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महाराष्ट्र के सरकारी अस्पतालों से आवश्यक जीवन रक्षक दवाएं गायब

महाराष्ट्र के सरकारी अस्पतालों से आवश्यक जीवन रक्षक दवाएं गायब

महाराष्ट्र के सरकारी अस्पतालों में आवश्यक जीवन रक्षक दवाइयां गायब हैं। एजेंसियां एक दूसरे पर जिम्मेदारी डाल रही हैं।

महाराष्ट्र के सरकारी अस्पतालों में आवश्यक जीवन रक्षक दवाएं गायब हैं। मरीजों को बाहर से दवाएं खरीदनी पड़ रही है। इंडियन एक्सप्रेस में सोमवार को प्रकाशित एक रिपोर्ट में राज्य के सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग के हवाले से बताया गया है कि कोविड मरीजों की एक तरफ कम हो रही है तो दूसरी तरफ गैर कोविड मरीजों की संख्या बढ़ रही है।

जे जे अस्पताल के एक वरिष्ठ डॉक्टर ने कहा, ज्यादातर मरीज महामारी के दौरान अस्पतालों में जाने से बचते रहे। अब, गंभीर रोगों वाले मरीज अस्पतालों में आ रहे हैं। इस वजह से हमने बेड भी बढ़ा दिए हैं।

महाराष्ट्र में दवाओं की खरीद के लिए नोडल संस्था, हाफकाइन बायो-फार्मा कॉरपोरेशन, मुंबई जरूरी दवाओं की अचानक वृद्धि का अनुमान लगाने में विफल रही और 2,500 से अधिक प्रकार की गैर-कोविड दवाओं की वार्षिक खरीद में देरी हुई। जिसकी वजह से सरकारी मेडिकल कॉलेजों (जीएमसी) से संबद्ध 18 सरकारी अस्पतालों में अब बुनियादी, जीवन रक्षक दवाओं तक की कमी है।

नतीजतन, अस्पताल डायबिटीज और हाई ब्लड प्रेशर के रोगियों का भी इलाज करने से इनकार कर रहे हैं। डोगरी के 57 वर्षीय बेरोजगार व्यक्ति हसन मेंहदी, जो पुराने डायबिटीज रोगी हैं, को दवा खरीदने के लिए 2,000 रुपये मासिक खर्च करने के लिए मजबूर किया गया है। उन्होंने बताया कि मुझे अपने रिश्तेदारों से आर्थिक मदद के लिए कहना पड़ा, ताकि मैं दवाई खरीद सकूं।

 

यवतमाल के सरकारी मेडिकल कॉलेज में महाराष्ट्र एसोसिएशन ऑफ रेजिडेंट डॉक्टर्स यूनिट ने पहले ही 22 मार्च को श्री वसंतराव नाइक जीएमसी के डीन को 34 महत्वपूर्ण दवाओं की सूची सौंप थी, जो मिलना बंद हो गई हैं। महीनों से आपातकालीन और आवश्यक दवाओं की कमी से जूझ रहे रेजिडेंट डॉक्टरों ने कहा कि उन्हें अस्पताल में मरीजों का इलाज करते समय कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

लातूर, अमरावती, धुले जैसे ग्रामीण जिलों में सरकारी अस्पतालों के मुफ्त इलाज और दवाओं पर निर्भर रहने वाले मरीजों की स्थिति और भी चिंताजनक है। 39 साल के धुले के रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता आमिर अली सिद्दीकी को हाल ही में रोटी बनाते समय हाथ में गंभीर जलन हुई थी। भाऊसाहेब हायर गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज (एसबीएचजीएमसी), धुले में जो वो इलाज के लिए गए तो उन्हें जो कुछ मिला, वह पेरासिटामोल था। उन्होंने बताया कि मुझे बाहर से दवाएं (एमोक्सिसिलिन, पैंटोप्राजोल और पॉलीविटामिन टैबलेट) खरीदने के लिए 650 रुपये खर्च करने पड़े।दवाओं के सीमित स्टॉक के कारण, अस्पतालों ने अपने डॉक्टरों से दवाओं के इस्तेमाल को 'तर्कसंगत' करने के लिए कहा है। यानी डॉक्टर कम से कम दवाइयां लिखें, इस वजह से डॉक्टर नैतिक दुविधा में पड़ गए हैं। यवतमाल के एक सरकारी अस्पताल के सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर ने कहा कि हमारे लिए तो सभी रोगी समान हैं। हमारे लिए यह नैतिक रूप से गलत है कि किसी मरीज को जरूरत पड़ने पर दवाओं के इस्तेमाल को कम करने को कहा जाए। लेकिन इन हालात हमें सिर्फ आपातकालीन रोगियों को सीमित दवा उपलब्ध कराने के लिए मजबूर किया जा रहा है और दूसरों को इसे बाहर से खरीदने के कहा जा रहा है। 

जब इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्टर ने जेजे अस्पताल के ओपीडी वार्ड का दौरा किया, तो कई मरीज और उनके रिश्तेदार दवा काउंटरों पर अस्पताल के कर्मचारियों के सामने दवाओं के लिए गुहार लगाते देखे गए। जबकि अस्पताल के एक कर्मचारी ने कहा कि हमें दवाओं के दैनिक आवंटन के लिए लक्ष्य दिए गए हैं। हम मरीजों की मदद करने के लिए इसे पार नहीं कर सकते क्योंकि हम जवाबदेह हैं।

पल्लवी सपले, डीन, जेजे अस्पताल ने कहा, वर्तमान में, हम कमी को संभालने के लिए स्थानीय स्तर पर दवाओं की खरीद कर रहे हैं। हमने हाफकाइन को जरूरी दवाओं की लिस्ट दे दी है। हमें उम्मीद है कि अगले 15 दिनों के भीतर हमें दवाएं मिल जाएंगी। साथ ही उन्होंने अस्पताल के दवा स्टोर विभाग को इसकी आवश्यकता की जानकारी पहले से ही देने का निर्देश दिया है।जेजे अस्पताल में दवा की कमी का मामला विधानसभा में भी पहुंचा। संपर्क करने पर, चिकित्सा शिक्षा मंत्री देशमुख ने डीन और मेडिकल कॉलेज अधीक्षकों को दवाओं के लिए अपनी मांग रखने में देरी के लिए जिम्मेदार ठहराया, जिससे संकट पैदा हो गया। मंत्री ने कहा कि अस्पतालों को सरकार को दवा खरीद के लिए अपनी मांग एडवांस में रखने की जरूरत है ... उन्हें और अधिक कुशल होने की आवश्यकता है। कई अस्पताल के डीन ने इस तरह के आरोपों का खंडन किया और कहा कि थोक दवा खरीदने में सरकारी एजेंसी नाकाम रही, जिससे कमी हुई। उन्होंने हाफकिन पर उंगलियां उठाईं।

संपर्क करने पर, हाफकिन बायो-फार्मा की चिकित्सा निदेशक डॉ माधवी खोडे चावरे ने कहा कि देरी के पीछे तकनीकी मुद्दे थे। कुछ मामलों में, टेंडर जारी करने के बावजूद, हम ऑर्डर नहीं दे सके क्योंकि कंसाइनिंग लिस्ट डीएमईआर के पास थी। उस सूची के बिना, मुझे आदेश देने के लिए मेडिकल कॉलेजों की आवश्यकताओं के बारे में पता नहीं था। इससे निपटने के लिए, राज्य ने पहली बार दवा खरीद को केंद्रीकृत पोर्टल-ई-औषधि से जोड़ा है। इससे हमें रीयल-टाइम अपडेट मिलेगा। हमने पिछले साल की सभी टेंडरिंग को मंजूरी दे दी है।

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