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ऊर्जा संकट से यूरोप में त्राहि-त्राहि, ऊर्जा स्वाधीनता ज़रूरी

ऊर्जा संकट से यूरोप में त्राहि-त्राहि, ऊर्जा स्वाधीनता ज़रूरी

यूरोप में मौजूदा ऊर्जा संकट का क्या सबक है? परमाणु संपन्न होकर ही देश की पूरी तरह सुरक्षा की जा सकती है? क्या सीमाओं की सुरक्षा से कम ज़रूरी है ऊर्जा व अर्थव्यवस्था का दबावों से मुक्त होना? 

यूरोप इन दिनों ऊर्जा के गंभीर संकट से गुज़र रहा है। ऊर्जा की बड़ी खपत वाले इस्पात, शीशा, जस्ता और एल्यूमीनियम के कारख़ानों को पता नहीं कि उन्हें उतने दामों पर गैस और बिजली मिल पाएगी या नहीं जितना वे चुका सकते हैं। लोगों को पता नहीं कि सर्दियों में वे अपने घरों को गर्म रख पाएँगे या नहीं। ब्रितानी कंपनी नेशनल ग्रिड ने चेतावनी दी है कि संकट गहराया तो सर्दियों में तीन घंटे की बिजली कटौती करनी पड़ सकती है।

यूरोपीय संघ के एक अधिकारी ने संघ के 27 सदस्य देशों में बिजली की कटौती की संभावना की बात की है और लोगों से गैस की खपत में 15 प्रतिशत कटौती करने को कहा है। जर्मनी, फ्रांस, इटली और स्पेन जैसे देशों ने बिजली की बचत के लिए रात को स्मारकों की रोशनी बंद करने और सार्वजनिक भवनों व दफ़्तरों की हीटिंग और कूलिंग को कम रखने के फ़ैसले लिए हैं। लोगों और उद्योग-धंधों से ऊर्जा की खपत में किफ़ायत बरतने की अपीलें की जा रही हैं। घरों, दफ़्तरों और सार्वजनिक इमारतों को ऊर्जा किफ़ायती बनाने के प्रयास भी हो रहे हैं ताकि उन्हें गर्म करने और ठंडा रखने में कम ऊर्जा ख़र्च हो।

ऊर्जा के इस संकट के दो पहलू हैं। एक तो यूरोप के गैस भंडार खाली थे। क्योंकि यूक्रेन पर हमला करने के बाद से रूस ने पर्याप्त मात्रा में गैस की सप्लाई नहीं की थी। अर्थव्यवस्था के लॉकडाउन से उबरने और गर्मी और सर्दी दोनों के बढ़ने से ऊर्जा की माँग में उछाल आया। ऊपर से अमेरिका और यूरोपीय संघ ने नए आर्थिक प्रतिबंधों में रूसी तेल के दामों की रियायती दर तय करने का फ़ैसला किया और बैंकों से कहा कि रूसी तेल रियायती दर से ऊँचे दामों पर न ख़रीदा जाए। इससे नाराज़ होकर राष्ट्रपति पुतिन ने यूरोप की गैस सप्लाई बंद कर देने की धमकियाँ दीं। हालाँकि यूरोपीय संघ कहता है कि अब उसने अपने गैस भंडार पूरी तरह भर लिए हैं जो सर्दियों के लिए काफ़ी रहेंगे। लेकिन रूसी गैस को यूरोप लाने वाली पाइपलाइनों में स्वीडन और डेनमार्क के तटों के पास छेद हो गए हैं जिनसे भारी मात्रा में गैस रिसाव हो रहा है। यूरोप ने रूस पर तोड़-फोड़ का आरोप लगाया है और रूस ने यूरोप पर। आशंका इस बात की है कि रूस की गैस सप्लाई बंद होते ही बाज़ारों में हड़कंप मच सकता है और ऊर्जा के दाम और ऊपर जा सकते हैं।

ऊर्जा संकट का दूसरा पहलू है गैस और बिजली के दामों का लोगों और उद्योग-धंधों की क्रयशक्ति से ऊपर चले जाना। पिछले साल भर में गैस के दाम बढ़कर सात गुना से ज़्यादा हो गए हैं। यूरोप की आधी से ज़्यादा बिजली गैस से बनती है इसलिए बिजली के दाम भी तेज़ी से बढ़े हैं। 

ब्रिटेन में औसत घरों का गैस और बिजली का सालाना बिल सवा लाख रुपए से बढ़ कर साढ़े चार लाख रुपया होने वाला था। सरकार ने लोगों और उद्योग-धंधों को ऊर्जा की महँगाई से बचाने के लिए गैस और बिजली की दरों की ऊपरी सीमा तय कर दी है। इससे गैस और बिजली कंपनियों को होने वाले घाटे की भरपाई सरकार करेगी। 

एक अनुमान के अनुसार यूरोपीय देशों की ऊर्जा के ख़र्च में दो लाख करोड़ डॉलर की बढ़ोतरी होने जा रही है। लोगों और उद्योग-धंधों को ऊर्जा की महँगाई से बचाने के लिए यूरोपीय संघ ने 14000 करोड़ डॉलर की राहत की घोषणाएँ की हैं।

लोगों और उद्योग-धंधों को ऊर्जा की कमरतोड़ महँगाई से बचाने की कोशिश में यूरोपीय सरकारों पर कर्ज़ का बोझ तेज़ी से बढ़ रहा है। ब्रिटेन का राष्ट्रीय कर्ज़ जीडीपी के 96 प्रतिशत को पार कर चुका है और यूरो मुद्रा वाले यूरोपीय देशों पर भी लगभग इतना ही कर्ज़ चढ़ चुका है।अमेरिका की स्थिति और भी ख़राब है क्योंकि वहाँ राष्ट्रीय कर्ज़ जीडीपी से सवा गुना हो चुका है। कर्ज़ का यह बोझ ऐसे समय में बढ़ रहा है जब इन देशों के केंद्रीय बैंक महँगाई पर अंकुश लगाने के लिए तेज़ी से ब्याज दरें बढ़ा रहे हैं। ब्याज दरें और कर्ज़ का बोझ बढ़ने से सरकारों को मिलने वाले नए कर्ज़ की दरें और भी तेज़ी से बढ़ रही हैं। इसकी वजह से ब्रितानी पाउंड, यूरो, चीनी युवान और भारतीय रुपए जैसी सभी प्रमुख मुद्राओं की क़ीमत डॉलर के मुकाबले तेज़ी से गिर रही है। महँगे होते कर्ज़ और मुद्रा की घटती क़ीमतें महँगाई की आग में घी का काम कर रही हैं। इस तरह दुनिया महँगाई पर अंकुश लगाने के उपायों की बदौलत बढ़ती महँगाई के दुष्चक्र में फँस गई है।

इस ऊर्जा संकट और महँगाई के दुष्चक्र का प्रधान कारण यूक्रेन पर पुतिन के हमले से छिड़ी लड़ाई है। पर वह एकमात्र और मूल कारण नहीं है। मूल कारण यूरोप की रूसी ऊर्जा पर निर्भरता है। यूरोप के देशों ने परमाणु अस्त्रों की ढाल से अपनी सीमाओं की रक्षा तो सुनिश्चित कर ली। पर अर्थव्यवस्थाओं की रक्षा के लिए संकट काल में ऊर्जा कहाँ से आएगी इसका प्रबंध नहीं किया और हरित ऊर्जा की राह पर निकल पड़े। ऊर्जा सप्लाई बंद करने की पुतिन की धमकियों ने यूरोप को सबक सिखाया है कि ऊर्जा की आत्मनिर्भरता या गारंटी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए परमाणु ढाल से भी ज़्यादा ज़रूरी है। क्योंकि ऊर्जा के बिना न अर्थव्यवस्था चल सकती है, न सेना और न उसके शस्त्रास्त्र।  

यूरोप अब तीन मोर्चों पर काम कर रहा है। तेल की तानाशाही से मुक्ति के लिए रूसी ऊर्जा पर निर्भरता को ख़त्म करना, परमाणु ऊर्जा पर पुनर्विचार करते हुए गैस के नए स्रोतों की तलाश करना और हाइड्रोजन ऊर्जा समेत हरित ऊर्जा के स्रोतों का तेज़ी से विकास करना। चेक गणराज्य की राजधानी प्राग में हुई सारे यूरोपीय देशों की शिखर बैठक में भी यूरोप की ऊर्जा निर्भरता दूर करने की चर्चा ही हावी रही और इन सारे उपायों पर विचार रखे गए।

हालाँकि भारत का ऊर्जा संकट यूरोप जितना गंभीर नहीं है। फिर भी भारत को यूरोप के अनुभव से सीखने की ज़रूरत है। रूस से रियायती दरों पर मिल रहे तेल के बावजूद भारत का वार्षिक ऊर्जा आयात बिल 5,25,000 करोड़ रुपए से बढ़कर 10,12,500 करोड़ रुपए हो चुका है।

हर साल देश की इतनी बड़ी दौलत खाड़ी के अरब देशों और रूस जैसे ऊर्जा निर्यातक देशों के पास जा रही है जिसे शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी क्षेत्रों के विकास में लगा कर भारत का कायाकल्प हो सकता है। प्रधानमंत्री ने भारत को अगले 50 वर्षों के भीतर यानी 2070 तक कार्बन शून्य बनाने का ऐलान किया है। भारत का प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन यूरोप और अमेरिका की तुलना में बहुत कम है इसलिए भारत को जल्दी से हरित ऊर्जा अपनाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। लेकिन भारत के शहरों की जलवायु इतनी ज़हरीली हो चुकी है कि अगले 50 वर्षों के इंतज़ार की कल्पना से ही मन सिहर उठता है।

भारत यदि अपने पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों और परमाणु, सौर, पवन और हाइड्रोजन जैसे हरित ऊर्जा स्रोतों के ज़रिए ऊर्जा स्वाधीनता हासिल कर ले तो वह अपनी बचत को नए हरित उद्योगों के विकास में लगा सकता है। हरित क्रांति ने भारत को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बनाया। आज ऊर्जा के क्षेत्र में उसी तरह की आत्मनिर्भरता की ज़रूरत है। क्योंकि ऊर्जा के बिना खेती भी संभव नहीं है। अमेरिका और चीन को पीछे छोड़ कर खाड़ी के देश भारत के सबसे बड़े व्यापार साझीदार बन गए हैं। खाड़ी देशों के साथ भारत का व्यापार 15,500 करोड़ डॉलर पार कर चुका है। इसमें 6,600 करोड़ डॉलर का व्यापार घाटा भी शामिल है जिसका मुख्य कारण ऊर्जा का आयात है। 

ऊर्जा की इस पराधीनता के कारण एक ओर तो भारत की दौलत खाड़ी देशों में जा रही है। दूसरी ओर उसे नूपुर शर्मा जैसे प्रकरणों पर तानाशाह देशों की बातें सुननी पड़ती हैं। आज के ज़माने में कोई भी देश ऊर्जा स्वाधीनता हासिल किए बिना सच्चे अर्थों में आर्थिक महाशक्ति नहीं बन सकता। इसीलिए अमेरिका ने लंबे प्रयासों के बाद ऊर्जा स्वाधीनता हासिल की। यूरोप के वर्तमान ऊर्जा संकट का सबक भी यही है।

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