ख़तरे के दौर में चुनाव तो ठीक है, दलों की 'रिश्वत' पर भी तो लगाम लगे
भारत के पांच राज्यों में चुनाव की घोषणा हो चुकी है। यह चुनाव-प्रक्रिया एक माह की होगी। 10 फ़रवरी से 10 मार्च तक! ये चुनाव उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में होंगे। इन पांचों राज्यों के चुनाव का महत्व राष्ट्रीय चुनाव की तरह माना जा रहा है, क्योंकि इन चुनावों में जो पार्टी जीतेगी, वह 2024 के लोकसभा चुनाव में भी अपना रंग जमा सकती है। दूसरे शब्दों में ये प्रांतीय चुनाव, राष्ट्रीय चुनाव के पूर्व राग सिद्ध हो सकते हैं।
इन पांचों राज्यों में यों तो कुल मिलाकर 690 सीटें हैं, जो कि विधानसभाओं की कुल सीटों का सिर्फ़ 17 प्रतिशत है लेकिन यदि इन सीटों पर विरोधी दलों को बहुमत मिल गया तो वे अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती बन जाएंगे।
चुनाव आयोग ने इन चुनावों की घोषणा करते हुए बड़ी सावधानियों का परिचय दिया है। उसने अभी एक हफ्ते के लिए रैलियों, प्रदर्शनों, सभाओं, जत्थों आदि पर प्रतिबंध लगा दिया है लेकिन मुझे लगता है कि यह प्रतिबंध आगे भी बढ़ेगा, क्योंकि जिस रफ्तार से महामारी फैल रही है, यह चुनाव स्थगित भी हो सकता है।
आयोग ने अपने सभी चुनाव कर्मचारियों का टीकाकरण कर दिया है लेकिन करोड़ों मतदाताओं से महामारी-प्रतिबंधों के पालन की आशा करना आकाश में फूल खिलाने जैसी हसरत है।
हमने पहले भी बंगाल और बिहार के चुनावों में भीड़ का बर्ताव देखा और पिछले एक- डेढ़ माह से इन राज्यों में भी देख रहे हैं। कहीं ऐसा न हो कि अगले हफ्ते का प्रतिबंध खुलते ही महामारी का दरवाजा भी खुल जाए।
हो सकता है कि प्रतिबंधों को आगे बढ़ाया जाए और राजनीतिक दलों से कहा जाए कि वे लाखों की भीड़ जुटाने की बजाय चुनाव-प्रचार डिजिटल विधि से करें ताकि लोग घर बैठे ही नेताओं के भाषण सुन सकें!
यह सोच तो बहुत अच्छा है लेकिन देश के करोड़ों ग़रीब, ग्रामीण और अशिक्षित लोग क्या इस डिजिटल विधि का उपयोग कर सकेंगे? यह ठीक है कि इस विधि का प्रयोग उम्मीदवारों का ख़र्च घटा देगा। सबसे ज़्यादा ख़र्च तो सभाओं, जुलूसों और लोगों को चुनावी लड्डू बांटने में ही होता है। इससे भ्रष्टाचार ज़रूर घटेगा लेकिन लोकतंत्र की गुणवत्ता भी घटेगी। हो सकता है कि इन चुनावों के बाद डिजिटल प्रचार, डिजिटल मतदान और डिजिटल परिणाम की कुछ बेहतर व्यवस्था का जन्म हो जाए।
चुनाव आयोग यदि इस तथ्य पर भी ध्यान देता तो बेहतर होता कि पार्टियाँ मतदाताओं को चुनावी रिश्वत नहीं देतीं। पिछले एक माह में लगभग सभी पार्टियों ने बिजली, पानी, अनाज, नकद आदि रूपों में मतदाताओं के लिए जबर्दस्त थोक रियायतों की घोषणा की है। यह रिश्वत नहीं तो क्या है? जो लोग करदाता हैं, उनकी जेबें काटने में नेताओं को ज़रा भी शर्म नहीं आती। आम लोगों को इसी वक़्त ये जो चूसनियां बाटी गई हैं या उनके वादे किए गए हैं, आयोग को उस पर भी कुछ कार्रवाई करनी चाहिए थी।
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)