब देश में आर्थिक स्थिति पर सरकार को सबसे ज़्यादा ध्यान केंद्रित करना चाहिए, भारत ऐसी स्थिति को सह नहीं सकेगा जहाँ नागरिक और सरकार टकराव की स्थिति में हों।

इसमें यह भी कहा गया है कि न ही ऐसी स्थिति का होना ठीक है जहाँ अधिकांश राज्य सरकारें एनपीआर/एनआरआईसी को लागू करने के लिए इच्छुक नहीं हों, और न ही भारत जैसे संघीय देश में केंद्र-राज्य के संबंधों में गतिरोध पैदा होना।

बता दें कि कई राज्य सरकारें एनपीआर/एनआरआईसी को लागू करने से इनकार कर दिया है। हालाँकि इस विरोध के बीच एनआरसी पर गृह मंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी का बयान भी अजीब रहा है। अमित शाह पहले ही कह चुके हैं कि 'आप क्रोनोलॉजी समझिए, पहले नागरिकता क़ानून आएगा, फिर एनआरसी आएगी'। उनके इस बयान का साफ़ मतलब था कि एनआरसी और नागरिकता क़ानून जुड़े हुए हैं। यह इससे भी साफ़ है कि जब एनआरसी से लोग बाहर निकाले जाएँगे तो नागरिकता क़ानून के माध्यम से पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बाँग्लादेश के हिंदू, सिख, पारसी, जैन, बौद्ध और ईसाई धर्म के लोगों को भारत की नागरिकता दी जाएगी। 

इसी बीच प्रधानमंत्री मोदी ने 22 दिसंबर को दिल्ली में एक चुनावी रैली में कहा था कि 2014 में जब से उनकी पार्टी सरकार में आई है तब से एनआरसी को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई और इस पर 'झूठ फैलाया जा रहा है'।

सच्चाई यह है कि गृह मंत्री कई मौक़ों पर साफ़ कह चुके हैं कि पूरे देश में एनआरसी लागू की जाएगी। उन्होंने संसद में भी साफ़ तौर पर कहा था कि एनआरसी को पूरे देश में लागू किया जाएगा।

इस पर जब ज़बरदस्त विरोध हुआ तो इसी बीच मोदी सरकार ने एनपीआर को अपडेट करने की बात कह दी। हालाँकि एनपीआर यूपीए सरकार के दौरान ही शुरू किया गया था, लेकिन इस बार के एनपीआर में कुछ नई जानकारियाँ माँगी गईं। इसमें अपने माता-पिता के जन्म की तारीख़ और जगह की जानकारी भी थी। इसी को लेकर यह कहा जाने लगा कि सरकार एनपीआर के डाटा से एनआरसी लागू करने जा रही है। हालाँकि सरकार ने इसको खारिज कर दिया और कहा कि एनपीआर और एनआरसी में कोई जुड़ाव नहीं है। अमित शाह ने इसी बात को दोहराते हुए कहा कि एनपीआर के डाटा को कभी भी एनआरसी के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। 'द इंडियन एक्सप्रेस' के अनुसार, बाद में एक इंटरव्यू में क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि एनपीआर के लिए इकट्ठा किए गए 'कुछ' डाटा का इस्तेमाल एनआरसी के लिए किया भी जा सकता है और नहीं भी। 

लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार ही पहले कम से कम नौ बार कह चुकी है कि एनआरसी और एनपीआर जुड़े हुए हैं और एनपीआर के डाटा का इस्तेमाल एनआरसी के लिए किया जाएगा।

एनपीआर पर सरकार की लिखित रिपोर्ट

गृह मंत्रालय की 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट में भी कहा गया है कि ‘राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर पहले ज़िक्र किए गए क़ानून (नागरिकता अधिनियम) के प्रावधानों के तहत भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर यानी एनआरआईसी के निर्माण की दिशा में पहला क़दम है।’ नवंबर 2014 की शुरुआत में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजू ने राज्यसभा में भी वही बात कही थी- ‘एनपीआर हर आम नागरिक की स्थिति की पुष्टि करके भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरआईसी) बनाने की दिशा में पहला क़दम है।’

इसी कारण माना जा रहा है कि एनपीआर को एनआरसी के लिए तैयार किया जा रहा है। इसी को लेकर पश्चिम बंगाल और केरल जैसे राज्यों में एनपीआर का विरोध हो रहा है। केरल में तो एनपीआर अपडेट नहीं कराने को लेकर विधानसभा में प्रस्ताव भी पारित कर दिया। राज्य सरकारों के इस विरोध का भी सेवानिवृत्त अफ़सरों ने अपने पत्र में ज़िक्र किया है और इस पर चिंता भी जताई है। 

हम एक ऐसी स्थिति में जा रहे हैं, जहाँ भारत को अंतरराष्ट्रीय ख्याति खोने और अपने नज़दीकी पड़ोसियों को अलग होने का ख़तरा है, उप-महाद्वीप में सुरक्षा स्थिति के लिए प्रतिकूल परिणाम होंगे।


सेवानिवृत्त अफ़सरों का पत्र

सेवानिवृत्त अफ़सरों ने कहा, ‘देश में यह समस्या इसलिए और भी भयंकर है क्योंकि यहाँ जन्म के रिकॉर्ड का रखरखाव ख़राब है, जन्म पंजीकरण की प्रणाली भी बेहद अक्षम है।’

उन्होंने उत्तर प्रदेश में मुसलिमों के ख़िलाफ़ पुलिस कार्रवाई को लेकर भी चिंता जताई है। बता दें कि उत्तर प्रदेश में नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के दौरान काफ़ी ज़्यादा हिंसा हुई थी। यहाँ कम से कम 19 लोगों की मौत हो गई है।

नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ देश भर में प्रदर्शन हो रहे हैं। कई जगहों पर हिंसा भी हुई है। हिंसा की शुरुआत हुई थी। असम में। वहाँ पाँच लोग मारे गए। दक्षिण भारत में भी कई जगहों पर हिंसा हुई और कम से कम दो लोग मारे गए। दिल्ली के जामिया मिल्लिया इसलामिया विश्वविद्यायल और अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में भी हिंसा हुई और पुलिस ने बल का प्रयोग किया। इसके बाद देश भर के दूसरे विश्वविद्यालयों में भी ज़बरदस्त विरोध-प्रदर्शन हुए।

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