जग्गी वासुदेव जैसे गुरुओं को इतनी बात समझ क्यों नहीं आती?
“मुझे नहीं पता जिस चीज की मैं मांग कर रहा हूँ, वह कठिन है या नहीं, और शायद इसके लिए मुझे मरना भी पड़ सकता है”, ये शब्द उस पिता के हैं जो स्विस संसद के सामने भूख हड़ताल पर बैठे थे। 3 बच्चों के 47 वर्षीय पिता गुलमेरो फर्नांडीज पेशे से कंप्यूटर प्रोग्रैमर हैं जिन्होंने 1 नवंबर को अपनी नौकरी छोड़कर भूख हड़ताल शुरू की है ताकि अपने देश की सरकार और पर्यावरण मंत्री सिमोनेटा सोमारुगा पर पर्यावरण संबंधी साहसिक निर्णय लेने के लिए दबाव बना सकें।
1 नवंबर, से ही ग्लासगो, यूनाइटेड किंगडम में ‘कॉन्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज’ की 26वीं बैठक (COP26) शुरू हुई थी जहां दुनिया के तमाम नेता पृथ्वी के बढ़ते तापमान। (ग्लोबल वार्मिंग) को लेकर निर्णय लेने और रणनीतियाँ बनाने के लिए इकट्ठे हुए थे। लेकिन फर्नांडीज को शायद अपनी और दुनिया की सरकारों पर भरोसा नहीं इसलिए उन्होंने अपने जीवन को बलिदान करने के बारे में निर्णय ले लिया।
पर्यावरण के लिए जीवन को दांव पर लगाना, यह विचार मेरी नज़र में निश्चित रूप से क्रांतिकारी है लेकिन शायद भारत के एक ‘आध्यात्मिक गुरु’ जगदीश वासुदेव उर्फ जग्गी इन बातों को बहुत गंभीरता से नहीं लेते। एक तरफ़ जहाँ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सब कुछ ‘एक’ करने में लगे हुए हैं, 2070 तक भारत को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में ‘नेट ज़ीरो’ बनाने की घोषणा कर चुके हैं, पर्यावरण को बचाने के लिए वैदिक मंत्रों का भी सहारा ले रहे हैं, दुनिया की लगभग सभी समस्याओं का समाधान वेदों और भारतीय प्राचीन ग्रंथों में खोज रहे हैं, वहीं जगदीश वासुदेव उर्फ जग्गी को दीवाली पर पटाखे एक ज़रूरी आवश्यकता महसूस हुई।
उन्होंने दीवाली के पहले कुछ पर्यावरण एक्टिविस्ट पर निशाना साधते हुए कहा, “..ऐसे कुछ लोग जो अचानक पर्यावरण को लेकर सक्रिय हो गए हैं, और कहते हैं कि किसी भी बच्चे को पटाखे नहीं जलाने चाहिए, यह सही तरीका नहीं है”। उनका मानना है कि जिन्हें लगता है कि पर्यावरण ख़राब हो रहा है, वायु प्रदूषित हो रही है उन्हें बच्चों के लिए बलिदान करते हुए स्वयं पटाखे नहीं जलाना चाहिए, लेकिन बच्चों से उनका यह फन नहीं छीनना चाहिए। जग्गी ने फिर एक ‘क्रांतिकारी’ विचार पेश किया कि लोग 3 दिनों तक अपने ऑफिस कार से न जाएँ।
जग्गी वासुदेव के इस क्रांतिकारी विचार के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी उनकी ऋणी रहती लेकिन जग्गी गुरु को शायद दुनिया अपने आश्रम में ही नज़र आ रही है। इसके बाहर की दुनिया के विषय में न तो वो जानना चाहते हैं कि न ही उन्हें उसकी चिंता है। जब जग्गी वासुदेव महज 11 साल के रहे होंगे तब दुनिया की चिंता करने वाले कुछ लोगों ने मिलकर 1968 में ‘क्लब ऑफ़ रोम’ की स्थापना कर डाली थी। इस संगठन ने 1972 में अपनी रिपोर्ट ‘लिमिट टू ग्रोथ’ में भावी ख़तरों के बारे में पूरी दुनिया को चेताया। इसके बाद पूरी दुनिया में विभिन्न पहलों जैसे- स्टॉकहोम सम्मेलन, रियो सम्मेलन, मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स, क्योटो प्रोटोकॉल, पेरिस समझौता, सस्टैनबल डेवलपमेंट गोल्स- से होते हुए दुनिया ग्लासगो पहुँची है। जिस रफ्तार से जग्गी पर्यावरण को सँवारने की बात कर रहे हैं उससे लगता है कि उन्हें ख़बर नहीं कि दुनिया के सामने कितना बड़ा संकट है।
पेरिस समझौते 2015 में वैश्विक समुदाय ने अपने लिए कुछ टारगेट्स (INDCs) तय किए और यह निश्चय किया कि 21वीं सदी के ख़त्म होते समय पृथ्वी का तापमान, पूर्व औद्योगिक स्तर से 2 ℃ से अधिक नहीं होने पाए, साथ ही इसे कोशिश करके 1.5 ℃ पर सीमित किए जाने के लक्ष्य रखे गए। जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (IPCC) की छठी आँकलन रिपोर्ट (AR6) हाल ही में जारी हुई है। जो बताती है कि हाल में गुजरा दशक पिछले एक लाख पच्चीस हजार सालों में सबसे गर्म दशक था, अन्टार्कटिक सागर की बर्फ पिछले एक हजार सालों में सबसे कम है, ग्रीनहाउस गैस कार्बन डाई आक्साइड की सांद्रता पिछले 20 लाख वर्षों में सबसे अधिक है।
अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की विश्व ऊर्जा आउट्लुक रिपोर्ट 2021 यह बताती है कि जलवायु परिवर्तन के लिए हमारी वर्तमान लड़ाई और टारगेट नाकाफ़ी हैं, वर्तमान टारगेट के आधार पर हम कभी भी पेरिस समझौते के लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाएंगे।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन की रिपोर्ट 2020 के अनुसार 2024 तक ही पृथ्वी का तापमान 1.5℃ से अधिक हो जाने की संभावना है। अर्थात 21वीं सदी के अंत तक दुनिया का तापमान पेरिस समझौते की आशाओं को तोड़ते हुए निश्चित रूप से 2℃ के पार पहुँच जाएगा। कुछ रिपोर्ट्स इस आँकड़े के 4℃ के पार भी पहुँचने की बात कर रहे हैं जोकि पूरे विश्व के लिए विनाशकारी होगा।
मैं यह आशा नहीं करती कि जग्गी वासुदेव ने IPCC रिपोर्ट पढ़ी होगी या विश्व मौसम विज्ञान संगठन की रिपोर्ट्स पर उनकी नज़र गई भी होगी। लेकिन क्या उन्हें यह भी नहीं पता कि यदि पर्यावरण के प्रति हमारा यही नज़रिया रहा तो पवित्र गंगा नदी एक दिन सूख जाएगी; दिल्ली, बेंगलुरु, हैदराबाद, चेन्नई समेत भारत के 21 शहरों का भूमिगत जल 2030 तक ख़त्म हो जाएगा; 10 करोड़ लोग प्रभावित होंगे, भारत की 40% आबादी को पीने का पानी नसीब नहीं होगा (नीति आयोग-2018)।
जग्गी क्या आपको यह भी नहीं पता कि प्रदूषण और ढीली ढाली बातों, हीलाहवाली के चलते इस समय भारत का 70% जल प्रदूषित हो चुका है। ध्यान से पढ़िए यह 70% है न कि 7%, इसलिए भारत सहित पूरी दुनिया को थोड़ा तेज़ काम करना होगा। दिल्ली और उसके आसपास सांस के रोगियों की संख्या बढ़ रही है। अगर आपको चिंता है तो जाकर पता कीजिए कि कितने बुजुर्ग भारतीय और छोटे-छोटे बच्चे दीवाली और उसके बाद उत्पन्न स्थितियों में अस्पतालों के चक्कर काटने को बाध्य हैं और आपको लगता है कि यह परंपरा है और इसका निस्तारण कुछ दिन कार से न चलने से हो जाएगा। तो यह कोयंबटूर स्थित आपका नायाब आश्रम नहीं जहां बहते पानी को पीने की आपकी तसवीरें वायरल हो जाती हैं, जहां आप मोटरसाइकिल में आनंद लेते नज़र आ जाते हैं। ये दिल्ली है, जहां कई जगहों पर एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) 400 के पार जा चुका है, आपके आश्रम की तरह 35 AQI वाले पर्यावरणीय लग्जुरियस स्थान सबको नसीब नहीं।
जगदीश वासुदेव जी अगर आपने नहीं सुना हो तो मैं आपको बता दूँ कि A76 नाम का एक आइसबर्ग अंटार्कटिक समुद्र से ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों के चलते अलग हो गया, यह दुनिया का सबसे बड़ा आइसबर्ग है जिसका क्षेत्रफल 4,320 वर्ग किमी है। अब यह बर्फ़ का विशाल टुकड़ा कभी अपनी पूर्वस्थिति में दोबारा नहीं आएगा। यह इतना बड़ा है कि कोयम्बटूर, जहाँ आपका निवास स्थान है, वैसे लगभग 30 शहरों को समाहित कर सकता है। शायद आपको यह भी न पता हो कि कोलकाता, लंदन समेत दुनिया के 9 बड़े शहर 2030 तक जल समाधि की अवस्था में आ सकते हैं।
बात सिर्फ़ यह नहीं कि बच्चे पटाखे जलाएं या नहीं, बात यह है कि आप बच्चों को क्या संदेश देना चाहते हैं। क्या आप बच्चों में एक ऐसी परंपरा की आदत डालना चाहते हैं, और उस पर जबरदस्ती गर्व करना सीखना चाहते हैं, जिसमें इस्तेमाल की जाने वाली बारूद का इतिहास ही बमुश्किल 500- 600 वर्षों पुराना है। भारत में तो बाबर के पहले शायद ही कभी बारूद इस्तेमाल हुआ हो। तब यह पटाखे की परंपरा कहाँ से आई? आप हजारों वर्षों पुरानी दीपावली जिसका अस्तित्व दीप से था, प्रकाश से था, उसे बम और पटाखे की कुछ सौ वर्षों पुरानी परंपरा से जोड़ने लगे। आप अपने स्टेटमेंट से बच्चों को असंवेदनशील बना रहे हैं, उन्हें ऐसी पद्धतियों और परंपराओं से जोड़ रहे हैं जो अन्ततः हमारी पृथ्वी को समाप्त करने में अपना योगदान ज़रूर देंगी।
एक तरफ़ भारत विश्व गुरु बनने का सपना देख रहा है, दूसरी तरफ़ हमारे यहाँ के गुरुओं का यह आलम है कि एक गुरुजी पूर्वोत्तर राज्यों में जाकर जंगल काटकर, जैव विविधता को ख़त्म करके ताड़ की खेती करने को बेताब हैं ताकि ज़्यादा से ज़्यादा धन बनाया जा सके। यह वही योग गुरु हैं जिन्हें पहले सिर्फ़ सरसों का तेल ही भाता था लेकिन बाज़ार के अवतार में ‘अब सब कुछ चलेगा’ वाला दृष्टिकोण अपना लिया है।
कुछ वर्षों पहले यमुना नदी के किनारे दिल्ली में एक ‘विश्व संस्कृति उत्सव’ का आयोजन किया गया था। इस उत्सव के फ़ायदों पर तो कहने को कुछ नहीं है लेकिन इस सभा के उपरांत पैदा हुए पारिस्थितिकीय संकट को नदी के किनारे जाकर आज भी महसूस किया जा सकता है।
2017 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGT) ने श्री श्री रविशंकर के संगठन ‘आर्ट ऑफ़ लिविंग’ को यमुना के बाढ़ के मैदान को ख़राब करने का दोषी पाया था। उन पर 5 करोड़ का जुर्माना लगाया गया, लेकिन तत्कालीन सचिव, जल संसाधन मंत्रालय, शशि शेखर ने कहा था कि इस जगह को अपनी पूर्व अवस्था में लाने के लिए 13 करोड़ रुपए और 10 वर्षों का समय लगेगा। हमारे एक प्रतिष्ठित धर्म गुरु ने हमारी सबसे पुरानी नदियों में से एक को एक झटके में 10 वर्ष पीछे कर दिया। हम कैसी आशा रख सकते हैं भारतवर्ष के आधुनिक धर्म गुरुओं से और कैसे बनेंगे विश्व गुरु इन गुरुओं के साथ?
काश सांस खींचने और छोड़ने से दुनिया की समस्याएँ ख़त्म हो जातीं, काश ग्लोबल वार्मिंग का यह दौर धीरे-धीरे थमने लगता, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी इस ख़ूबसूरत दुनिया का आनंद ले पातीं, उनके बड़े होने तक हमारे शहर बचे रहते, वनस्पतियाँ सुरक्षित रहतीं, पीने के लिए जल बना रहता, सांस लेने के लिए पर्याप्त वायु बनी रहती, और पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध रहता। लेकिन दुर्भाग्य से देश के कोने में बैठकर साँसों को अंदर बाहर करने से दुनिया को बचाना नामुमकिन है।