क्या इलेक्टोरल बॉन्ड से राजनीति में काले धन को बढ़ावा मिलेगा?
चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बॉन्ड्स का ज़ोरदार शब्दों में विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि इससे राजनीतिक दलों को पैसे देने की प्रक्रिया की पारदर्शिता कम होगी। आयोग ने यह भी कहा है कि यह पीछे ले जाने वाला कदम है। अदालत ने इस पर सुनवाई की अगली तारीख़ 2 अप्रैल तय की है।
लेकिन इसके साथ ही एक नई बहस की शुरुआत हो गई है। चुनावों को प्रभावित करने की कॉरपोरेट जगत की कोशिशें और चुनावों पर धन-बल के बढ़ते प्रभाव को कम करने की कोशिश के तहत ही इलेक्टोरल बॉन्डस की पहले की गई थी। इससे जुड़े विधेयक को लोकसभा में पेश करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बढ़ चढ़ कर दावे किए थे और बताया था कि किस तरह इससे राजनीति में काले धन का प्रभाव ख़त्म हो जाएगा। पर शुरुआत में ही यह साफ़ हो गया है कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स की जो वजहें बताई गईं हैं, असली कारण ठीक इसके उलट हैं। यह तो साफ़ है कि इससे पारदर्शिता कम होगी, काले धन का प्रभाव बढ़ेगा, कॉरपोरेट जगत बिना सामने आए अपने मनपसंद दल को मनमाफ़िक पैसे दे सकेगा और कोई समझ भी नहीं पाएगा कि किस कंपनी ने किस पार्टी को कितने पैसे दिए। और उस पर तुर्रा यह कि सब कुछ पाक साफ़ है।
इसे पिछले साल इलेक्टोरल बॉन्ड्स से दिए गए पैसे से समझा जा सकता है।
वित्तीय वर्ष 2017-18 के दौरान इलेक्टोरल बॉन्ड्स के ज़रिए 215 करोड़ रुपये जमा कराए गए, इनमें से 95 प्रतिशत यानी 210 करोड़ रुपये एक दल यानी भारतीय जनता पार्टी की झोली में गए। बाकी 5 करोड़ रुपये कांग्रेस को मिले।
यह तो साफ़ है कि सत्तारूढ़ दल को 95 प्रतिशत धन मिला और यह भी साफ़ है कि उसे सरकार में होने की वजह से ही मिला। लेकिन यह पता नहीं चल सकता कि किस कंपनी ने उन्हें ये पैसे दिए और क्यो कंपनी का नाम पता नहीं चलने की वजह से यह भी पता नहीं चल पाएगा कि उसने ये पैसे क्यों दिए, ज़ाहिर है, इससे पारदर्शिता कम हुई है।
क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड
इलेक्टोरल बॉन्ड दरअसल एक तरह का फ़ाइनेंशियल इंस्ट्रूमेंट यानी वित्तीय साधन है, जिससे कोई किसी दल को चंदा दे सकता है। यह प्रॉमिसरी नोट की तरह होता है और बियरर चेक की तरह इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। यानी, जो पार्टी इसे बैंक में जमा करा देगी, उसके खाते में ही यह पैसा जमा कर दिया जाएगा। इलेक्टोरल बॉन्ड्स 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, 1 लाख रुपये, 10 लाख रुपये और 1 करोड़ रुपये का लिया जा सकता है। इसे कोई भी नागरिक या कंपनी स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से ख़रीद सकता है, उसे अपने प्रमाणित खाते से इसका भुगतान करना होगा। लेकिन उसका नाम-पता कहीं दर्ज़ नहीं होगा। वह किस पार्टी को यह बॉन्ड दे रहा है, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं होगा। यह 15 दिनों तक वैध रहेगा। हर साल जनवरी, अप्रैल, जून और अक्टूबर में बैंक इसे देना शुरू करेगा और 30 दिनों तक दे सकेगा।पारदर्शिता का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन
अमेरिका, ब्रिटेन, स्वीडन जैसे देशों में राजनीतिक चंदा देने वाले को अपनी पहचान को सार्वजनिक करना होता है। भारत की जन प्रतिनिधि क़ानून की धारा 29 सी के अनुसार, 20,000 रुपये से ज़्यादा चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होगी। लेकिन, वित्तीय अधिनियम 2017 के क्लॉज़ 135 और 136 के तहत इलेक्टोरल बॉन्ड को इसके बाहर रखा गया है। इसके अलावा यह व्यवस्था भी की गई है कि राजनीतिक दलों की ओर से चुनाव आयोग को दिए गए अपने आमदनी-ख़र्च के हिसाब किताब में इलेक्टोरल बॉन्ड्स की जानकारी देना अनिवार्य नहीं है।
न तो इलेक्टोरल बॉन्ड्स खरीदने वाले व्यक्ति या कंपनी का पता चलता है और न ही इसके ज़रिए जिसे पैसे दिए जा रहे हैं, उसका पता चलता है। राजनीतिक दलों के हिसाब-किताब में यह दर्ज नहीं होता है और चुनाव आयोग को इसकी कोई जानकारी नहीं होती है।
काले धन को बढ़ावा
इलेक्टोरल बॉन्ड काले धन को बढ़ावा दे सकता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। कंपनीज़ एक्ट की धारा 182 के तहत यह व्यवस्था की गई थी कि कोई कंपनी अपने सालाना मुनाफ़ा के 7.5 प्रतिशत से अधिक का चंदा नहीं दे सकती। लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड को इससे बाहर रखा गया है। इसका नतीजा यह होगा कि बेनामी या शेल कंपनी के ज़रिए पैसे दिए जा सकेंगे। शेल कंपनियों के पास काला धन होता है। इस तरह बड़े आराम से काला धन चंदे के रूप में राजनीतिक दलों को दिया जा सकता है और किसी को पता भी नहीं चलेगा।
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राजनीतिक दलों के कॉरपोरेट फन्डिंग में जो थोड़ी बहुत पारदर्शिता बची हुई है, इलेक्टोरल बॉन्ड उसे भी ख़त्म कर देगा। सालाना लाभ के 7.5 प्रतिशत से अधिक का चंदा नहीं देने का प्रावधान ख़त्म कर देने का बहुत ही बुरा असर पड़ेगा। बहुत जल्द ऐसी कंपनियाँ दिखेंगी, जो अपना पूरा पैसा राजनीतिक पार्टी को दे देगी और इस तरह राजनीति पर कब़्जा कर लेंगी।
एस. वाई. क़ुरैशी, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त
फ़ॉरन रेगुलेशन कंट्रीब्यूशन एक्ट में संशोधन कर ऐसा बदलाव किया गया है कि जिन भारतीय कंपनियों में विदेशी कंपनियों का बहुमत शेयर हो, वह आसानी से भारत के राजनीतिक दलों को चंदा दे सके। इसका नतीजा यह होगा कि विदेशी कंपनियाँ अपने तरीके से भारतीय पार्टियों को प्रभावित कर सकेंगी और बाद में एक तरह से भारतीय राजनीति को अपने हिसाब से मोड़ सकेंगी। इसका असर यह होगा कि भारतीय सरकार पर विदेशी कॉरपोरेट जगत का कब्ज़ा हो जाएगा।
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इलेक्टोरल बॉन्ड्स सूचना के अधिकार का उल्लंघन है, यह स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के सिद्धांत के भी ख़िलाफ़ है। अदालत में चुनौती दिए जाने पर इलेक्टोरल बॉन्ड टिक नहीं पाएगा।
सुभाष कश्यप, संविधान विशेषज्ञ
सत्तारूढ़ दल और सरकार इस मुद्दे पर क्या सोचती है, यह सवाल लाज़िमी है। उसका मक़सद क्या है, यह भी सवाल उठता है। इलेक्टोरल बॉन्ड वित्त मंत्री अरुण जेटली का प्रिय शगल है। उन्होंने 2 जनवरी, 2018 को काफ़ी शोर-शराबे के बीच बॉन्ड पेश किया और कहा कि यह राजनीतिक चंदे के तरीके को बदल देगा और पारदर्शिता लाएगा।
वित्त मंत्री ने इलेक्टोल बॉन्ड को अधिक प्रभावी बनाने के लिए आयकर क़ानून, फ़ॉरन रेगुलेशन कंट्रीब्यूशन एक्ट, कंपनी एक्ट और वित्त अधिनियम में भी संशोधन किया।
मक़सद साफ है, बीजेपी चाहती है कि राजनीतिक दलों को और उसे ख़ास रूप से गुपचुप पैसे मिलें, किसी को पता न चले, जो पैसा दे उसका भी नाम सामने न आए और किस वजह से उसे पैसे दिए गए हैं, इसका भी खुलासा न हो। लेकिन यह सवाल भी उठता है कि दूसरी राजनीतिक पार्टियों का क्या रवैया था सबसे बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस ने थोड़ी बहुत सुगबुगाहट तो दिखाई, पर उसने कोई मुखर विरोध नहीं किया। और तो और, वामपंथी दल भी इस पर खामोश रहे। साफ़ है, तमाम राजनीतिक दल कारपोरेट जगत से पैसे चाहते हैं, भले ही काला धन ही क्यों न हो। शुचिता का दावा करने वाले, दूसरों से अलग होने का दावा करने वाले और पूंजी को तमाम बुराइयों की जड़ बताने वाले, सभी इस पर चुप हैं।