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प्यास से जूझते भारत में पर्यावरण चुनावी मुद्दा नहीं है

प्यास से जूझते भारत में पर्यावरण चुनावी मुद्दा नहीं है

देश में चुनाव का मौसम है। आम चुनाव एक बड़ा आयोजन होता है और इस बहाने तमाम मुद्दे विभिन्न पार्टियां जनता के बीच लाती हैं। लेकिन भारत में पर्यावरण को लेकर राजनीतिक दल संजीदा नहीं हैं। सत्तारूढ़ पार्टी पर इसकी सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है। लेकिन उस पार्टी को हिन्दू-मुसलमान करने से ही फुरसत नहीं मिलती। पश्चिम बंगाल के एक एनजीओ ने चुनाव से पहले ग्रीन मेनिफेस्टो जारी किया लेकिन राजनीतिक दलों की आंखें तब भी नहीं खुलीं। पढ़ कर खुद समझिए, क्या कहना चाहती हैं पत्रकार वंदिता मिश्राः

सिर्फ हमारे आसपास ही नहीं पूरी दुनिया बहुत तेजी से बदल रही है और यह बदलाव जलवायु में परिवर्तन की वजह से हो रहा है। आज के जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा कारक अट्ठारवीं शताब्दी के मध्य में शुरू हुई औद्योगिक क्रांति का परिणाम है जिसने धीरे धीरे समृद्धि, रोजगार और गरीबी मिटाने के नाम पर पूरी धरती के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया है। दुनिया के सारे देश इस मुद्दे पर बात कर रहे हैं, और यह बातचीत भी आधिकारिक रूप से 1972 के ‘यूनाइटेड नेशंस कॉन्फ्रेन्स ऑन ह्यूमन एनवायरनमेंट’ से शुरू हुई जो आज पेरिस समझौते(COP21,2015) तक पहुँच चुकी है। लेकिन परिणाम बताते हैं कि सरकारों ने बातें ज्यादा की हैं और काम बहुत कम किए हैं जबकि वक्त बहुत तेजी से हाथ से फिसल रहा है। अब यह मुद्दा आज की पीढ़ी के रहन सहन का नहीं रहा बल्कि अब यह भावी पीढ़ी के अस्तित्व से जुड़ गया है। इसलिए अब जरूरी है कि सभी राष्ट्र और सर्वोच्च अदालतें, पर्यावरण के मुद्दे को गंभीरता से लें और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा, जुमलों/वादों/घोषणाओं आदि के परे जाकर करें।  

वैश्विक स्तर पर इसमें ‘पहलें’ शुरू भी हुई हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) के नियमित प्रकाशन, ‘ग्लोबल क्लाइमेट लिटिगेशन रिपोर्ट’ 2023 के संस्करण में बताया गया कि दुनिया भर के 65 देशों की अदालतों, न्यायाधिकरणों और अन्य न्यायिक निकायों द्वारा जलवायु परिवर्तन के 2,180 मामले सुने गए हैं।

इस रिपोर्ट के 2020 वाले संस्करण में ऐसे मामलों की संख्या 1,550 थी जिसमें 39 देश शामिल थे, जबकि 2017 में यह आंकड़ा मात्र 884 मामलों का था जिसमें 24 देश शामिल थे। इससे यह मतलब निकलता है कि पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन को लेकर बढ़ती हुई चेतना अब लीगल समाधान की ओर बढ़ रही है। इसका यह भी अर्थ है कि सरकारें भले ही वैश्विक मंचों पर हो हल्ला मचाती हों लेकिन अपने-अपने देशों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचने के लिए उनके प्रयास अभी भी नाकाफ़ी ही हैं। दूसरी तरफ यह भी नज़र आ रहा है कि नागरिक अब सिर्फ चुनी हुई सरकारों से मांग नहीं कर रहे हैं बल्कि उन्हे अब ठोस कानूनी उपाय चाहिए जो जलवायु परिवर्तन के इस दौर में उनके जीवन के अधिकारों की गारंटी/आश्वासन दे सके।

लेकिन अभी बहुत कुछ बदलना बाकी है। सबसे पहले तो इस विचार को बदलना है कि समृद्ध और अमीर देशों के नागरिकों की अहमियत गरीब देशों के नागरिकों से अधिक है। क्योंकि यही आज के युग का यथार्थ है। चाहे चुनी हुई सरकारें हों यह बहुराष्ट्रीय कंपनियां गरीब देशों के नागरिकों के साथ सौतेला व्यवहार करने से बाज नहीं आते। UNEP की लिटिगेशन रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि अदालतों में सुने जा रहे ज्यादातर मामले यूरोपीय देशों और संयुक्त राज्य अमेरिका के हैं। 2023 की रिपोर्ट के 70% मामले सिर्फ USA से ही संबंधित हैं। विकासशील देशों में भी इस दिशा में काम हो रहा है पर यह पर्याप्त नहीं है। 2023 की रिपोर्ट में भारत में 11 मामलों की पहचान की गई, जिससे यह अधिकतम मामलों वाले देशों की सूची में 14वें स्थान पर आ गया है।

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष(UNFPA) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत 144.17 करोड़ की अनुमानित आबादी के साथ चीन को पछाड़कर विश्व स्तर पर सबसे आगे आ गया है। चीन की आबादी 142.5 करोड़ दर्ज की गई है। रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत की जनसंख्या अगले 77 वर्षों में दोगुनी हो जाने की उम्मीद है। भारत की 24% आबादी 0-14 आयु वर्ग में आती है। ऐसे में सबसे बड़ी जनसंख्या जिसमें सबसे ज्यादा युवाओं की संख्या होगी, उसको जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचाने के लिए जरूरी और आकस्मिक कदम उठाने ही होंगे।  

भारत ने तत्कालीन यूपीए-2 सरकार के दौरान नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल ऐक्ट, 2010 के माध्यम से पर्यावरण सुरक्षा के लिए समर्पित एक वैधानिक संस्था ‘नेशनल ग्रीन ट्राइब्यूनल’ का गठन किया था। इस संस्था की नींव में संविधान के अनुच्छेद-21 से प्रेरणा ली गई थी। अनुच्छेद-21 जीवन के अधिकार की बात करता है। जिसे सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णयों से विस्तारित करके स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार’ को भी जीवन का अधिकार मान लिया गया है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जलवायु परिवर्तन को लेकर एक आब्ज़र्वैशन प्रस्तुत किया गया है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाव को न सिर्फ एक मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी है बल्कि इसे समानता के अधिकार और जीवन के अधिकार के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया है।

एक ऐसे दौर में जब दुनिया जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों का अनुभव शुरू कर चुकी है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह बात कहे जाना बेहद दूरगामी साबित होगा। COP-21, पेरिस में दुनिया भर के नेताओं ने यह तय किया कि किसी भी तरह 21वीं सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान को 1.5°C तक सीमित रखने का प्रयास किया जाएगा, और किसी भी हालत में इसे 2°C से अधिक नहीं होने दिया जाएगा। 

यूरोपीय संघ की क्लाइमेट सर्विस के अनुसार वर्ष 2023 पिछले 200 सालों में पहली बार ऐसे साल के रूप में सामने आया है जब पूरे वर्ष में ग्लोबल वार्मिंग 1.5°C से अधिक हो गई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले 200 वर्षों में लगभग पूरी ग्लोबल वार्मिंग के लिए मनुष्य और उनके कारक जिम्मेदार हैं। वर्ष 2023 असाधारण सूखे, भीषण गर्मी और जानलेवा बारिश से भरा साल था। लेकिन यह आगे भी जारी रहने वाला है। पिछले सप्ताह संयुक्त अरब अमीरात में आया भयंकर तूफान, ओमान में हुई अकारण भारी वर्षा और पाकिस्तान में पिछले दो दशकों की सबसे भीषण बाढ़ ने कई लोगों की जान ले ली है।

खतरा लगातार बढ़ रहा है और लोग इसे लेकर संजीदा भी हो रहे हैं, कम से कम विकसित देशों की जनता तो अपने नेताओं से इस संबंध में सवाल पूछ रही है, अदालतों में जा रही है और यह सब शोध में सामने भी आ रहा है। प्यू रिसर्च सेंटर के एक नए सर्वेक्षण के अनुसार, दुनिया के सामने मौजूद कई खतरों में से, जलवायु परिवर्तन अभी भी सबसे बड़े खतरे के रूप में स्थापित है। उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया-प्रशांत क्षेत्र के 19 देशों के लगभग 75% नागरिक, वैश्विक जलवायु परिवर्तन को सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। अधिकांश लोग जलवायु कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। जलवायु नीतियों पर केंद्रित OECD के साल 2022 के सर्वेक्षण में भाग लेने वाले औसतन 80 प्रतिशत लोगों ने कहा कि "उनके देश को जलवायु परिवर्तन से लड़ना चाहिए।" इसी तरह, मार्केटिंग रिसर्च और कंसल्टिंग फर्म, इप्सोस(Ipsos) के 29 देशों के एक सर्वे में औसतन 66 प्रतिशत लोगों ने कहा कि "उनके देश को जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में और अधिक प्रयास करना चाहिए।" (2023)

इसी तरह जर्मनी में पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट ऑफ क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च के एक अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2050 तक दुनिया भर के देशों की आय में औसतन 19% की कमी होकर रहेगी। आर्थिक नुकसान का यह आंकड़ा भारत समेत तमाम दक्षिण एशिया के देशों और अफ्रीका में लगभग 22 प्रतिशत तक पहुँच सकता है। अध्ययन के अनुसार ये आर्थिक क्षति साल 2049 से सालाना लगभग 38 ट्रिलियन डॉलर की होगी। आश्चर्य यह है कि अध्ययन बताता है कि 38 ट्रिलियन डॉलर का यह आर्थिक नुकसान उन उपायों में आने वाली लागत से 6 गुना अधिक है जिनकी मदद से पृथ्वी का तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से नीचे रखा जा सकता है।

भारत में चुनावों का आयोजन चल रहा है। यहाँ के केयर टेकर प्रधानमंत्री खुद को बहुत आधुनिक और ‘अपग्रेडेड’  दिखाना चाहते हैं लेकिन वो रैलियों में कभी पानी की कमी, जल संकट से जूझते हुए भारत और अन्य किसी भी पर्यावरण के मुद्दे पर बात करते नहीं दिखेंगे जबकि हकीकत यह है कि सम्पूर्ण भारत प्यास से जूझ रहा है, धरती सूखी पड़ी है, खेती में नुकसान हो रहा है। क्या इन सब बातों को देश का प्रधान सुन रहा है? अगर सुन रहा होता तो निश्चित रूप से चुनावी रैलियों में उसकी चिंता जरूर झलकती। पर मुझे नहीं लगता उसे देश की ऐसी किसी भी समस्या से सीधे लेना देना है जो उसके वोट बैंक को प्रभावित नहीं करती हैं।

क्या देश के प्रधान को पता है कि केंद्रीय जल आयोग (CWC) द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, देश के प्रमुख जलाशयों और नदी घाटियों में कुल जल भंडारण एक दशक में दर्ज औसत भंडारण से भी कम हो गया है। 18 अप्रैल, 2024 को जारी CWC के साप्ताहिक अपडेट से पता चला कि मध्य और पूर्वी भारत को छोड़कर, अन्य सभी क्षेत्र - उत्तरी, पश्चिमी और दक्षिणी - इसी अवधि के लिए पिछले 10 वर्षों के औसत से कम जल स्तर पर हैं।


CWC, जो देश भर में 150 प्रमुख जलाशयों की निगरानी करता है, ने 56.085 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) का लाइव स्टोरेज दर्ज किया है, जो इन जलाशयों की कुल स्टोरेज क्षमता का मात्र 31 प्रतिशत है। पिछले हफ्ते कुल लाइव स्टोरेज 33 फीसदी था। अप्रैल के पहले हफ्ते में लाइव स्टोरेज 35 फीसदी था। मतलब साफ है कि जलाशयों में स्टोरेज लगातार कम होता जा रहा है।

इसीलिए मैं कहती हूँ की पर्यावरण चुनावी मुद्दा होना चाहिए। भारत प्यास से जूझ रहा है और कहीं कोई बात नहीं हो रही है। लेकिन पश्चिम बंगाल में कुछ अलग है। 2024 के आम चुनावों से पहले, पश्चिम बंगाल में एक राज्य-स्तरीय पर्यावरण मंच ने 32 पेज लंबा एक व्यापक ‘हरित घोषणापत्र’ और मांगों का चार्टर जारी करके सक्रिय रुख अपनाया है। लगभग 50 पर्यावरण संगठनों, कार्यकर्ताओं और विशेषज्ञों के समूह ‘सबुज मंच’ ने राजनीतिक दलों द्वारा जारी घोषणापत्रों में पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर जोर न दिए जाने पर असंतोष व्यक्त किया है। बात इतनी सी है कि यदि हमारे चुने हुए प्रतिनिधि सुनने को तैयार नहीं हैं, तो हमें क्या करना चाहिए? कई तरीके हो सकते हैं, मसलन- धरना, प्रदर्शन या फिर कानूनी समाधान, जिसकी बात लेख के शुरुआत में की गई है।

भारत में NGT और सुप्रीम कोर्ट पर्यावरण को बचाने और जलवायु परिवर्तन को लेकर सजग नजर आ रहे हैं। यद्यपि भारत में पर्यावरण को लेकर अदालतों में मामले कम हैं लेकिन न्यायपालिका की सजगता बेदाग है। हाल ही में 19 अप्रैल को जस्टिस एम एम सुंदरेश और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने तेलंगाना सरकार द्वारा जंगल की जमीन एक प्राइवेट व्यक्ति को देने के मामले में सरकार को नसीहत देते हुए कहा कि “ये जंगल की आत्मा ही है जो पृथ्वी को चलाती है”। जस्टिस सुंदरेश ने कहा कि “जंगलों का कम होना और खत्म होना अंततः जीव धारियों के सामूहिक विनाश को जन्म देगा”।

किसी भी प्राइवेट व्यक्ति को जंगलों को सौंपना राष्ट्र की संपत्ति का अवैध दोहन है जिसे स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।


सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि- जंगल, राष्ट्रीय परिसंपत्ति के साथ-साथ वित्तीय संपदा में योगदान देने वाला एक बड़ा कारक भी है। न्यायालय ने 2022-23 की आरबीआई की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि जलवायु परिवर्तन और इसकी वजह से होने वाले वर्षा के पैटर्न में बदलाव की वजह से 2050 तक भारत की जीडीपी को 2.8% तक नुकसान हो सकता है। इसके अलावा इसी अवधि तक भारत की आधी आबादी के रहन सहन के स्तर पर भी भारी दबाव पड़ने वाला है। यदि यही पैटर्न जारी रहता है और लगातार जंगल काट-काट कर प्राइवेट फैक्ट्रियां लगाने का क्रम जारी रहता है तो वर्ष 2100 तक भारत की जीडीपी को लगभग 10% तक का नुकसान झेलना पड़ेगा। 

जब 2.8% जीडीपी के नुकसान से आधी आबादी का रहन सहन प्रभावित हो सकता है तब जीडीपी के 10% के नुकसान के बाद भारत में कौन सा वर्ग बचेगा जिसके पास अच्छा रहन सहन रहेगा? यह बात समझी जा सकती है। इसलिए जरूरी है कि समय रहते पहल की जाए और सरकारें अपने उद्योगपति मित्रों को जमीने और जंगल उपहार में बांटने की संकल्पना का गला घोंट दें तो अच्छा है। लेकिन क्या सरकारें इस खतरे को लेकर संजीदा हैं? एक ताजा उदाहरण सरकार की संजीदगी पर प्रश्न उठाता है। 

गुजरात की भाजपा सरकार द्वारा एक कृषि भूमि को फाइव स्टार होटल के लिए दिए जाने का मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आया। गुजरात में मंडी समिति(APMC) की जमीन की नीलामी एक होटल बनाने के लिए कर दी गई, सुप्रीम कोर्ट ने आश्चर्य जताते हुए कहा कि ‘यह तो एक स्कैम है’। ऐसे सैकड़ों स्कैम इस देश में हो रहे हैं और चुनी हुई सरकारों की नाक के नीचे, उनकी सहमति से हो रहे हैं। वास्तविकता तो यह है कि भारत को 2047 का सपना दिखाने वाले नेता अपने ही झूठ में इतना अधिक लिपटे हुए हैं कि उनसे अब सड़ने की बू आने लगी है।

जब दुनिया और एक्सपर्ट 2050 तक जलवायु परिवर्तन और इसके प्रभावों की चर्चा और एक्शन में लगी हुई है तब भारत का नेतृत्व 2047 तक भारत के लोगों को हिन्दू मुस्लिम, मुस्लिमों की बढ़ती आबादी, सब्जी बनाम मछली जैसे मुद्दों तक ही समेट देना चाहता है। पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्प्रभाव अब ठोस चुनावी मुद्दा होना चाहिए। क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से सबसे ज्यादा प्रभावित गरीब और आम आदमी ही होने वाला है। उन लोगों के इससे प्रभावित होने की संभावना शून्य है जिनके पास अपना चिड़ियाघर खोलने, देश के पर्यावरण नियमों को अपने मर्जी से बदलने और देश के संसाधनों को अपने तरीके से इस्तेमाल करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। 

आम आदमी को संविधान से प्रदत्त जीवन का अधिकार- अनुच्छेद 21- कहीं लगातार खोता जा रहा है, इसे बचाए रखने की जरूरत है और इसमें भाषणबाजों और वादेबाजों पर बिल्कुल भरोसा नहीं किया जा सकता है। सिर्फ न्यायपालिका ही है जो सरकार, सत्ता, कुर्सी और लालच से परे जाकर नागरिकों के अधिकारों का संरक्षण कर सकती है। 

(स्तंभकार वंदिता मिश्रा जानी-मानी पत्रकार और लेखिका हैं) 

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