रक्षा उपकरण बेचने, भारत को चीन से भिड़ाने आ रहे हैं ट्रंप?
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने यह कह कर सबको चौंका दिया है कि इस बार के भारत दौरे पर वह किसी व्यापार समझौते पर दस्तख़त नहीं करेंगे। फिर वह क्यों भारत आ रहे हैं? क्या उनका मक़सद भारत को कुछ दिए बग़ैर अरबों रुपये का रक्षा उपकरण बेचना है? क्या वह चीन की घेराबंदी करने के लिए अपनी प्रशांत महासागर नीति भारत पर थोप उसे दक्षिण एशिया की राजनीति में अपना मुहरा बनाना चाहते हैं?
इन दोनों ही नीतियों से भारत को कोई फ़ायदा नहीं होगा, वह अमेरिका का पिट्ठू ज़रूर साबित होगा। इसके अलावा भारत बेवजह चीन के साथ लंबे समय के लिए सामरिक प्रतिस्पर्द्धा में फँस जाएगा, जिससे इसे कुछ हासिल होने को नहीं है।
भारत की उम्मीदें
वाणिज्य मंत्रालय कई व्यापारिक समझौतों को अंतिम रूप देने में लगा हुआ था। इसमें जनरलाइज़्ड प्रीफरेंस सिस्टम (जीपीएस), ‘विकासशील देशों’ की सूची में भारत की वापसी और दोनों देशों के बीच फ्री ट्रेड एरिया के समझौते शामिल हैं। एफटीए यानी फ्री ट्रेड एरिया पर बीते दो साल से काम चल रहा है, लेकिन अभी भी कई मुद्दे अनसुलझे हैं और अभी तुरन्त समझौते की बात नहीं थी। पर बाकी के दोनों समझौते तो हो ही सकते थे। सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया। अब ऐसा कुछ नहीं होने को है। फिर ट्रंप क्यों आ रहे हैं।
पर्यवेक्षकों का कहना है कि ट्रंप का मक़सद लॉकहीड मार्टिन ग्रुप के बने 24 'सी हॉक' हेलीकॉप्टर भारत को बेचना है। बुधवार को हुई कैबिनेट बैठक में 2.6 अरब डॉलर की इस खरीद पर मुहर लगा दी गई।
ये हेलीकॉप्टर भारतीय नौसेना को मिलेंगे और इससे उसकी हमले कर दुश्मन जहाज़ को नष्ट करने की क्षमता बढ़ेगी। भारत इसके पहले लॉकहीड मार्टिन से ही सुपर हर्क्युलस जहाज़ खरीद चुका है। इसके अलावा भारत ने बोइंग से ग्लोबमास्टर हेवीलिफ़्ट एअरक्राफ़्ट भी खरीदे हैं। नई दिल्ली ने अमेरिका से बीते दे दशकों में 18 अरब डॉलर से अधिक के रक्षा उपकरण खरीदे हैं।
भारत को ठेंगा?
लेकिन व्यापार के मुद्दे पर ट्रंप ने अपने हाथ पीछे खींच लिए हैं। अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइटनाइज़र और वाणिज्य मंत्री पियूष गोयल के बीच पहले ही इस पर सहमति बन गई है कि व्यापार समझौते पर अभी और बात होनी है।यह ध्यान देने लायक बात है कि भारत अमेरिका से फ्रेकिंग तकनीक से निकाला गया कच्चा तेल खरीदता है, जो अंतरराष्ट्रीय कच्चा तेल बाज़ार में बहुत लोकप्रिय अभी नहीं है। नई दिल्ली ने 2019 में ही अमेरिका से 7 अरब डॉलर का तेल खरीदा है। अमेरिेकी दबाव में भारत ने ईरान से तेल खरीदना बंद कर दिया है। भारत अमेरिका से बिजली के उपकरण खरीद रहा है, जबकि चीनी उपकरण उससे सस्ते हैं।
ट्रंप की आँख की किरकिरी
इसके बावजूद अमेरिका भारतीय अल्युमिनियम व स्टील उत्पादों पर कोई छूट देने को राजी नहीं है, जो छूट पहले मिलते थे, उन्हें भी बहाल करने को तैयार नहीं है। भारत-अमेरिका के बीच 2019 में 88 अरब डॉलर का व्यापार हुआ, लेकिन इस व्यापार में भारत ने अमेरिका को 17 अरब डॉलर का निर्यात ज्यादा किया है। भारत के पक्ष में झुका यह व्यापार संतुलन अमेरिका को नापसंद है। यही ट्रंप की आँख की किरकिरी है और अमेरिकी राष्ट्रपति भारत की बाँह मरोड़ रहे हैं कि वह और ज़्यादा उत्पाद खरीदे ताकि यह व्यापार असंतुलन ख़त्म हो।अमेरिका की प्रशांत नीति
ट्रंप की इस यात्रा में शीर्ष स्तर पर जो बैठक होगी, उसमें एशिया-प्रशांत पर गंभीर चर्चा होगी। नाम भले ही एशिया-प्रशांत का दिया जाए, पर चर्चा तो दक्षिण चीन सागर पर ही होगी। चीन की विस्तारवादी नीति से दक्षिण चीन सागर के तमाम देश परेशान हैं, पर सबसे ज़्यादा दिक्क़त जापान को है, क्योंकि यह जापान की विस्तारवादी नीति के आड़े आता है।
अमेरिका की दिलचस्पी इसमें है कि जापान एशिया प्रशांत क्षेत्र में दबदबा कायम करे ताकि चीन के प्रभुत्व को बढ़ने से रोका जाए। वॉशिंगटन चाहता है कि भारत इसमें जापान की मदद करे।
ख़राब आर्थिक स्थिति की वजह से जापान भारत के लिए बहुत कुछ नहीं कर सकता है, रक्षा उपकरण में उसकी यह योग्यता नहीं है कि वह भारत की बहुत मदद करे। लेकिन वह भारत पर ध्यान लगाए हुए है कि नई दिल्ली उसे दक्षिण चीन सागर में मदद करे।
दक्षिण चीन सागर में भारत क्यों फँसे?
दक्षिण चीन सागर का इलाक़ा सामरिक ही नहीं, आर्थिक कारणों से भी बेहद संवेदनशील है। यह चीन की संवेदना से जुड़ा हुआ है, उसकी राष्ट्रीयता की भावना से जुड़ा हुआ है, वह इस पर कोई समझौता कर ही नहीं सकता। यह बात दूसरों को समझनी होगी।
भारत अमेरिकी दबाव में आकर बेमतलब के ऐसे विवाद में उलझ जाएगा, जिससे इसे कुछ हासिल होने को नहीं है। चीन कई बार भारत से कह चुका है कि वह इस क्षेत्र की राजनीति से दूर रहे। वैसे भी चीन पर दबाव डालने के सिवा भारत का कोई सामरिक हित इस क्षेत्र में नहीं है।
दक्षिण चीन सागर में सिर्फ वियतनाम के साथ भारत के हित जुड़े हुए हैं और वहाँ ओएनजीसी का अपना एक्सप्लोरेशन रिग भी है जो वियतनामी कंपनी के साथ काम करता है। लेकिन सिर्फ़ इस एक मुद्दे पर चीन से रिश्ते क्यों खराब किए जाएँ, यह समझ के परे है। ख़ास कर तब जब ख़ुद वियतनाम चीन से दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहता और चीन भी उसे पुचकारने में लगा है।
फिलहाल ट्रंप की यात्रा से यह साफ़ है कि यह दौरा उनके अपने हित में है, भारत को कुछ हासिल होने को नहीं है। ट्रंप अमेरिकी चुनाव में अपने पक्ष में इसका इस्तेमाल कर लेंगे, यह तय है। वह दिखाएंगे कि 2.6 अरब डॉलर का सामान भारत में बेच आए, वह भारतीय अमेरिकियों के लिए कोई संदेश मोदी से कहलवा देंगे। पर भारत को कुछ दिए बग़ैर निकल लेंगे। इस दीगर बात है कि भारत में उसके बाद कुछ लोग कहते फिरें कि देखो, मोदी की वजह से पूरी दुनिया में भारत का डंका बज रहा है।