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इलेक्टोरल बॉन्ड: लोकतंत्र और गवर्नेंस को रौंदता एक महा-घोटाला

इलेक्टोरल बॉन्ड: लोकतंत्र और गवर्नेंस को रौंदता एक महा-घोटाला

अभी हाल में देश के प्रतिष्ठित पत्रकार नितिन सेठी ने ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’ के शासकीय फ्रॉड का जिन ठोस तथ्यों के साथ पर्दाफ़ाश किया, क्या वह महा-घोटाला नहीं है? 

हमारे मीडिया में हिन्दी शब्द ‘घोटाला’ बहुत घिस-सा गया है! जहाँ देखिए, जिसे देखिए वही इस शब्द का हर छोटी-बड़ी अनियमितता या भ्रष्टाचार के लिए इस्तेमाल कर लेता है। हिन्दी न्यूज़ चैनलों की तरह विशेषणों के अतिशय इस्तेमाल से मैं हमेशा बचने की कोशिश करता हूँ। पर आज इस घिसे हुए ‘घोटाला’ शब्द से बात नहीं बन रही है इसलिए ‘घोटाला’ को ‘महा-घोटाला’ लिखने के लिए सुधी पाठकों से क्षमा चाहता हूँ। अभी हाल में देश के प्रतिष्ठित पत्रकार नितिन सेठी ने एक साथ तीन भाषाओं-अंग्रेज़ी, हिन्दी और मलयालम की अलग-अलग न्यूज़ वेबसाइटों पर ‘इलेक्टोरल बॉन्ड’ के शासकीय फ्रॉड का जिन ठोस तथ्यों के साथ पर्दाफ़ाश किया, वह सचमुच केंद्र की बीजेपी सरकार का ऐसा महा-घोटाला है, जो हमारी लोकतांत्रिक संरचना और शासन चलाने की प्रक्रियागत-नियमावली, दोनों को ध्वस्त करता नज़र आता है। 

नितिन की ख़बरों से उठे सवालों का महाबली-नेताओं वाली केंद्र की बीजेपी सरकार भी कोई ठोस जवाब नहीं दे पा रही है। संसद के चालू सत्र में विपक्षी दलों की तरफ़ से नितिन के पर्दाफ़ाश के हवाले से कई सवाल उठाए गए पर सरकार सवालों को संबोधित करने के बजाय सिर्फ़ राजनीतिक बयानबाज़ी करती नज़र आई। इलेक्टोरल बांड का मामला बीते काफ़ी समय से सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। अब देखना होगा कि इन नये खुलासों के बाद कोर्ट इस मामले में क्या कुछ करता है

पूरी दुनिया में ऐसे इलेक्शन-बॉन्ड नहीं!

विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था का प्रावधान सन् 2017 के बजट के ज़रिये सामने लाया गया था। तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दावा किया कि इससे हमारा लोकतंत्र मज़बूत होगा। दलों को होने वाली फ़ंडिंग और समुची चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी। कालेधन पर अंकुश लगेगा। कुछ ही समय बाद एडीआर जैसी इलेक्शन-वाच संस्थाओं और कमोडोर (रिटा.) लोकेश बत्रा जैसे लोकतंत्रवादी लोगों ने इस प्रावधान की शुचिता और उपयोगिता पर गंभीर सवाल उठाने शुरू किए। उस समय तक भारत का मुख्यधारा मीडिया इस मामले में लगभग खामोश था। बाद में जब मामला कोर्ट में गया तो कुछ छिटफुट ख़बरें आने लगीं। पर बड़े मीडिया घरानों की तरफ़ से इस बाबत कोई स्वतंत्र पड़ताल या इसके विधायी-शासकीय फ्रॉड पर कोई उल्लेखनीय काम नहीं हुआ था, जिससे इसका पूरी तरह पर्दाफ़ाश हो सके! एडीआर के हवाले वेबसाइटों पर कुछ ख़बरें ज़रूर आई थीं। पर हाल ही में स्वतंत्र पत्रकार नितिन सेठी की दो बड़ी ख़बरों ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर सरकार के दावे और सिस्टमेटिक फ्रॉड का मुकम्मल पर्दाफ़ाश किया है। 

इन समाचार-कथाओं से बिल्कुल साफ़ हो गया है कि सन् 2017 के बजट के ज़रिए मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड का सिस्टम सरकारी और बैंकिंग स्तर पर किसी वैध शासकीय प्रक्रिया को पूरा किए बगैर ही कुछ सत्ताधारी नेताओं की निजी इच्छा के आधार पर लागू करा दिया। बिल्कुल नोटबंदी की तरह! इस तरह के बॉन्ड का प्रस्ताव न तो वित्त मंत्रालय, न तो निर्वाचन आयोग और न ही रिज़र्व बैंक की किसी आधिकारिक या प्रशासकीय प्रक्रिया के तहत आया। इलेक्टोरल बॉन्ड जैसी व्यवस्था शुरू करने का फ़ैसला नोटबंदी की तरह सरकार चलाने वाले लोगों के शीर्ष स्तर और व्यक्तिगत इच्छा के तहत आया था। वैसे ही जैसे पहले के ज़माने में कोई बादशाह या राजा अपनी इच्छानुसार कभी और कहीं, कुछ भी फ़ैसला कर लिया करते थे।

इलेक्टोरल बॉन्ड सन् 2017 के बजट से जारी एक विचित्र योजना है, जिसका मक़सद चुनाव फ़ंडिंग को ज़्यादा पारदर्शी बनाना बताया गया था। इसके तहत एक वचनपत्र होता है, बैंकनोट की तरह, जिसे आरबीआई जारी करता है। यह पूरी तरह ब्याजमुक्त व्य़वस्था है। इसे किसी भारतीय नागरिक या भारतीय संस्था द्वारा एसबीआई की अधिकृत शाखाओं से ख़रीदा जा सकता है। सन् 2017 के बजट मंज़ूरी के बाद 1मार्च, 2018 को इसे जारी किया गया। इसके ज़रिए कोई भी दानकर्ता किसी भी राजनीतिक पार्टी, जिसे लोकसभा चुनाव में 1 फ़ीसदी या उससे अधिक वोट मिले हों, को चुनावी फ़ंड में सहयोग कर सकता है। इसमें राष्ट्रीय या क्षेत्रीय, हर तरह के दल हो सकते हैं। सरकार ने दावा किया कि इससे कालेधन, मनी लांड्रिंग और अवैध क़िस्म की इलेक्टोरल फ़ंडिंग पर पाबंदी लगेगी। पारदर्शिता आएगी। इस बांड को सिर्फ़ चेक या डिजिटल पैमेंट करके ही ख़रीदा जा सकता है। ये बॉन्ड एक तरह के ‘बियरर चेक’ की तरह हैं, जिन्हें देने वालों का नाम गुप्त रखा जाता है। राजनीतिक दल अपने अधिकृत अकाउंट में इसे सीधे जमा कराकर पैसे ‘कैश’ करा सकते हैं।

हमने पता करने की कोशिश की। कुछ भूतपूर्व चुनाव आयुक्तों से भी पूछा। पता चला, पूरी दुनिया में किसी भी लोकतांत्रिक देश में इलेक्टोरल बॉन्ड जैसी व्यवस्था नहीं, यह अपने मुल्क में ही मुमकिन हुई है।

जैसे किसी वैध और शासकीय विचार-विमर्श के बगैर नवम्बर, 2016 में नोटबंदी मुमकिन हुई, वैसे ही सन् 2017 में इलेक्टोरल बॉन्ड जैसी व्यवस्था भी मुमिकन हो गई। दोनों में दावा किया गया काला धान ख़त्म होगा। पारदर्शिता आएगी। पर इससे बड़े उद्योगपतियों-कॉरपोरेट की चाँदी हो गई और देश की सबसे बड़ी पार्टी के लिए चुनाव-फ़ंडिंग की ‘गोल्डन सुरंग’ खुल गई। अब तक इलेक्टोरल बॉन्ड से सबसे ज़्यादा ही नहीं, प्रचंड रूप से यानी एकतरफ़ा ढंग से बीजेपी को ही फ़ंडिंग हुई है। एक आधिकारिक आँकड़े के मुताबिक़ तकरीबन 95 फ़ीसदी से ज़्यादा फ़ंड सिर्फ़ बीजेपी के खाते में जा रहे हैं। सिर्फ़ एक समय विशेष का आँकड़ा देखें- सन् 2017-18 के कुछ महीनों में इलेक्टोरल बॉन्ड के तहत राजनीतिक दलों को 215 करोड़ रुपए की फ़ंडिंग हुई थी। इसमें 210 करोड़ अकेले बीजेपी को मिले। उस दौर में कांग्रेस को इस सिस्टम के ज़रिये सिर्फ़ 5 करोड़ मिले। 

वैसे 2017-18 में बीजेपी को कुल मिलाकर 990 करोड़ का चुनावी चंदा पूंजीपितियों से आया। कांग्रेस को 142.8 करोड़। सभी 6 राष्ट्रीय दलों को जो फ़ंड 20 हज़ार रुपए से ज़्यादा चंदे वाली कैटेगरी में मिला, उसका तकरीबन 67 फ़ीसदी बीजेपी को गया। यह तो एक ख़ास समय की फ़ंडिंग का आँकड़ा है। सन् 2017 से अब तक इस सिस्टम के ज़रिये बीजेपी को कुल मिलाकर हज़ारों करोड़ रुपए मिल चुके हैं। ये कहाँ से और किनके हैं— इसमें गोपनीयता हमेशा बरक़रार रहेगी। एडीआर और अन्य याचिकाकर्ताओं ने इस सिस्टम को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया और इस पर तत्काल स्थगन माँगा। कोर्ट ने स्थगन नहीं दिया। वह मामला लंबे समय से कोर्ट में लटका पड़ा है।

संवैधानिक संस्थाओं की अनदेखी, संसद में झूठ बोला

मोदी सरकार ने 1 फ़रवरी, 2017 के अपने बजट में इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करने सम्बन्धी योजना का फ़ैसला रिज़र्व बैंक की गहरी आपत्ति को दरकिनार करके किया था। नितिन सेठी ने अपनी स्टोरी में इसे साबित करने वाले शासकीय पत्रों को उद्धृत किया है। उसके लिए निर्वाचन आयोग ने भी हरी झंडी नहीं दी थी। इनकम टैक्स के उच्चाधिकारियों ने भी इस प्रस्ताव पर गंभीर एतराज़ जताया था। सबसे पहले एतराज़ जताने की शुरुआत ‘नॉर्थ ब्लॉक’ से ही हो गई थी। एक वरिष्ठ टैक्स-अधिकारी ने इस प्रावधान के प्रस्ताव में कई झोल निकाले और सरकार के समक्ष रखे। पर तब के राजस्व सचिव हंसमुख अधिया ने उन तमाम आपत्तियों को खारिज किया था कि अब कुछ नहीं हो सकता है। श्री अधिया को सरकार के शीर्ष कार्यकारी नेतृत्व का सबसे भरोसेमंद अधिकारी माना जाता था। अधिया ने अपने नोट में लिखा कि रिज़र्व बैंक की सलाह काफ़ी देर से आई है और सरकार का वित्त-विधेयक यानी बजट छप चुका है। वित्त सचिव तपन रे ने भी श्री अधिया की राय से सहमति जता दी।

तब अरुण जेटली ने उक्त फ़ाइल पर दस्तख़त कर दिये और इस तरह सारी आपत्तियाँ दरकिनार कर इलेक्टोरल बॉन्ड जारी कराने के फ़ैसले को बजट में शामिल कर लिया गया।

भारत सरकार ने इस मामले में संसद में जो झूठ बोला, ठोस प्रमाणों के साथ उसकी भी पोल खुली है। राज्यसभा में सन् 2018 के सत्र में एक सदस्य मो. नदीमुल हक ने सवाल किया— क्या सरकार की इलेक्टोरल बॉन्ड योजना का चुनाव आयोग ने विरोध किया था, असहमति जताई थी तत्कालीन वित्तराज्यमंत्री राधाकृष्णन ने जवाब दिया कि चुनाव आयोग की तरफ़ से किसी तरह का विरोध नहीं आया था। राज्यमंत्री के जवाब के असत्य और निराधार होने के चलते सदन में उनके ख़िलाफ़ विशेषाधिकार का नोटिस दिया गया। दूसरी तरफ़ सरकार निर्वाचन आयोग की आपत्तियों पर लीपापोती करती रही। ...और आयोग के मौजूदा उच्चाधिकारी भी मिमियाते नज़र आए। लेकिन अगस्त, 2019 में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को अंततः मानना पड़ा कि आयोग ने इस पर आपत्ति दर्ज कराई थी। पर सीतारमण ने यह नहीं बताया कि उन आपत्तियों को सरकार ने किस तरह संबोधित किया।

‘कॉरपोरेट-कंट्रोल डेमोक्रेसी’

तथ्यों से साफ़ है कि इलेक्टोरल बॉन्ड की यह व्यवस्था निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव की प्रणाली को वित्तीय-षडयंत्र से नष्ट करने का एक ज़रिया है। यह एक ऐसा वित्तीय षडयंत्र है, जिसे संसद में बहुमत के बल पर क़ानूनी और वैध बना दिया गया है। इसके कुछ प्रभावों को इस प्रकार समझा जा सकता है-

1- इस अदृश्य फ़ंड के बल पर बड़े पूंजीपतियों का कुछ पसंदीदा दलों और सरकारों से सीधा रिश्ता बनेगा। जनता या अन्य विपक्षी दलों, किसी को मालूम तक नहीं होगा कि कौन किसे कितना रुपया दे रहा है क्योंकि बैंक इस बारे में आरटीआई के तहत भी कोई जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं हैं। इस तरह भारतीय राजनीति में सीधे कॉरपोरेट प्रभाव को अब पूरी तरह वैध कर दिया गया है, यानी भारत सही मायने मे ‘कॉरपोरेट-कंट्रोल डेमोक्रेसी’ में तब्दील होने के लिए अभिशप्त है।

2. इसके ज़रिये विदेशी धन के प्रवाह को भी भारतीय चुनाव सिस्टम में वैध होने का रास्ता बन गया है। अपने देश की राजनीतिक पार्टियों को पहले विदेशी कंपनियाँ सीधे चंदा नहीं दे सकती थीं। बॉन्ड के ज़रिये विदेशी कंपनियाँ भी दे पाएँगी।

3. पहले उद्योगपतियों को चुनावी चंदे को अपने सालाना बहीखाते में दिखाना पड़ता था। वे तीन साल में अपने औसत मुनाफ़े का 7.5 फ़ीसदी ही चंदा दे सकते थे। अब वे असीमित रक़म चुनाव फ़ंड में दे सकते हैं।

4. बॉन्ड जारी करने वाले बैंक द्वारा इसे ख़रीदने और पाने वाली की सारी सूचना गुप्त रखी जाएगी और आरटीआई के दायरे से भी मुक्त रहेगी। कमाल की ‘पारदर्शिता’ है।

बचाव के लिए खामोशी!

मज़े की बात है कि इस बारे में दो-दो बड़ी ख़बरों के ब्रेक होने के बावजूद हमारे मुख्यधारा मीडिया, ख़ासकर हिन्दी अख़बारों-न्यूज़ चैनलों और सत्ता के गलियारे में इलेक्टोरल बॉन्ड की फ़्राड व्यवस्था पर कोई गंभीर चर्चा या हस्तक्षेप अब तक नहीं नज़र आया। सिर्फ़ एनडीटीवी-अंग्रेज़ी, इंडिया टुडे चैनल और कुछेक यूट्यूब चैनलों ने ही इस पर उल्लेखनीय चर्चा कराई है। अब तक का देखें तो इस मामले में एडीआर जैसी इलेक्शन-वाचडॉग संस्था और रिटायर्ड कमोडोर लोकेश बत्रा के अभियान मीडिया से ज़्यादा सार्थक और प्रभावकारी रहे हैं। अनेक आरटीआई कार्यकर्ताओं के अलावा श्री बत्रा की मेहनत और इलेक्टोरल बॉन्ड पर खोज-पड़ताल के लिए इन लोकतंत्रवादियों को सलाम करना होगा कि इलेक्शन-बॉन्ड की पूरी कहानी और शासकीय फ़्रॉड आज सार्वजनिक तौर पर उजागर हो चुका है। देखिए आगे क्या होता है

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