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अमेरिका छोड़ने की बात क्यों करने लगे ट्रंप?

अमेरिका छोड़ने की बात क्यों करने लगे ट्रंप?

नफ़रत और ध्रुवीकरण की राजनीति ने ट्रंप को ऐसी जगह पर पहुँचा दिया है कि अब उन्हें ख़ुद के लिए पलायन के सिवा और कोई रास्ता नज़र नहीं आता।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने दक्षिण पूर्वी राज्य जॉर्जिया की एक चुनावी रैली में कहा, “राष्ट्रपति पद के चुनावों के इतिहास में सबसे कमज़ोर उम्मीदवार के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ने का बहुत बड़ा दबाव है। कल्पना करें कि यदि मैं हार गया तो सारी ज़िंदगी क्या करूँगा मुझे यह कतई अच्छा नहीं लगेगा। हो सकता है कि मुझे देश भी छोड़ना पड़े!”

अफ़्रीका और लातीनी अमेरिका के देशों या पाकिस्तान जैसे अस्थिर देशों के नेताओं को तो सत्ता पलटने या चुनाव हारने के बाद पलायन करते और विदेशों में शरण लेते देखा है लेकिन क्या आपने कल्पना भी की थी कि दुनिया के सबसे पुराने और सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र का राष्ट्रपति भी कभी ऐसी बात करेगा 

नफ़रत और ध्रुवीकरण की राजनीति ने ट्रंप को ऐसी जगह पर पहुँचा दिया है कि अब उन्हें ख़ुद के लिए पलायन के सिवा और कोई रास्ता नज़र नहीं आता।

पलायन की बात क्यों की

सत्ताधारी रिपब्लिकन पार्टी और ट्रंप के समर्थक कहेंगे कि ट्रंप ने यह बात मज़ाक के तौर पर कही थी। लेकिन उनके मज़ाक में छुपी बात की गहराई में उतर कर देखें तो समझ आने लगता है कि पलायन के बारे में सोचने की नौबत क्यों आ गई है। चुनाव हारते ही ट्रंप को कई ऐसे सवालों के जवाब देने के लिए कटघरे में खड़ा होना पड़ सकता है जिनसे वे राष्ट्रपति पद की आड़ लेकर बचते आ रहे हैं। 

पिछले 10 सालों के टैक्स का हिसाब-किताब, चुनावों मे रूसी पैसे और प्रभाव के इस्तेमाल का सवाल और अपने कारोबार के लिए पद के प्रभाव का दुरुपयोग करने के सवाल इनमें प्रमुख हैं।

कोरोना से निपटने में फ़ेल

शायद सबसे बड़ा सवाल कोरोना की महामारी से मारे गए लगभग सवा दो लाख अमेरीकियों और महामारी के फैलने से बर्बाद हुए लाखों अमेरिकी कारोबारों का है जिन्हें बचाने के लिए ट्रंप ने शेख़ी बघारने के सिवा कुछ ख़ास नहीं किया। यह सही है कि अमेरिका जैसे आज़ादी-परस्त देश में चीन, ताईवान और दक्षिणी कोरिया की तरह लोगों पर मास्क, दूरी और सफ़ाई का अनुशासन लादना संभव नहीं था। 

 - Satya Hindi

मिशिगन में ट्रंप की रैली।

लेकिन यदि ट्रंप ने इस महामारी का मज़ाक बना कर लोगों को उकसाने की बजाय इसकी गंभीरता को समझते हुए इसे राष्ट्रीय विपदा के रूप में लिया होता और लोगों को इससे बचाने के लिए एकजुट करने की कोशिश की होती तो अमेरिकी उसी तरह एकजुट हो सकते थे जैसे 11 सितंबर के हमले के बाद आतंकवाद के ख़िलाफ़ हो गए थे।

ऐसा करने के बजाए ट्रंप ने लोगों को इस मुग़ालते में रखा कि अव्वल तो यह महामारी उन तक पहुँचेगी नहीं और यदि पहुँची तो उनके वैज्ञानिक जादुई अंदाज़ में उसे काबू में कर लेंगे। ऐसा न होने पर उन्होंने पहले दूसरे देशों के सिर ठीकरा फोड़ा, फिर अपने वैज्ञानिकों के सिर और अंत में अपने ही देश के राज्यों की उन सरकारों पर जो विरोधी डेमोक्रेट पार्टी की हैं। 

मास्क पहनने और बच कर चलने को कमज़ोर डेमोक्रेटिक विचारधारा का पर्याय बना दिया गया, इसी झमेले में महामारी फैलती गई और अर्थव्यवस्था डूबती गई।

ट्रंप और बाइडन में टक्कर 

नतीजा यह है कि तीन नवंबर का चुनाव इस मुद्दे का जनमत संग्रह बन कर रह गया है कि महामारी को काबू में लाने और अर्थव्यवस्था को बहाल करने के लिए कौन बेहतर है, ट्रंप या जो बाइडन सभी लोगों की ज्ञात और अज्ञात बीमारियों के बीमे की व्यवस्था करने के लिए पूर्व राष्ट्रपति ओबामा द्वारा लाया गया ओबामा केयर कानून भी महामारी के साथ जुड़ कर स्वास्थ्य सेवा के संयुक्त मुद्दे में बदल गया है। 

चुनाव अब दो हफ़्ते दूर भी नहीं है और इन दोनों अहम मुद्दों पर जो बाइडन और कमला हैरिस की जोड़ी देश भर में ट्रंप-पेंस की जोड़ी से 8-9 प्रतिशत के अंतर से आगे चल रही है।

राष्ट्रपति के चुनाव के साथ-साथ अमेरिकी संसद के अवर सदन हाउस ऑफ़ कांग्रेस के भी सभी जन प्रतिनिधियों और प्रवर सदन सेनेट के एक तिहाई सेनेटरों का भी चुनाव होता है जिसकी वजह से सांसद और सेनेटर भी अपने-अपने चुनावों में उलझे हुए हैं। मतदान कराने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों और स्थानीय सरकारों की होती है, जो अपने-अपने कायदे-कानून से मतदान कराती हैं। बहुत से राज्यों में वोटिंग मतदान के तय दिन से कई सप्ताह पहले ही शुरू हो जाती है। इसलिए कई राज्यों में पिछले कई हफ़्तों से मतदान चल रहा है। 

महामारी के डर के बावजूद इस बार मतदान करने वालों की कतारें और संख्या पिछली बार के चुनाव से कहीं लंबी और ज़्यादा हैं जिसे ट्रंप-पेंस की जोड़ी के लिए अच्छा संकेत नहीं माना जा रहा है।

भारतवंशियों की भूमिका 

डेमोक्रेटिक उम्मीदवार और पूर्व उपराष्ट्रपति जो बाइडन के साथ भारतवंशी सेनेटर कमला हैरिस के खड़े होने की वजह से अमेरिका के लगभग 41 लाख भारतवंशी चुनाव में ख़ासे सक्रिय दिखाई देते हैं। संख्याबल की दृष्टि से भारतवंशी समुदाय बहुत बड़ा नहीं है लेकिन आर्थिक संपन्नता और सामाजिक रुतबे के हिसाब से चुनावों में उसका अच्छा प्रभाव रहता है। इसलिए ट्रंप और बाइडन दोनों ही भारतवंशी समुदाय को रिझाने में लगे हैं। 

ट्रंप के बेटे जूनियर ट्रंप ने अपनी पुस्तक ‘लिबरल प्रिवलेज’ के प्रचार के लिए आयोजित एक सभा में भारतवंशियों को डराते हुए कहा कि जो बाइडन का आना भारत के लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि उनकी नीतियाँ चीन को लेकर नरम हैं जिनकी वजह से चीन भारत पर हावी हो सकता है।

बाइडन को मिलेगा समर्थन!

लेकिन पिछले सप्ताह कार्नेगी न्यास द्वारा कराए गए एक जनमत सर्वेक्षण से पता चला है कि भारतवंशियों के लिए इस बार चीन का ख़तरा या भारत-अमेरिका के संबंध उतना बड़ा मुद्दा नहीं हैं जितना कि अर्थव्यवस्था, स्वास्थ्य सेवा और आप्रवासन। महामारी फैलने की वजह से हुई अर्थव्यवस्था की दुर्दशा और स्वास्थ्य बीमे व H1B वीज़ा को लेकर ट्रंप की नीतियों की वजह से भारतवंशियों का ट्रंप से मोहभंग हुआ है। इसलिए केवल 22 प्रतिशत भारतवंशियों ने ट्रंप को वोट देने की इच्छा ज़ाहिर की है जबकि 72 प्रतिशत भारतवंशी जो बाइडन के समर्थन में खड़े नज़र आते हैं।

अमेरिकी चुनाव पर देखिए चर्चा- 

बाइडन के चुनाव प्रचार के लिए भारी मात्रा में जमा हो रहे चंदे के पीछे भी भारतीयों का हाथ बताया जा रहा है। भारतवंशियों की संख्या कैलिफ़ोर्निया, न्यूयॉर्क, न्यू जर्सी, इलिनोय, फ़िलाडेल्फ़िया, पेंसिलवेनिया और टैक्सस में सबसे ज़्यादा है लेकिन वे उन सात स्विंग राज्यों में भी निर्णायक भूमिका अदा कर सकते हैं जो अगले राष्ट्रपति का फ़ैसला करने वाले हैं। 

इनमें पेंसिलवेनिया के अलावा मिनिसोटा, मिशिगन, विसकोन्सिन, जॉर्जिया, फ़्लोरिडा और उत्तरी कैरोलाइना शामिल हैं।

इनमें से सभी राज्यों में मतदान शुरू हो चुका है और चुनाव के लिए मुकर्रर दिन तीन नवंबर के दिन समाप्त हो जाएगा। उसके बाद वोटों की गिनती शुरू होगी जो चार नवंबर की शाम तक पूरी हो जानी चाहिए। लेकिन इस बार ट्रंप और उनकी समर्थक राज्य सरकारों के द्वारा चली जा रही तरह-तरह की चालों की वजह से अंतिम फ़ैसला होने में उसी तरह कई दिन लग सकते हैं जैसा कि सन 2000 के चुनाव में बुश और अल गोर के बीच हुआ था। 

ट्रंप के हार के आसार बनने पर अदालती दाँव-पेच भी शुरू हो सकते हैं क्योंकि ट्रंप बार-बार अपनी रैलियों में दोहराते आ रहे हैं कि वे तभी हार सकते हैं, जब चुनाव में धाँधली हो।

डाक से मतदान पर आपत्ति 

अमेरिका में डाक के ज़रिए मतदान की परंपरा भी है और करोड़ों लोग कतारों में खड़े होने से बचने के लिए इस तरीके से मतदान करना पसंद करते हैं। इस बार महामारी के डर से और भी अधिक लोग ऐसा कर रहे हैं। लेकिन ट्रंप और उनके समर्थकों का आरोप है कि डाक-मतदान धाँधली का ज़रिया है। उनका कहना है कि चीन और रूस जैसे दूसरे देश जाली डाक-मत डलवा कर अमेरिकी चुनाव को हाइजैक करवा रहे हैं। 

अभी तक छान-बीन में ऐसे किसी आरोप की पुष्टि नहीं हुई है। लेकिन ट्रंप और उनके समर्थक आरोप लगाने में विश्वास रखते हैं छानबीन की प्रक्रिया में नहीं। ऐसे में ट्रंप के हारने पर उनके दक्षिणपंथी समर्थक सड़कों पर भी उतर सकते हैं जिसके लिए उन्हें कई बार उकसाया भी जा चुका है। 

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