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चुनावी बांडः वकील हरीश साल्वे की फीस स्टेट बैंक क्यों छिपाना चाहता है

चुनावी बांडः वकील हरीश साल्वे की फीस स्टेट बैंक क्यों छिपाना चाहता है

देश में चुनावी चंदे के सबसे बड़े घोटाले में कंपनियों की आड़ में सरकार का बचाव करने वाले वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे को भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ने की कितनी फीस दी, यह बात सरकार और स्टेट बैंक देश की जनता से छिपा रहे हैं। आरटीआई के जरिए जानकारी मांगी गई लेकिन स्टेट बैंक बताने को राजी नहीं है। जनता के टैक्स का पैसा इस तरह एक नामी वकील को खड़ा करने के लिए सरकार ने लुटाया लेकिन अब वही जनता नहीं जान सकती कि कितना पैसा साल्वे को दिया गया। 

भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने सुप्रीम कोर्ट में चुनावी बांड मामले में बैंक का प्रतिनिधित्व करने के लिए वकील हरीश साल्वे को भुगतान की गई कानूनी फीस के बारे में जानकारी देने से इनकार कर दिया है। आरटीआई कार्यकर्ता अजय बोस द्वारा दायर एक आरटीआई के जवाब में, एसबीआई ने कहा कि मांगे गए विवरण को आरटीआई अधिनियम के तहत सार्वजनिक करने से छूट दी गई है। अजय बोस ने इस बात पर आपत्ति जताई कि वकील को दी गई फीस करदाताओं का पैसा है और सवाल किया कि एसबीआई यह जानकारी क्यों छिपा रहा है।

भारतीय स्टेट बैंक के अनुसार, आरटीआई कार्यकर्ता द्वारा मांगी गई जानकारी तीसरे पक्ष की जानकारी है जो बैंक के पास है और कमर्शल रूप से विश्वसनीय प्रकृति की है। इसलिए इसे नहीं दिया जा सकता। इससे पहले एक अन्य आरटीआई के जवाब में एसबीआई ने चुनावी बांड की जानकारी आरटीआई कार्यकर्ता कोमोडोर लोकेश बत्रा को भी देने से मना कर दिया। उसमें भी यही बहाना लिया गया था। जबकि कोमोडर बत्रा ने जो जानकारी मांगी थी, वो बैंक ने चुनाव आयोग को पहले से ही दे रखी है। लेकिन कोमोडोर बत्रा सीधे बैंक से चाहते थे लेकिन वो आनाकानी कर रहा है।

बैंक ने अजय बोस को लिखा है- “आपके द्वारा मांगी गई जानकारी बैंक द्वारा प्रत्ययी क्षमता ((fiduciary capacity)) में रखी गई तीसरे पक्ष की व्यक्तिगत जानकारी है, जिसके प्रकटीकरण को धारा 8 (1) (ई) और (जे) के तहत छूट दी गई है और यह प्रकृति में वाणिज्यिक विश्वास की भी है, इसलिए इसे अस्वीकार कर दिया गया है। क्योंकि इसे आरटीआई अधिनियम की धारा 8 (1) (डी) के तहत छूट दी गई है। यहां पर प्रत्ययी का मतलब वह व्यक्ति है जो एक विश्वास पर दूसरे की संपत्ति या धन को रखता है। उस व्यक्ति के धन की देखभाल करना प्रत्ययी का कर्तव्य है।

यदि सक्षम प्राधिकारी संतुष्ट है कि व्यापक सार्वजनिक हित में ऐसी जानकारी प्रकटीकरण को आवश्यक बनाती है तो विभाग विवरण प्रदान करने की अनुमति देते हैं।

हरीश साल्वे को दी गई फीस कई करोड़ रुपये हो सकती है। हालांकि सत्य हिन्दी के पास इसकी कोई पुष्ट जानकारी नहीं है। न ही यह दावा किया जा रहा है। लेकिन साल्वे जिस तरह तमाम तरह के हाईप्रोफाइल केस लड़ते रहे हैं, यह मुमकिन हो सकता है। ऐसे में आज नहीं तो कल एसबीआई के आला अफसरों, वित्त मंत्रालय से यह सवाल तो होगा ही और सत्ता बदलने पर इसकी वसूली भी उन्हीं अधिकारियों से की जा सकती है।

जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड को असंवैधानिक और मनमाना माना, तो उसने जानकारी का खुलासा न करने के भारतीय स्टेट बैंक के रवैये पर कड़ा प्रहार किया। अदालत ने कहा था- “बैंक सभी विवरणों का खुलासा करने में चयनात्मक (सेलेक्टिव) नहीं हो सकता। एसबीआई का रवैया ऐसा लगता है कि 'आप हमें बताएं कि क्या खुलासा करना है, हम खुलासा करेंगे'। यह उचित नहीं लगता।''

रद्द किए जाने से पहले, चुनावी बांड को कोई भी भारतीय स्टेट बैंक से खरीद सकता था और किसी राजनीतिक दल को दे सकता था। राजनीतिक दल इन्हें एसबीआई शाखाओं में भुना सकते थे। इस योजना ने राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग को कोई महत्वपूर्ण खुलासा किए बिना इस तर्क का इस्तेमाल करके बच निकलने में सक्षम बनाया कि बांड गुमनाम थे।

चुनावी चंदे के इस सबसे बड़े खेल में सबसे ज्यादा चंदा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को 69.86.5 करोड़ रुपये मिले। दूसरे नंबर पर तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) है, जिसे 1397 करोड़ रुपये मिले। कांग्रेस को 1334 करोड़ मिले। सीपीएम और सीपीआई भारत की दो ऐसी पार्टियां हैं जिन्होंने चुनावी बांड के जरिए चंदा लेने से इनकार कर दिया। दोनों ही कम्युनिस्ट दलों ने इलेक्ट्रोरल बांड के लिए अलग से कोई खाता खोलने से मना कर दिया था। तमिलनाडु की डीएमके एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसने अपने डोनर्स का खुलासा किया था कि उसे कहां से कितने पैसे चंदे के रूप में मिले।

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