भारतीय जनता पार्टी के युवा संगठन, भारतीय जनता युवा मोर्चा (BJYM) के ट्विटर हैंडल पर 16 जनवरी 2023 को एक तस्वीर पोस्ट करके पूछा गया था कि इसमें पीएम नरेंद्र मोदी कहाँ हैं? यह तस्वीर 1996 में खींची गयी थी जब भोपाल के बीजेपी प्रदेश मुख्यालय दीनदयाल उपाध्याय परिसर में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होने के लिए पार्टी के तमाम दिग्गज इकट्ठा हुए थे। मुख्यालय भवन के सामने खींची गयी इस तस्वीर मे अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी समेत तमाम वरिष्ठ नेता नज़र आ रहे हैं। ऊपर एक बालकनी है जिसमें कई लोग खड़े हैं। इन लोगों में नरेंद्र मोदी को भी कोशिश करके पहचाना जा सकता है।
इस बैठक से जुड़ी एक यादगार बात यह भी है कि मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्वजिय सिंह ने बैठक में शामिल होने भोपाल पहुँचे प्रतिनिधियों को 22 जून 1996 को रात्रिभोज दिया था। बहरहाल, उस तस्वीर में कुर्सी पर जगह न पाने वाले नरेंद्र मोदी अब बालकनी से उतरकर वाया गुजरात दिल्ली की सबसे बड़ी कुर्सी पर पहुँच चुके हैं। भोपाल में बीजेपी दफ़्तर के लिए नई बहुमंज़िला इमारत बनने जा रही है और तस्वीर में दिख रहा दीनदयाल परिसर ढहा दिया गया है। साथ ही वह परंपरा भी ढहा दी गयी है जिसकी झलक कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह ने बीजेपी नेताओं को अतिथि मानते हुए रात्रिभोज देकर दिखाई थी।
रायपुर में 24 फ़रवरी से होने जा रहे कांग्रेस के 85वें महाधिवेशन के ऐन पहले 20 फ़रवरी की सुबह से पार्टी के कोषाध्यक्ष समेत तमाम नेताओं पर शुरू हुई ईडी की छापेमारी पक्ष-विपक्ष के बीच सदाशयता की इस परंपरा के ध्वस्त होने का सबूत है। विपक्ष को वैचारिक विरोधी की जगह निजी दुश्मन मानने और उसे पूरी तरह बर्बाद करने और इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद के हर दाँव का इस्तेमाल करने की यह शैली ‘मोदी युग’ की ख़ासियत है।
रायपुर में 24 फ़रवरी से होने जा रहे कांग्रेस के 85वें महाधिवेशन के ऐन पहले 20 फ़रवरी की सुबह से पार्टी के कोषाध्यक्ष समेत तमाम नेताओं पर शुरू हुई ईडी की छापेमारी पक्ष-विपक्ष के बीच सदाशयता की इस परंपरा के ध्वस्त होने का सबूत है। विपक्ष को वैचारिक विरोधी की जगह निजी दुश्मन मानने और उसे पूरी तरह बर्बाद करने और इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद के हर दाँव का इस्तेमाल करने की यह शैली ‘मोदी युग’ की ख़ासियत है।
ऐसा नहीं है कि ईडी को छापा मारने का अधिकार नहीं है। मनी लांड्रिंग से जुड़े मामलों में वह ऐसा करती ही रही है, लेकिन मोदी काल में जिस तरह राजनीतिक विरोधियों को निपटाने या उन्हें अपने पाले में लाने के लिए इस एजेंसी का इस्तेमाल हुआ है उसने इसकी प्रतिष्ठा को पूरी तरह धूल धूसरित कर दी है। यह संयोग नहीं कि अब ईडी के निशाने पर हमेशा विपक्ष ही रहता है। 2014 के बाद पड़े छापों में 95 फ़ीसदी का निशाना सिर्फ विपक्ष से जुड़े लोग थे। बीते आठ सालों में ईडी ने 3010 छापे मारे हैं जबकि इससे पहले के दस सालों में यानी यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार में महज़ 112 छापे ही पड़े थे।
ऐसा भी नहीं कि इन ताबड़तोड़ छापों के नतीजे भी निकल रहे हैं। नेशनल हेराल्ड केस में 55 घंटे तक कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और तीन दिन तक सोनिया गाँधी से पूछताछ में ईडी को क्या मिला, इसकी जानकारी आज तक सामने नहीं आयी है। हाँ, मीडिया में इसकी सुर्खियाँ बनीं और बीजेपी प्रवक्ताओं को कांग्रेस नेताओं पर अनर्गल आरोप लगाने का मौक़ा मिला। बीजेपी का असल मक़सद भी यही है कि विपक्ष के नेताओं को संदिग्ध बनाया जाये न कि अपराधियों को पकड़ा जाये। वरना गौतम अडानी और प्रधानमंत्री मोदी के रिश्तों को लेकर लोकसभा में पूछे गये राहुल गाँधी के सवालों को कार्यवाही से हटाया न जाता और हिंडनबर्ग रिपोर्ट से खुलासे को लेकर ईडी अडानी के ठिकानों पर छापे मार रही होती।
बीजेपी ने शुरू से ही एजेंसियों का ऐसे ही इस्तेमाल किया है। शारदा चिट फंड घोटाले के लिए जिन हेमंत बिस्व शर्मा और मुकुल रॉय के ख़िलाफ़ बीजेपी ने तूफ़ान खड़ा किया था वे आज बीजेपी में हैं। हेमंत बिस्व शर्मा तो असम के मुख्यमंत्री भी बना दिये गये हैं और उत्तरपूर्व में बीजेपी के रथ के सारथी भी वही हैं। कोई नहीं पूछ रहा है कि उनके खिलाफ़ सीबीआई जाँच कहाँ तक पहुँची या शारदा चिट फंड घोटाले के आरोपियों का क्या हुआ। क्या बीजेपी की वाशिंग मशीन में जाते ही सबके दाग़ धुल गये?
सरकारी एजेंसियों के इस बेज़ा इस्तेमाल से बेजपी को कुछ फ़ौरी लाभ तो हो सकता है लेकिन लोकतंत्र को इससे मिले आघात से उबरने में लंबा वक़्त लग जाएगा। ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण मसला तो ये है कि इस योजना के मुख्य शिल्पी ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी हैं जिन पर लोकतंत्र को मज़बूत करने की ज़िम्मेदारी है। उन्होंने संसद के बजट सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर हुई बहस के जवाब मे जिस अहंकारी मुद्रा में कहा कि ‘ईडी ने पूरे विपक्ष को एक कर दिया है’, वह ईडी के बेज़ा इस्तेमाल की खुली स्वीकारोक्ति है। ऐसे मे अगर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने ईडी (इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट) को ‘एलीमिनेटिंग डेमोक्रेसी’ कहा है तो ग़लत नहीं है।
रायपुर में डाले गये छापे कुछ दिन पहले या कुछ दिन बाद भी डाले जा सकते थे। ऐसे में यह सवाल गंभीर है कि कांग्रेस अधिवेशन से ऐन पहले हुई यह कार्रवाई क्या सबसे बड़े विपक्षी दल के सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम में विघ्न डालने के लिए हैं? ख़ासतौर पर जब इस अधिवेशन में पारित प्रस्ताव आने वाली दिनों की विपक्षी राजनीति को प्रभावित करेंगे। 2024 में मोदी से मुकाबले की रणनीति को स्पष्ट करेंगे। कांग्रेस की प्रतिक्रिया बताती है कि उसने इसका कड़ा जवाब देने का फ़ैसला किया है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने तो यहाँ तक कह दिया कि जब कांग्रेस अंग्रेज़ों से नहीं डरी तो फिर मोदी सरकार की इन कार्रवाइयों से कहाँ डरने वाली है!
वैसे, ईडी के छापे सिर्फ़ कांग्रेस के लिए नहीं, पूरे विपक्ष के लिए चेतावनी हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में ‘ईडी के डर से विपक्ष के एक होने’ का व्यंग्य चाहे अपने भाषण को चटक बनाने के लिए किया हो, लेकिन इसमें लोकतंत्र के प्रति उनकी उपेक्षा का भाव स्पष्ट है। कांग्रेस ही नहीं, हर विपक्षी दल के लिए यह चिंता की बात होनी चाहिए क्योंकि विपक्ष की उपस्थिति लोकतंत्र की अनुपस्थिति में संभव नहीं है। ग़ैर कांग्रेस विपक्षी दल इस बात को जितनी जल्दी समझ लें, उतना अच्छा। इन छापों ने उस रास्ते को साफ़ कर दिया है जिसके बदौलत 2024 के आम चुनाव में विपक्ष अपनी छाप छोड़ सकता है। और वो रास्ता है- तानाशाही के ख़िलाफ़ कांग्रेस समेत संपूर्ण विपक्ष का एकजुट मोर्चा! वह भी, फ़ौरन से पेश्तर!