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अमेरिका में हिंसा : भारत के लिये सबक 

अमेरिका में हिंसा : भारत के लिये सबक 

अमेरिका में 2019 में कुल 32 सामूहिक हत्याकांड हो चुके हैं। क्या भारत के लोगों को यह परिचित लगना चाहिए? 

अमेरिका के टेक्सस के अल पासो में 21 साल के पैट्रिक क्रूसियस ने अपनी असॉल्ट राइफ़ल से अंधाधुँध गोलीबारी करके 21 लोगों को मार डाला। पुलिस के मुताबिक़ कम से कम 26 और लोग ज़ख़्मी हैं। इस भयावह हत्याकांड के कुछ घंटों में ओहायो के डेटन में एक दूसरे हत्याकांड में 9 लोग मार डाले गए। इस हफ़्ते यह अमेरिका में तीसरा सामूहिक हत्याकांड है। 2019 में इन्हें मिलाकर 32 सामूहिक हत्याकांड हो चुके हैं।

टेक्सस की पुलिस के मुताबिक़, क्रूसियस ने इस दहशतगर्द कार्रवाई से पहले एक वेबसाइट पर एक वक्तव्य जारी किया था। इसमें हिस्पानी लोगों के ख़िलाफ़ नफ़रत जाहिर की गई थी। यह लिखा गया कि वे योजनाबद्ध ढंग से अमरीका में घुस रहे हैं और जल्दी ही उनकी संख्या बढ़ जाएगी। वे अपने मुताबिक़ क़ानून बनवा लेंगे और अमेरिका पर उनका क़ब्ज़ा हो जाएगा। इस घोषणापत्र में कुछ वक़्त पहले न्यूजीलैंड में मसजिदों पर हुए हमले को अपनी प्रेरणा बताया गया है।

क्या भारत के लोगों को यह सबकुछ परिचित लगना चाहिए? यह कि एक ख़ास तरह के लोग घुसपैठिये हैं, उनकी संख्या बढ़ रही है, वे संसाधनों पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं, जल्दी ही देश पर उनका क़ब्ज़ा हो जाएगा, यह सब कुछ हम रोज़ ही सुनते हैं।

अमेरिका में सामूहिक हत्याकांड होते हैं। भारत में मॉब लिंचिंग हो रही है जिसमें एक आदमी को घेरकर मार डाला जाता है।

ट्रम्प को ठहराया ज़िम्मेदार

एक फ़र्क़ है। इस हत्याकांड के बाद अमेरिका के डेमोक्रैट राजनेताओं ने इसे खुले तौर पर हिस्पानी लोगों के ख़िलाफ़ आतंकवादी कार्रवाई ठहराया है और इसकी कड़ी आलोचना की है। उन्होंने इस तरह की हिंसा के बढ़ने के लिए सीधे अपने राष्ट्रपति को ज़िम्मेदार ठहराया है। डोनल्ड ट्रम्प के बाहरी लोगों को लेकर घृणा प्रचार का नतीजा इस तरह की हिंसा है, यह उन्होंने और बाक़ी लोगों ने कहा है।

बर्नी सैंडर्स ने पूछा है कि हमारे देश में जो इस तरह की घटनाएँ लगातार हो रही हैं, तो बाहर के लोग हमारे बारे में क्या सोचते होंगे! हमारे नौजवानों की दिमागी सेहत के बारे में भी हमें सोचने की ज़रूरत है।

दिमागी सेहत का मामला तो है लेकिन यह सीधे-सीधे श्वेत श्रेष्ठतावादी ग्रंथि का परिणाम है, इसे लेकर मेरे मन में कोई संदेह नहीं है। पिछले कुछ समय में अमेरिका और यूरोप में यह श्वेत श्रेष्ठतावाद आक्रामक उभार पर है और लोगों के दिमागों से निकल कर यह ख़ुद को सड़कों पर हिंसा के रूप में व्यक्त कर रहा है। 

राष्ट्रपति ट्रम्प अमेरिका में इस घृणा को ख़तरनाक ढंग से उभारने के अभियान में लगे हुए हैं। इन दो हत्याकांडों के बाद ट्रम्प ने औपचारिक तौर पर सार्वजनिक वक्तव्य जारी करके इनकी आलोचना नहीं की है, जैसा कि अमेरिका में रिवाज है। उन्होंने मात्र एक ट्वीट किया है। इसकी भर्त्सना हो रही है। अमेरिका की ख़ुफिया संस्था, एफ़.बी.आई. के प्रमुख रह चुके जेम्स कोमे ने इसके फौरन बाद न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख में राष्ट्रपति से अपना कर्तव्य निभाने की माँग की है। उन्होंने कहा है और यह बात सिर्फ़ अमेरिका पर लागू नहीं होती कि हमारे राष्ट्रीय जीवन में एक रेडियोएक्टिव नस्लवादी द्रव्य मौजूद रहा है। राष्ट्रपति ट्रम्प का ख्याल है कि इसे घंघोल कर वह राजनीतिक लाभ उठा लेंगे। लेकिन इसके परिणाम इससे कहीं अधिक ख़तरनाक होंगे।

कोमे जो कह रहे हैं वह किसी भी देश पर लागू हो सकता है। हम पर भी। वे इस नस्लवाद के इतिहास की याद दिलाते हैं। अभी हाल हाल तक अमेरिका की सड़कों पर “लिंचिंग” हो सकती थी। आख़िर सिर्फ़ सौ साल पहले इन्हीं गर्मियों में वाशिंगटन की सड़क पर हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष ‘‘लिंचिंग’’ से बाल-बाल बचे थे। नेशनल म्यूजियम ऑफ़ अफ़्रीकन-अमेरिकन हिस्ट्री में जाने पर यह मालूम पड़ता है कि यह हिंसा गणना के परे भले हो, कल्पना के परे नहीं है। 

कोमे का कहना है कि पिछले 50 सालों में क़ानून के जरिए इस रेडियोएक्टिव विकीरण को नियंत्रित करने के लिए एक कवच तैयार किया गया। क़ानून, विश्वविद्यालय, मीडिया, राजनीति, सबने मिलकर इस प्राथमिक घृणा को अमेरिका के सार्वजनिक जीवन में सम्मानजनक स्थान पाने से रोका। मन में हो लेकिन इस घृणा को व्यक्त नहीं किया जा सकता। रिपब्लिकन हो या डेमोक्रैट, कोई राजनेता इस घृणा का इस्तेमाल राजनैतिक गोलबंदी के लिए करे तो वह सार्वजनिक तौर पर बहिष्कृत होगा ही।

कोमे संस्कृति के सिद्धांतकार एद्गर शयेन के हवाले से समझते हैं कि संस्कृति की तीन परतें होती हैं -  प्रतीकों और संकेतों की परत; उन मूल्यों की परत जिनमें हम कहते हैं कि हम भरोसा करते हैं; और सबसे नीचे चीज़ें जैसी हैं,उसकी परत। अगर इन तीनों परतों में संगति न हो तो अभी जो हत्याकांड हुए वे नियम बन सकते हैं।

यह संगति अपने आप नहीं बैठ जाती और यह एक बार स्थापित हो गई तो आप निश्चिंत नहीं हो सकते कि नस्लवाद के ज़हर को मार डाला गया है। वह एकदम नीचे रहता है और इन सांस्कृतिक निषेधों के निष्क्रिय होते ही बाहर निकल आता है। 
जनतंत्र के बारे में जो कहा जाता है, वह इस नस्लवाद के बारे में भी उतना ही सच है। बिना सतत जागृति और चौकसी के इस बात का ख़तरा है कि कहीं इस रेडियोएक्टिव घृणा का विकीरण पूरे समाज में न फैल जाए। एक तरह से आप कह सकते हैं कि प्रतीकों की परत एक ढाल या ढक्कन है जिससे आप इस रेडियोएक्टिव ज़हर को ढंकते हैं। अगर इस परत में भी छेद हो जाए? अगर आपके घोषित मूल्यों की परत भी कमजोर हो जाए? फिर तो निष्क्रिय मान लिए गए ज़हर को फैलने से आप रोक नहीं सकते।

अमेरिका में यह ज़हर अब हवा में घुल गया है और सभी इसकी चपेट में आ रहे हैं। संतोष की बात सिर्फ़ यह है कि इसकी चर्चा की जा सकती है।

अख़बारों में, टीवी पर इस घृणा का प्रचार नहीं हो रहा है। रिपब्लिकन पार्टी में भी इसे लेकर चिंता है। डेमोक्रैट यह मनाकर चुप नहीं हो गए हैं कि अगर वे बोले तो श्वेत मतदाता उनसे दूर हो जाएँगे।

ट्रंप की हुई कड़ी आलोचना

यह दुविधा पिछले दिनों व्यक्त की जा रही थी। ट्रम्प ने कांग्रेस की चार महिला डेमोक्रेट सदस्यों पर, जो खुद को स्क्वाड कहती हैं, हमला किया और उन्हें अमेरिका से बाहर जाने को कहा। कहा गया कि अगर स्पीकर नैंसी पलोसी और बर्नी सैंडर्स और दूसरे डेमोक्रेट इनके पक्ष में बोलेंगे तो ट्रम्प को मौक़ा मिल जाएगा कि वह मतदाताओं से कहें कि देखो, डेमोक्रेटिक पार्टी का चेहरा यही औरतें हैं जो अमेरिकी मूल की नहीं हैं और बाक़ी सारे डेमोक्रैट उनके पीछे हैं और वह उस नस्ली नफ़रत को सक्रिय करें जो अमेरिका के श्वेत समाज में है और ज़िंदा है। लेकिन डेमोक्रैट इस नैतिक दुविधा के प्रलोभन में नहीं पड़े। सारे प्रमुख डेमोक्रैट नेताओं ने इन चारों पर हमला करने के लिए ट्रम्प की कड़ी आलोचना की।

अमेरिका में अगले साल चुनाव हैं। ट्रम्प फिर से उस नस्ली रेडियोएक्टिव ज़हर को घंघोल रहे हैं। अगर अमेरिका ने जल्दी ही अपनी संस्कृति के प्रतीकों और मूल्यों को सक्रिय नहीं किया तो यह ज़हर विकीरित होगा ही और यह किस तरह आगे के जीवन को बीमार कर देगा, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि टेक्सस और ओहायो में हत्यारे अभी किशोरावस्था से निकले ही हैं!

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