रोजगार की चर्चा से कौन डरता है
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों 71 हजार लोगों को नई प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करके नियुक्ति पत्र पकड़ाया। शुरू में लगा कि इस काम का प्रचार भी उसे तरह होगा जैसाकि आम तौर पर प्रधानमंत्री के कामों का हुआ करता है। लेकिन बात बहुत जल्दी शांत पड गई क्योंकि मोदी जी और उनके प्रचारकों को भी मालूम है कि इतने बड़े और बेरोजगारों से भरे देश में इकहत्तर हजार नौकरियों की क्या बिसात है। और अगर बात बढ़ती तो मोदी जी को बहुत सारे जबाब देने होते क्योंकि 2014 चुनाव में ही उनको काला धन लाने और करोड़ों को रोजगार देने की बात प्रमुख थी।
अमित शाह ने भले काला धन लाने की बात को चुनावी जुमला कह दिया हों लेकिन रोजगार के सवाल को इस तरह हवा में उड़ाना आसान नहीं है। पर मजेदार बात यह है कि विपक्ष भी कहीं भारत जोड़ों में लगा रहा तो कहीं मोदी विरोधी मुख्यमंत्रियों और दलों का मंच जुटाने में। बिहार और झारखण्ड में जरूर हल्की चर्चा हुई और वहां भी कोई यात्रा चलाने को बड़ा काम मानता रहा तो कोई रामचरित मानस को ब्राहमणवादी ग्रंथ बताने में। रोजगार का सवाल संभवत: किसी की प्राथमिकता में नहीं है। इससे भी मोदी जी राहत महसूस करते होंगे।
बिहार में और खास तौर से राष्ट्रीय जनता दल के लोगों के लिए यह सवाल बड़ा क्यों नहीं बना यह सवाल महत्वपूर्ण है क्योंकि लालू यादव की अनुपस्थिति में दल की बागडोर संभालने वाले तेजस्वी यादव ने पिछले विधान सभा चुनाव के समय जब दस लाख सरकारी नौकरियों के वायदे के साथ चुनाव अभियान की शुरुआत की तब अचानक जाति और संप्रदाय की राजनीति वाले बिहार का राजनैतिक एजेंडा ही बदल गया। सभी युवा तेजस्वी के इस मास्टरस्ट्रोक को देखकर हैरान थे और मन ही मन तारीफ कर रहे थे तो भाजपा और जदयू (जो तब साझा रूप से सत्ता में थे) ने अपना एजेंडा बदला और जाने कितने लाख को रोजगार देने की बात करने लगे।
चुनाव बीतने पर रोज़गार का वायदा तो आसानी से भुला दिया गया लेकिन राजद भी हाथ आए बड़े मुड़े को बिसारकर जाति जनताणना जैसे मुद्दे को प्राथमिकता देने लगा। हां जब नीतीश कुमार ने पाला बदला और राजद के साथ मिलकर जदयू ने सरकार बनाई तब फिर रोजगार के वायदे की चर्चा ढंग से हुई। तेजस्वी यादव ने बिहार में सरकारी नौकरियां देने का वायदा दोहराया और उस दिशा में काम भी शुरू हुआ। देखा देखी झारखंड सरकार ने भी पहल की।
प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्ति पत्र देने का कार्यक्रम इसी हंगामे के दौर में बना। दनादन विभिन्न विभागों के खाली पड़े पदों का हिसाब लगाया जाने लगा तो जैसे रहस्य के पिटारे वाली खान दिखने लगी। सरकारी बिभागों के बाद, फौज, पुलिस, बैंकिंग और स्कूल कालेज के हिसाब आने लगे जबकि इधर पच्चीस-तीस वर्षों से निजीकरण का जोर बढ़ाने से सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में सही रफ्तार में काम नहीं बढ़ा है। यह मालूम हुआ कि केंद्र के पैसे से चलाने वाले उच्चतर शिक्षा संस्थानों के पचास फीसदी से ज्यादा स्थान खाली पड़े हैं। आईआईटी, आईआईएम और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में अध्यापकों के ग्यारह हजार पद खाली पड़े हैं। इनमें भी रिजर्व श्रेणी की हालत ज्यादा खराब है।
लोकसभा में बताए गए आंकड़ों के हिसाब से प्रोफेसर पद के लिए अनुसूचित जातियों के लिए मंजूरशुदा ७५.२ फीसदी, अनुसूचित जनजाति के 87.3 फीसदी और ओबीसी श्रेणी के 84.7 फीसदी पद खाली पड़े हैं। रीडर के लिए ते पदों में यह कमी क्रमश: 64.7, 76.8 और 76.6 फीसदी थी। आईआईटी के लिए ऐसा आंकड़ा नहीं पेश किया गया लेकिन वहां कुल रिक्तियां 40.3 फीसदी थीं। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में कुल रिक्तियां 32.6 फीसदी और आईआईएम में 31.5 फीसदी थीं। सहायक प्रोफेसर पद के अलावा बाकी पदों पर आर्थिक आधार वाले 87 फीसदी आरक्षित पद भी खाली पड़े थे।
एक की चर्चा शुरू होते ही हर तरफ से खाली पदों की चर्चा जोर पकड़ने लगी। इसके कई पक्ष भी सामने आने लगे। निजीकरण के दौर में सरकारी नौकरियों का पिछड़ना, आरक्षण देने के बाद भी पद न भरना, अस्थायी नियुक्तियां, शिक्षा मित्र और स्वास्थ्य सेवाओं में कैजुअल ढंग से रोजगार देने और काम से काम पैसों पर नियुक्ति करने(जो की बार अकुशल मजदूर की दिहाड़ी से भी काम होता है) जैसे मसले जोर पकड़ने लगे। फिर यह सवाल भी उठने लगा कि जो सरकार करोड़ों नौकरियों का वायदा करके आई है वह सरकारी नौकरियों के स्वीकृत इतने पदों को भी इतने समय से क्यों खाली रखे हुई थी।
इसी बीच यूनेस्को की उस रिपोर्ट को भी सामने किया गया जिसके अनुसार हमारे 1.1 लाख स्कूलों में मात्र एक शिक्षक ही हैं जो हेडमास्टर से लेकर चपरासी तक का काम देखते हैं। शिक्षकों के कुल 11.16 लाख पद खाली पड़े हैं। उत्तर प्रदेश के स्कूलों में अध्यापकों के 3.3 लाख, बिहार के स्कूलों में 2.2 लाख और पश्चिम बंगाल के स्कूलों में 1.1 लाख पद खाली हैं। एक शिक्षक वाले सबसे ज्यादा स्कूल मध्य प्रदेश में हैं। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि काफी सारे अयोग्य लोग भी अध्यापक पद पर नियुक्त हो गए हैं(हाल में आई ‘असर’ की रिपोर्ट बताती है कि हमारे काफी बच्चों को सामान्य टेक्स्ट पढ़ना भी नहीं आता) और कोविड महामारी ने स्थिति और बिगाड़ी है।
हम जानते हैं कि रोजगार और सामाजिक जरूरत के हिसाब से शिक्षा और स्वास्थ्य की सबसे ज्यादा लोगों को नियमित रोजगार दे सकते हैं । उसमें के एक हिस्से की यह हालत स्थिति की गंभीरता को बताता है। पर संभवत: स्वास्थ्य का हाल और बुरा है जहां इस तरह की गणना भी संभव नहीं रह गई है। नए सरकारी अस्पताल खुलना तो बहुत बड़ी बात हो गई है पुराने अस्पताल और दवाखाने भी बंद होते गए हैं-सरकारी स्कूल के बंद होने और विद्यार्थी न मिलने के किस्से भी दिल्ली समेत देश भर से आ रहे हैं।
सार्वजनिक क्षेत्र में उद्योग धंधे खड़ा करना तो चलन से ही बाहर हो गया है। सो ले देकर पुलिस और फौज की रिक्तियों की गिनती की जा सकती है। निजी सिक्युरिटी एजेंसियों का धंधा भी खूब फल फूल रहा है जबकि उनके यहाँ भी नौकरी शिक्षा मित्र या आंगनवाड़ी वाले अंदाज मे मिलती है। ऐसे में बची फौज की नौकरियों को भी अगनिवीरों के हवाले किया गया है। रोजगार फौज या सरकारी विभागों में ही हों जरूरी नहीं है लेकिन निजी रोजगार कायदे कानून के अनुसार और सरकारी नौकरियों जैसे चलें, इसके जरूरत तो रहेगी ही। लेकिन जब रोजगार का सवाल चर्चा से ही गायब हों जाएगा तब इतनी दूर तक सोचने का कष्ट हमारे हुक्मरान क्यों करेंगे।