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मंदी: अमेरिका और यूरोप के साथ भारत को भी उठाने होंगे ठोस क़दम 

मंदी: अमेरिका और यूरोप के साथ भारत को भी उठाने होंगे ठोस क़दम 

1929 की महामंदी अब तक का सबसे डरावना आर्थिक संकट था और 2008 में भी आर्थिक संकट आया था। क्या दुनिया भर में वैसे ही खराब हालात फिर से बन सकते हैं। 

अमेरिका मंदी की चपेट में है। कम से कम तकनीकी परिभाषा के लिहाज से तो यह बात माननी ही पड़ेगी। लगातार दो तिहाई ऐसी गुजर चुकी हैं जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था बढ़ने के बजाय सिकुड़ती दिखाई दी है। यह खबर पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय है। चिंता और बढ़ जाती है जब आप देखते हैं कि इस वक्त जो मंदी और जो भीषण संकट सामने दिख रहा है वो काफी हद तक उन कदमों का नतीजा है जो पिछले दो साल में इसी चक्कर में उठाए गए थे कि कहीं मंदी न आ जाए। 

यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे टूटी हड्डी जोड़ने के लिए प्लास्टर भी लगा दिया जाए और सहारा भी  दिया जाए मगर जब प्लास्टर खुलने का समय आए तो पता चले कि उसके खुलते ही हड्डी का जोड़ बिखरने का खतरा खड़ा हो गया है। और यह किस्सा सिर्फ अमेरिका का नहीं है ब्रिटेन, जर्मनी और पश्चिमी दुनिया के दूसरे तमाम अमीर देशों ने मंदी से निपटने के लिए, रोजगार के संकट से जूझ रही जनता को सहारा देने के लिए जो नोट छाप छापकर बांटे थे, उन्हीं का नतीजा अब ऐतिहासिक महंगाई के रूप में उनके सामने खड़ा है। 

महंगाई की मार 

महंगाई चालीस साल का रिकॉर्ड तोड़ चुकी है। यानी सत्तर के दशक की मंदी की याद दिला रही है। और अब ग्रोथ को वापस पटरी पर लाने की उम्मीदों के रास्ते में भी सबसे बड़ा अवरोध महंगाई ही है। 

बड़ा डर इस बात का है कि सत्तर के दशक की मंदी के साथ-साथ 2008 के आर्थिक संकट की जड़ यानी कर्ज का संकट भी फिर सिर उठा रहा है। यह दोनों अलग-अलग ही आर्थिक भूचाल ला चुके हैं। अब अगर एक साथ आ गए तो क्या होगा सोचा जा सकता है। अमेरिकी अर्थशास्त्री नूरिएल रुबिनी ने यही आशंका जताई है और उनका कहना है कि ऐसा हुआ तो अमेरिकी शेयर बाज़ार आधा हो सकता है। 

जाहिर है अमेरिका को ज़ुकाम की खबर से दुनिया के अनेक दूसरे बाज़ारों को बुखार चढ़ सकता है। सबसे बड़ी अनिश्चितता तो कच्चे तेल के बाज़ार में है।

कच्चे तेल का खेल 

पिछले हफ्ते दो अलग-अलग रिसर्च रिपोर्ट आई हैं जो एकदम उलटी भविष्यवाणियां कर रही हैं। जेपी मॉर्गन की रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर यूक्रेन संकट की वजह से रूस ने तेल उत्पादन में बड़ी कटौती कर दी जिसकी आशंका है तो फिर एक बैरल कच्चे तेल का दाम तीन सौ अस्सी डॉलर तक उछल सकता है। यानी महंगाई का महाविस्फोट। लेकिन दूसरी तरफ सिटीग्रुप का कहना है कि अगर दुनिया में मंदी आती दिख रही है तो फिर कच्चे तेल की मांग बुरी तरह टूटेगी और इस साल के आखिर तक ही यह पैंसठ डॉलर और अगले साल के अंत तक पैंतालीस डॉलर पर पहुंच सकता है। अब इनमें से क्या सही होगा यह सिर्फ ज्योतिषी ही बता सकते हैं। 

ज्योतिषियों के भरोसे तो अर्थव्यवस्था चलती नहीं है। लेकिन इन दोनों के बीच पेट्रोलियम कारोबार पर नज़र रखनेवाले मध्यमार्गी अर्थशास्त्रियों का मानना है कि क्रूड का दाम अभी सौ सवा सौ डॉलर के बीच और लंबे दौर में डेढ़ सौ डॉलर तक जा सकता है। यह भी कोई राहत की खबर नहीं है।

लेकिन इस मोर्चे पर भारत की तैयारी काफी तेज़ी से चल रही है कि कच्चे तेल पर निर्भरता जल्दी से जल्दी कम की जाए। ऐसा हुआ तो भारतीय अर्थव्यवस्था एक बहुत बड़े बोझ से मुक्त हो जाएगी। केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी इस दिशा में लगातार कोशिश करते दिखते हैं। खबरें हैं कि पिछले हफ्ते उन्होंने यह दावा कर दिया है कि पांच साल के भीतर ही भारत में पेट्रोल का इस्तेमाल बंद हो जाएगा। इसकी जगह बायो एथनॉल और ग्रीन हाइड्रोजन जैसे ईंधन ले लेंगे। उनके मुंह में घी शक्कर, लेकिन फिलहाल यह दूर की कौड़ी ही लगती है। 

आर्थिक संकट के बाद विश्वयुद्ध 

इतिहास में देखें तो 1929 की महामंदी अब तक का सबसे डरावना आर्थिक संकट था। चार दिन में अमेरिकी शेयर बाज़ार पच्चीस परसेंट टूट गया था और उसके बाद लगातार तीन साल तक गिरता ही रहा। अक्टूबर 1929 से जुलाई 1932 के बीच शेयर बाज़ार से नब्बे परसेंट रकम उड़नछू हो चुकी थी। इसी दौरान अमेरिका की जीडीपी 104 अरब डॉलर से गिरकर 57 अरब डॉलर ही रह गई यानी लगभग आधी। हड़बड़ी में सरकार ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर जो पाबंदियां लगाईं उनका उलटा असर हुआ। दुनिया का कुल व्यापार एक तिहाई ही रह गया। तकलीफ पूरी दुनिया में फैली और इस हद तक फैली कि आखिरकार दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। 

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रूजवेल्ट की ‘न्यू डील’

अब इस बात पर विद्वानों में मतभेद है कि मंदी खत्म होने की वजह दूसरे विश्वयुद्ध का शुरू हो जाना था या फिर अमेरिका के नए राष्ट्रपति रूजवेल्ट की नई नीति या ‘न्यू डील’। हालांकि रूजवेल्ट की नीतियों के शुरू होने और विश्वयुद्ध छिड़ने के बीच नौ साल का फर्क था, लेकिन दुनिया को और अमेरिका को इस महामंदी से निकलने में इससे ज्यादा ही वक्त लगा। 

रूजवेल्ट ने रोजगार पैदा करने, कामगारों के अधिकार सुनिश्चित करने और बेरोजगारों को सहारा देने की जो योजनाएं शुरू कीं उनमें से कई आजतक चल रही हैं। उन्होंने कर्ज लेकर सरकारी खर्च बढ़ाया और इकोनॉमी में जान लौटाने की भरपूर कोशिश की। 

माना जाता है कि उनके इस फैसले ने अमेरिकी समाज में सरकार की साख बहुत बढ़ा दी। यह भी माना जाता है कि इन्हीं कदमों का असर है कि वैसी महामंदी अब दोबारा नहीं आ सकती है। 

लेकिन हालिया इतिहास में सत्तर के दशक की मंदी और 2008 का कर्ज संकट दो डरावने हादसे हैं। अब अगर यह दोनों एक साथ सिर उठाते दिख रहे हैं तो सिर्फ अमेरिका और यूरोप के लिए नहीं बल्कि भारत के लिए भी फिक्र की वजह है।

और फिक्र सिर्फ सरकारों को नहीं करनी है। जब ऐसी मंदी आती है तो तमाम बड़े छोटे कारोबारों पर आफत टूट पड़ती है। लेकिन वहीं आपदा में अवसर की भी नजीर है। हावर्ड बिजनेस रिव्यू में करीब दस साल पहले छपे एक लेख में तीन जाने माने अर्थशास्त्रियों ने 1980, 1990 और 2000 में ऐसी मुसीबत में फंसी करीब पौने पांच हज़ार लिस्टेड कंपनियों का अध्ययन किया था। इन सबका बुरा हाल था। 

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मंदी में भी गाड़े झंडे

किसी का दीवाला निकल गया, कोई बिक गई, कोई बंद हो गई। लेकिन नौ परसेंट कारोबार ऐसे भी रहे जो इस मुश्किल वक्त को पार करके न सिर्फ बचे रहे बल्कि उन्होंने अपने अपने काम में झंडे गाड़ दिए। उनकी बढ़त की रफ्तार प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले दस परसेंट से भी ज्यादा रही। उसके बाद दो और रिसर्च एजेंसियों ने ऐसे ही अध्ययन किए और उनका नतीजा भी ऐसा ही है। 

जो कंपनियां यहां मिसाल बनीं उनमें से ज्यादातर पहले से ऐसी स्थिति के लिए तैयार थीं। उनपर कर्ज का बोझ नहीं था या कम था, इसके अलावा फैसला लेने में तेज़ी, नई तकनीक का बेहतर इस्तेमाल और अपने कामगारों का बेहतर प्रबंधन उन्हें मुसीबत से बचने की ताकत देता है। 

लेकिन बात सिर्फ कंपनियों के बचने से तो बनेगी नहीं। इस वक्त अर्थव्यवस्था के सामने जो चुनौती है उससे निपटने के लिए क्या हो सकता है कि भारत के लिए भी इस आपदा में अवसर निकल सकें। 

रोजगार के विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत जैसे बड़े देश में इस संकट से निकलने के रास्ते तो हैं लेकिन अब बात सिर्फ अर्थव्यवस्था का चक्का घुमाने भर की नहीं है। बल्कि सरकार को कुछ ऐसा करना होगा कि जीडीपी जहां थी वहां से काफी आगे बढ़ने का सिलसिला शुरू हो और तेज़ी से चले।

इन्फ्रास्ट्रक्चर पर हो जोर

इसके लिए सरकार को सबसे पहले तो ऐसी चीजों पर अपना खर्च बढ़ाना होगा जिससे नई संपत्ति बने। आम आदमी की जुबान में कहें तो कार खरीदने के बजाय घर बनाने पर जोर देना होगा। यहां घर का अर्थ देश के लिए काम आनेवाला इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना ही है। इससे लोगों को रोजगार मिलता है, सिस्टम में पैसा आता है जो खर्च होता है और ऐसी चीजें बनती हैं जिनसे देश में कारोबार करना, यहां से वहां आना जाना और रहना आसान हो जाता है। यह जीवन स्तर बेहतर करने के साथ साथ बाज़ार में मांग भी पैदा करता है। 

लेकिन मांग के रास्ते में इस वक्त एक बड़ी रुकावट है। वो है महंगाई। पूरी दुनिया उससे जूझ़ रही है, लेकिन भारत सरकार के पास उसका एक आसान इलाज है। पिछले कई सालों में पेट्रोल और डीजल पर भारी टैक्स लगाकर सरकार ने काफी कमाई कर ली है। अभी उसमें कुछ कटौती भी की गई है, लेकिन अब वक्त है कि सरकार इस टैक्स में भारी कटौती का एलान करे ताकि महंगाई पर सीधी चोट हो सके और लोगों के पास इतना पैसा बचे कि वो खर्च बढ़ाने की हालत में आएं। 

सरकार और आम आदमी का खर्च बढ़ने लगेगा तो फिर उद्योगपति और निजी क्षेत्र के दूसरे कारोबारियों के लिए ज़रूरी हो जाएगा कि वो अपने काम धंधे को फैलाने के लिए नया पैसा लगाना शुरू करें। आर्थिक आंकड़ों में इस बात के तमाम सबूत मिल रहे हैं कि अब फैक्ट्रियों में उतना माल बनने लगा है कि मालिक को नई मशीन या नया कारखाना लगाने की सोचनी पड़े। सरकार को बस इतना करना है कि उनकी ज़िंदगी थोड़ी आसान बना दे। खासकर छोटे और मझोले उद्योगों को इस वक्त सहारे की बड़ी ज़रूरत है। 

सरकार के स्तर पर ज़रूरत इस बात की भी है कि कहीं कोई एक ऐसा व्यक्ति, समूह या एजेंसी हो जिसकी नज़र अर्थव्यवस्था के हर पहलू पर हो और जिसके पास बहुत तेज़ी से फैसले करने की क्षमता भी हो और अधिकार भी। 

यह ज़िम्मेदारी किसके पास होगी या कौन निभाएगा, यह एक बहुत बड़ा सवाल है।   

हिंदुस्तान से साभार

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