इस बार की दुर्गा है विस्थापित मज़दूरिन
उसकी देह मिट्टी के रंग की है। कपड़ों का रंग भी मटमैला है। माथे पर सिन्दूर का टीका पुंछा हुआ है। वह एक हाथ से नंग-धड़ंग बच्चे को उठाये हुए है और उसके आगे-पीछे एक बेटी और एक बेटा हैं। उसके बाकी आठ हाथों में राशन के थैले हैं।
यह इस वर्ष की नयी दुर्गा है-कोविड-19 की महामारी में बेरोज़गार, विस्थापित और पैदल घर लौटती हुई मज़दूरिन। लॉकडाउन में सरकारी अव्यवस्था के कारण जो एक करोड़ मजदूर और छोटे-छोटे कामों में लगे लोग विस्थापित हुए, उनका प्रतिनिधित्व करती हुई एक छवि। उसके साथ बच्चे कार्तिकेय, गणेश और लक्ष्मी के प्रतीक हैं। यह पूजा पंडाल में प्रदर्शित एक मार्मिक छवि है, जिसकी मुख्य चिंता अपनी और अपने परिवार की भूख से लड़ना और उसे बचाना है।
फीका त्यौहार
दुर्गा पूजा पर कोलकाता के कलाकार किसी नए विचार या घटना और नयी कल्पना को मूर्त रूप देने के लिए देश ही नहीं, विदेशों में भी मशहूर रहे हैं। इस बार पूजा में वह भव्यता, रौनक और गहमागहमी नहीं है जो पहले होती थी। महामारी को फैलने से रोकने के लिए उच्च न्यायालय ने पंडालों में लोगों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, हालांकि पूजा समितियों के विरोध के कारण कुछ ढील दे दी गयी है और एक पंडाल में एक बार 45 से 60 लोग तक जा सकते हैं।कुल मिला कर पूजा के समय या दुर्गा प्रतिमाओं और उनकी सज्जा देखने के लिए जो सैलाब उमड़ता रहा है, वह इस बार नहीं है और बांग्ला समाज का यह सबसे बड़ा त्यौहार फीका और यांत्रिक बन गया है।
कल्पनाशीलता की कमी नहीं
इसके बावजूद पूजा -पंडालों की कल्पनाशीलता में कोई कमी नहीं आयी है। प्रवासी मजदूरों की पीड़ा और हिम्मत के अलावा कोविड महामारी के दृश्यों में बहुत विविधता है: कहीं दुर्गा असुरों की बजाय कांटेदार कोरोना वायरस का वध कर रही है तो कहीं जूट से विशाल आकार का वायरस बनाया गया है, जिसमें कांटो की जगह लाउडस्पीकर लगे हैं। एक और पंडाल ट्रक के आकार का है जिस पर कुछ प्रवासी मजदूर चढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।
कुछ पंडालों में दिन-रात बीमारों की सेवा में लगे, नीले रंग के किट पहने डॉक्टरों-नर्सों को ‘कोरोना योद्धाओं’ के रूप में चित्रित किया गया है। एक पंडाल में दुर्गा के रूप में एक महिला डॉक्टर कोरोना रूपी राक्षस पर भाले की नोक गड़ाए हुए है। दुर्गा को समसामयिक अर्थ देने की यह कोशिश बहुत प्रभावशाली है।
इस थीम से हट कर एक पंडाल सत्यजित राय की प्रसिद्ध फिल्म-त्रयी-‘पथेर पांचाली’, ‘अपूर संसार’ और ‘अपराजितो’- पर आधारित है तो कुछ दूसरे पंडालों में समाज में ट्रांसजेंडर लोगों की स्थिति चित्रित हुई है।
हट कर है प्रतिमा
बारिशा क्लब की मजदूर दुर्गा की मूल कल्पना करने वाले रिंतू दास और उसे गढने वाले पल्लब भौमिक जाने-माने कला निर्देशक हैं। रिंतू दास को यह विचार टेलिविज़न पर प्रवासी मजदूरों को पैदल और भूखे-प्यासे चलते हुए देख कर आया था। वे कहते हैं,
“
‘बच्चों को साथ लेकर मीलों पैदल चलने वाली महिलायें मुझे दुर्गा की प्रतीक लगीं। मुझे लगा, इन मजदूरों की पूजा करनी चाहिए। बारिशा क्लब के पास बजट नहीं था, साधन बहुत कम थे। एक स्थानीय पार्षद ने लॉकडाउन के दौरान अपने इलाके में चावल बांटे थे। मैंने उनसे कहा कि मुझे चावलों के थैले दे दीजिये, मैं उनसे पंडाल बना लूँगा।’
रिंतू दास, कलाकार
रिंतू दास ने यह कृति बिना पारिश्रमिक के बनायी है।
दस्तावेज़
बारिशा क्लब की दुर्गा देखने में मिट्टी की बनी हुई लगती है, लेकिन दरअसल फ़ाइबर ग्लास से बनी है। उसके शिल्पी पल्लब भौमिक कहते हैं, ‘मिटटी का काम जल्दी ख़राब हो जाता है, इसलिए महँगा होने के बावजूद फ़ाइबर ग्लास ही लिया। वैसे भी यह दुर्गा विसर्जन के लिए नहीं है। पूजा और विसर्जन के लिए दूसरी प्रतिमा है। यह तो शिल्प के रूप में एक दौर का दस्तावेज़ है, जिसे सहेज कर संग्रहालय में रखा जाएगा।’
दुर्गा पूजा के ज़्यादातर पंडाल किसी सामयिक राजनीतिक या सामजिक घटना से जुड़े होते हैं और उन पर टिप्पणी भी करते हैं। वह एक तरह की सार्वजनिक कला (‘पब्लिक आर्ट’) है, जो वर्षों से बनती रही है और फिर नष्ट कर दी जाती रही है।
सामाजिक सरोकार
उनके विषयों की विविधता देख कर आश्चर्य होता है। उनमें दुनिया के प्रसिद्ध स्मारक, पुराने साधन और परम्पराएं शामिल हैं जो नष्ट होने के कगार पर हैं। मसलन, पिछले वर्ष एक पंडाल लेटर बॉक्स और पोस्ट कार्ड पर केन्द्रित था, एक पंडाल पानी के संकट पर फोकस करता था और एक जगह टूटे हुए गिलासों, नारियल के खोखों, रस्सियों, डिब्बों आदि से विशाल पंडाल बनाया गया था। एक पंडाल में 50 किलो सोने से 13 फुट ऊंची दुर्गा भी विराजमान थी।कोलकाता की पंडाल-कला सन 2001 से बहुत चर्चा में आयी, जब कई जगह 11 सितम्बर को अमेरिका में ट्विन टावर्स पर हवाई जहाज़ से हुए आतंकी हमले के दृश्य बनाए गए। तब से कलाकार पूजा के वास्तुशिल्पों में नए-नए प्रयोग करके अपनी कला के ज़रिये सामाजिक सरोकार व्यक्त करते आये हैं।
इस कला में कोई स्थायित्व नहीं होता, उसका आकर्षण तीन-चार दिन का होता है, जिसके बाद उसे उखाड़ दिया जाता है, लेकिन उसे बनाने वाले और देखने वाले साल भर उसका इंतज़ार करते हैं।