90 वसंत के पार: कहाँ-कहाँ से गुज़रे सथ्यू
जुलाई महान फ़िल्मकार और रंगशिल्पी एमएस सथ्यू के लिए मानसून की ज़ोरदार बारिश से ज़्यादा ख़ुशी बरसाने वाली साबित होती है। जुलाई उनसे मोहब्बत रखने वालों, दोस्तों और उनके शागिर्दों की शुभकामनाओं और बधाइयों के संदेशों से लबरेज़ रहती है लेकिन मैसूर श्रीनिवास सत्यनारायन की ज़िंदगी में आई सन 2020 की जुलाई की बात ही कुछ और है। इस जुलाई उन्होंने अपने जीवन के 90 सक्रिय वसंत पूरे कर लिए। उनके चाहने वालों के 'हैप्पी बर्थ डे' के पहाड़ के बीच उनके स्टूडेंट और फ़िल्म व थिएटर के मशहूर अभिनेता मसूद अख़्तर ने घोषणा की है कि वह उस्ताद के ऊपर बनाई अपनी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म की प्रस्तुतियाँ पूरे साल देश भर में करेंगे।
सथ्यू साहब की शागिर्दी के 4 दशक के अनुभवों का निचोड़ और अपने टीचर के ऊपर 5 सालों के सघन डॉक्यूमेंटेशन का सारांश है- मसूद अख़्तर की 'कहाँ कहाँ से गुज़रे' (ए मैन ट्रेवलिंग थ्रू टाइम) फ़िल्म। फ़िल्म में अपनी 90 साला ज़िंदगी और अनुभवों की दास्ताँ सुनाने के लिए सेल्युलाइड और प्रोसीनियम की दुनिया के उस्ताद ख़ुद तो मौजूद हैं ही, मनोरंजन की रंग-बिरंगी दुनिया के दूसरे बहुत सारे ख़लीफ़ा भी बेतक़ल्लुफ़ी से अपने अजीज़ की बाबत बतियाते मिलते हैं।
जो लोग एमएस सथ्यू को फ़िल्म और नाटकों का निर्देशक भर मान कर चलते हैं, यह डॉक्यूमेंट्री उनके ज्ञान चक्षु खोलते हुए बताती है कि वह दरअसल कितने बड़े तीसमारखाँ हैं। एक शानदार डिज़ायनर के रूप में फ़िल्मों के सफल कला निर्देशक, नाटकों के मंच परिकल्पनाकार के अलावा वह स्क्रिप्ट राइटर, क़ामयाब कैमरामैन और अनेक 'रंग भवनों (थिएटर ऑडिटोरियम) के डिज़ायनकर्ता भी हैं। कला निर्देशन की अपनी पहली फ़िल्म में 'फ़िल्मफ़ेयर' पुरस्कार (हक़ीक़त, निर्देशक चेतन आनंद - 1964) और स्वतंत्र निर्देशक के रूप में अपनी पहली फ़िल्म 'गर्म हवा' (1973) को 'सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार' प्राप्त करने वाले सथ्यू ने ज़ुल वेलानी के साथ 2 फ़िल्मों ('डाकघर' और 'नया जनम') में भी कला निर्देशक की भूमिका का निर्वाह किया है।
डॉक्यूमेंट्री की शुरुआत क़ैफ़ी आज़मी की आवाज़ में उनके द्वारा कही गई नज़्म की दो लाइनों से होती है (जिसे उन्होंने सथ्यू साहब की फ़िल्म 'गर्म हवा' के लिए कहा था।)-
तक़सीम हुआ मुल्क दिल हो गए टुकड़े टुकड़े
हर सीने में तूफ़ान वहाँ भी था यहाँ भी।
'गर्म हवा' का टाइटिल दिखता है और इसके बाद देश के बड़े फ़िल्मकार मृणाल सेन प्रकट होते हैं। 'गर्म हवा' की चर्चा करते हैं- ‘यह बहुत ही ख़ूबसूरत फ़िल्म है। ऐसी मैंने दुनिया में कहीं और नहीं देखी। पार्टीशन (बँटवारे) पर इससे बेहतर दूसरी कोई फ़िल्म नहीं बनी है।’ मृणाल सेन ने डॉक्यूमेंट्री के अगले भाग में कहा है- ‘एक ब्राह्मण परिवार में जन्मा लड़का! वो मुसलिम फ़ैमिली की अंदरूनी समझ की ऐसी फ़िल्म बना देगा, इसका यक़ीन ही नहीं होता। फ़िल्म देखते हुए मुझे लग रहा था, काश मैं सथ्यू की तरह की एक भी फ़िल्म बना पाता!’
'गर्म हवा' की चर्चा श्याम बेनेगल भी करते हैं। वह इसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते। ‘बहुत ही ईमानदार फ़िल्म है और बड़ी लैंडमार्क भी। ऐसी फ़िल्म न इससे पहले बनी न बाद में।’
सथ्यू के ऐड फ़िल्मों के सहयोगी एलेक पद्मसी कहते हैं “सथ्यू को दोबारा 'गर्म हवा' बनानी चाहिए।" सुप्रसिद्ध निर्देशक गौतम घोष कहते हैं, "हर साल इसे ('गर्म हवा' को) स्टुडेंट और मासेज़ को दिखाई जानी चाहिए।" दशकों से 'सीबीएससी' की राजनीति विज्ञान की बारहवीं कक्षा के कोर्स में संदर्भ सामग्री के रूप में 'गर्म हवा' के अकेली हिंदी फ़िल्म के रूप में मौजूद होने का उल्लेख डॉक्यूमेंट्री करती है।
मसूद की डॉक्यूमेंट्री सथ्यू के समूचे काम को मोटे तौर पर चार हिस्सों में बाँटती है- उनका फ़िल्म निर्देशक रूप, उनका नाट्य निर्देशक स्वरूप, उनका डिज़ाइनर व्यक्तित्व, और छोटा सा हिस्सा उनकी निजी ज़िंदगी के मुतल्लिक़ भी है।
'गर्म हवा'
'गर्म हवा' की स्क्रिप्ट राइटर शमा ज़ैदी बताती हैं- "राजेंद्र सिंह बेदी साहब ने मुझसे कहा- तुम्हें पार्टीशन की कहानी को लेकर कोई फ़िल्म बनानी चाहिए। मैंने पूछा- आप क्यों नहीं बनाते वो बोले तुम्हारी मुसलिम बैकग्राउंड है, तुम्हें बनानी चाहिए। इस्मत (चुग़ताई) आपा से बात हुई। उन्होंने अपनी रिश्तेदार फैमिली को लेकर कहानी लिख डाली। मैंने सथ्यू को (जो सौभाग्यवश उनके पति भी थे), कहानी दिखाई और कहा तुम ट्राई करो, डायरेक्शन मेरे बूते का नहीं। मैंने कहानी कुछ और लोगों के साथ-साथ अपने फ़ादर (कर्नल ज़ैदी जो एएमयू के वीसी भी रहे हैं) को भी सुनाई। उनका रिएक्शन था कि ज़ाती ज़िंदगी की तो यह उम्दा कहानी है लेकिन इसमें पॉलिटिक्स नहीं है और पॉलिटिक्स के बिना आप पार्टीशन को कैसे डिस्कस करेंगे उनकी बात में दम लगा। हमारी इस टीम में क़ैफ़ी (आज़मी) साहब भी शामिल हो गए थे। कहानी का लोकेल लखनऊ का था। हम लोगों ने उसे बदला और आगरा ले गए। तब मैंने और क़ैफ़ी साहब ने स्क्रिप्ट पर काम करना शुरू किया।"
यह सही है कि 'गर्म हवा' को फ़िल्म आलोचकों से लेकर दर्शकों के बीच आशातीत सफलता मिली थी। इसे सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का 'राष्ट्रीय पुरस्कार' भी मिला।
यह फ़िल्म 'कांस अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह' में 'पाम डी ओर' श्रेणी के लिए नामांकित हुई थी और 1981 के 'ऑस्कर' की विदेशी फ़िल्मों की कैटेगरी के लिए इसे भारत की अधिकृत एंट्री के रूप में शामिल किया गया था।
लेकिन सथ्यू स्वयं कन्नड़ और हिंदी में बनी अपनी अगली फ़िल्म 'बारा' / 'सूखा' (अकाल) को अधिक श्रेष्ठ मानते हैं। यह फ़िल्म यू आर अनंतमूर्ति के कन्नड़ भाषा के लघु उपन्यास पर आधारित थी। डॉक्यूमेंट्री में वह कहते हैं- "गर्म हवा' मानवीय संवेदनाओं की ज़मीन पर खड़ी होती है लिहाज़ा आम दर्शकों द्वारा उसे पसंद किया जाना स्वाभाविक है। 'बारा' एक बहुत ही शुष्क परिवेश के भीतर विकसित होती है, इसलिए इसे बनाना भी ज़्यादा मुश्किल था और कलात्मक स्तर पर यह बनी भी बेहतर है।” 'बारा' को भी सर्वश्रेष्ठ कन्नड़ फ़िल्म का 'राष्ट्रीय पुरस्कार' मिला था।
कलात्मक स्तर पर सत्यजीत राय से लेकर श्याम बेनेगल तक और कमर्शियल दुनिया में यश चोपड़ा से लेकर सुभाष घई तक के साथ काम कर चुके मशहूर स्क्रीनप्ले राइटर जावेद सिद्दीक़ी भी डॉक्यूमेंट्री के अपने इंटरव्यू में 'बारा' को सथ्यू की अपेक्षाकृत बेहतर कृति मानते हैं।
कमर्शियल सिनेमा क्यों नहीं
‘क्यों नहीं उन्होंने कभी कमर्शियल सिनेमा की तरफ रुख़ किया’ पूछने पर पद्मश्री एमएस सथ्यू जवाब देते हैं- "मुझे कमर्शियल से कोई चिढ़ नहीं, कुछ प्रपोजल पर बात हुई भी, लेकिन वे इस क़दर फेंटेसी से भरे थे कि हिम्मत नहीं हुई।" फ़िल्म जगत में उन दिनों इस बात की बड़ी चर्चा रही थी- मुशीर आलम और मुहम्मद रियाज़ की दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन अभिनीत फ़िल्म 'शक्ति' के निर्देशन का उन्हें प्रस्ताव मिला था। दरअसल, लंबे समय से दिलीप कुमार की ख़्वाहिश सथ्यू के निर्देशन में काम करने की थी। सलीम-जावेद की इस कहानी में पिता-पुत्र 'कॉन्फ्लिक्ट' में तो सथ्यू की दिलचस्पी थी लेकिन वर्सोवा के क्राइम वर्ल्ड के 'ट्रीटमेंट' से वह सहमत नहीं थे। ये सब उन्हें कपोल-कल्पित लगा। उन्होंने इंकार कर दिया। ऐसा ही प्रस्ताव गुलशन राय की ओर से आया था। उधर, राजकपूर चाहते थे कि उनका कोई प्रोडक्शन वह ऋषि कपूर को लेकर करें। सथ्यू ने इंकार में कहा कि वह थिएटर आर्टिस्ट के साथ ज़्यादा कम्फर्टेबल हैं।
उनकी फ़िल्म 'कहाँ कहाँ से गुज़र गया' (1981) में उन्होंने नए और अनजाने युवाओं के एक समूह को चुना था। अनिल कपूर, पंकज कपूर, मसूद अख़्तर आदि उस समूह के प्रमुख लोगों में थे। फ़िल्म 70 के दशक के राजनीतिक रूप से दिग्भ्रमित युवाओं पर केंद्रित थी जो नक्सली आंदोलन की विचारधारा से उपजे थे। इस फ़िल्म में 15 साल की फ़रह ख़ान भी थी। डॉक्यूमेंट्री में अनिल कपूर कहते हैं- "मैं आज जो कुछ कर पा रहा हूँ वह सथ्यू साब की ट्रेनिंग की बदौलत।"
निर्देशक अजीज़ मिर्ज़ा उनके ‘ज़मीर’ का उल्लेख करते हुए कहते हैं- "हम सब ने अपने को समय-समय पर बेचा, सिर्फ़ सथ्यू ऐसे हैं जिन्होंने ख़ुद को बेचने से इंकार कर दिया।"
एमएस सथ्यू ने हिंदी, उर्दू और कन्नड़ में कुल 9 फ़ीचर फ़िल्मों का निर्देशन किया है। इसके अलावा 15 डॉक्यूमेंट्री और शॉर्ट फ़िल्मों की रचना उनके नाम हैं। 25 ऐड फ़िल्में भी उनके हाथों गढ़ी गई हैं। उन्होंने 11 टीवी धारावाहिकों और टेली फ़िल्मों का निर्देशन भी किया है।
मसूद की डॉक्यूमेंट्री सथ्यू के रंगशिल्प पक्ष को भी विस्तार से 'डिस्कस' करती है। अपने इंटरव्यू में वह कहते हैं- ‘एक थिएटर डायरेक्टर के तौर पर मैं ज़्यादा कम्फ़र्टेबल महसूस करता हूँ।’
शबाना आज़मी उनकी कई नाट्य प्रस्तुतियों में उनकी अभिनेत्री रही हैं। डॉक्यूमेंट्री में उनके साथ के अनुभव का ज़िक्र करते हुए कहती हैं-
"उनके अंदर ज़बरदस्त क़ाबिलियत है। वह 'इल्यूज़न' को 'ब्रेक' करते हैं… 'सफेद कुंडली' (ब्रेख़्ट के नाटक 'कॉकेशियन चॉक सर्कल' का रूपांतरण) में वह स्टेज पर पुल बनाते हैं। मैं बार-बार उस पुल को छूती हूँ। ग़ज़ब का इम्प्रोवाइज़ेशन!"
उन्हें 'इप्टा' तक लाने वाले ए के हंगल थे। हंगल ने उनके 'इप्टा' के लिए किये गए पहले बड़े नाटक 'आख़िरी शमा' में अभिनय किया है। यह नाटक ग़ालिब की पुण्यतिथि के सौ साल के जश्न के उपलक्ष्य में तैयार हुआ था। यह 1857 के विद्रोह की गाथा है, ग़ालिब जिसके गवाह थे। 1969 में इसकी पहली प्रस्तुति दिल्ली के लाल क़िले के 'दीवान-ए-आम में हुई थी। आज 50 साल बाद भी यह नाटक खेला जा रहा है। इस नाटक में ग़ालिब की भूमिका बलराज साहनी ने निभायी थी और शायर ज़ौक़ की दूसरी महत्वपूर्ण भूमिका में हंगल थे। सथ्यू के बारे में हंगल कहते हैं-
“मैंने उनके साथ कई नाटकों में काम किया है और 'गर्म हवा' में तो मैं ख़ैर था ही। नाटक हो या फ़िल्म, सथ्यू हर जगह आपको नयी दिशा देते हैं।"
यूनुस परवेज़ उनके निर्देशन के ‘एक्टर को खुला छोड़ देने’ के पक्ष के क़ायल हैं। स्वयं सथ्यू अभिनेता-निर्देशक रिश्तों के बारे में बोलते हैं-
“मैं एक्टर को अपना करतब दिखाने की पूरी छूट देता हूँ। मैं मूवमेंट चलकर नहीं बताता, सिर्फ़ अपनी 'रिक्वायरमेंट' समझा देता हूँ। जब कोई हाथ से बिल्कुल ही बेहाथ हो जाता है, तभी मैं दखल देता हूँ।”
वरिष्ठ रंगशिल्पी हबीब तनवीर से उनकी दोस्ती मुंबई में शुरू में ही हो गयी थी। बाद में मुंबई से ऊब कर दोनों दिल्ली आ गए जहाँ कुदसिया ज़ैदी (जो आगे चलकर सथ्यू की सास बनीं) के 'हिन्दुस्तानी थिएटर' में उन्होंने साथ में काम किया। बाद में हबीब लन्दन चले गए और सथ्यू मुंबई लौट गए। उनकी कलात्मक क्षमताओं का उल्लेख करते हुए हबीब तनवीर कहते हैं- ‘सथ्यू की रूचि शुरू से आर्ट और एनिमेशन में थी। वह नाटकों को भी उसी नज़र से देखते आए हैं।’
डिज़ाइनर अवतार
एमएस सथ्यू के डिज़ाइनर अवतार का उल्लेख करते हुए मशहूर फ़िल्म और नाटकों के निर्देशक ज़ुल वेलानी बताते हैं कि उनके पास मंच डिज़ायनिंग की अकल्पनीय क्षमता है। सथ्यू द्वारा किये गए शेक्सपियर के नाटक 'ओथेलो' (निर्देशक ज़ुल वेलानी) के रंग डिज़ाइन का मॉडल आज भी लंदन के 'शेक्सपियर मेमोरियल' में महफ़ूज़ है। डॉक्यूमेंट्री में गुल कहते हैं- ‘मैंने सथ्यू से कहा कि ओथेलो को डिज़ाइन कर दो और उन्होंने उसे झट से कर डाला। वह लाजवाब डिज़ाइनर हैं।’
स्क्रिप्ट राइटर और गीतकार जावेद अख़्तर उनके डिज़ाइन किये गए नाटक 'फ़ैज़ अहमद फ़ैज़' का ज़िक्र करते हैं- ‘सथ्यू मिनिमम सी चीज़ लेकर ऐसा समा बाँध देंगे कि आप कह उठेंगे- भाई वाह! उन्होंने स्टेज पर फ़ैज़ की बड़ी सी तसवीर को बीच से फाड़ कर दो टुकड़ों में कर दिया। लो जी, हो गया मुल्क का बँटवारा!’ यूनुस परवेज़ उन्हें स्टेज डिज़ाइनिंग की दुनिया में इब्राहिम अल्काज़ी और ख़ालिद चौधरी के अलावा तीसरी बड़ी शख़्सियत मानते हैं। चर्चित मराठी रंग निर्देशक विजया मेहता कहती हैं- "सथ्यू की क्वालिटी है कि वह अगर कोई चीज़ 'कंसीव' करेंगे तो उसे बहुत एंगल से देखेंगे, जाँचेंगे, और फुल्ली सैटिस्फाई होने के बाद ही उसे फ़ाइनल मानेंगे।" सथ्यू ने हबीब तनवीर के नाटक 'आगरा बाज़ार' (1954) को आगरा की चंद तसवीरें देखकर डिज़ाइन किया था, जो लम्बे समय तक चर्चा में रहा।
शमा ज़ैदी सथ्यू के डिज़ाइनर को उनके निर्देशक की तुलना में बड़ा मानती हैं। ‘हिन्दुस्तान में जो कुछ अच्छे डिज़ायनर हैं, सथ्यू उनमें से एक हैं। वह अच्छे निर्देशक में नहीं आते’, वह कहती हैं।
स्वयं सथ्यू अपनी मंच परिकल्पना के बारे में कहते हैं ‘मैं स्टेज पर बहुत ज़्यादा प्रॉप्स रखना पसंद नहीं करता ताकि एक्टर को ज़्यादा जगह मिल जाये।’ डॉक्यूमेंट्री बंगलौर में उन रंग भवनों को भी दिखाती है जिन्हें सथ्यू ने डिज़ाइन किया है। 'रंग शंकरा', 'सेवासदन', 'कूल थिएटर', बाल भवन', आदि-आदि एक एक करके 'फ़्रेम इन' और 'आउट' होते हैं।
मसूद ने सथ्यू की जीवनी के हलके-फुल्के रंग भी अपनी डॉक्यूमेंट्री में उकेरे हैं। फ़िल्म की शुरुआत में मैसूर ने दिखाया है। सथ्यू यहाँ-वहाँ घूम-फिर रहे हैं। वह ख़ुद बताते हैं कि उनका अंतिम नाम सत्यनारायन होने के चलते बचपन में घर वाले सथ्यू (दक्षिण में 'त' को 'थ' कहने का चलन है) कहकर बुलाते थे। बड़े होने पर भी 'सथ्यू' नाम टैग की तरह चिपका रहा और फिर तो यह स्थाई भाव बन गया। सथ्यू का जन्म और कॉलेज तक की शिक्षा यहीं होती है। 'मैसूर सेन्ट्रल कॉलेज' 'फ़्रेम इन' करता है। सथ्यू बताते हैं कि वह कोई संजीदा छात्र नहीं थे। उनका दिल नाटक और सिनेमा में रमा रहता था। सन 52 में वह पढ़ाई बीच में छोड़कर मुंबई भाग गए, उन्हें फ़िल्मकार जो बनना था। वहाँ जाकर वह चेतन आनंद के यहाँ सहायक निर्देशक की नौकरी पा गए। और फिर शुरू होती है उनकी फ़िल्म निर्माण की यात्रा।
पति कैसे हैं
वह कलाकार तो उम्दा हैं, सवाल यह है कि वह पति कैसे हैं जवाब देती हैं शमा- ‘उम्दा। मेरा बहुत ख़्याल रखते हैं। मेरी व्यस्तता में खाना बनाने से लेकर बच्चों की परवरिश-सब कुछ वही करते आये हैं।’ विभिन्न शॉट्स में सथ्यू खाना भी बनाते दिखते हैं, कॉफ़ी बना रहे हैं। अपनी पुरानी कार की मरम्मत करते भी दिखते हैं। वह वे सारे ज़रूरी काम-काज करते दिखते जो एक जनतांत्रिक प्रवृत्ति वाले इंसान को अपने घर में बिना संकोच करने चाहिए।
शमा को इस बात की कोई शिकायत नहीं कि सथ्यू ने कुछ ठीक से कमाया-धमाया नहीं। अरुन्धति कहती हैं- ‘किसी से मेहनताना मांगते ही नहीं। जो कोई उन्हें कुछ भी कमती-ज्यादा पकड़ा दे, चुपचाप रख लेते हैं।’ जावेद अख़्तर मुस्कराते हैं- ‘इनकम टैक्स वालों को यह भी मालूम करना चाहिए कि जब यह सारा काम मुफ़्त में करते रहते है तो इनका घर- ख़र्च कैसे चलता है
जिस 'गर्म हवा' ने सथ्यू को कहाँ से कहाँ पहुँचाया, बॉक्स ऑफ़िस पर अलबत्ता ये बड़ा कमाल हासिल नहीं कर सकी। बताया जाता है कि कई साल तक सथ्यू को 'एनएफ़डीसी' (नेशनल फ़िल्म डवलपमेंट कॉर्पोरेशन) और 'एफ़एफ़सी (फ़िल्म फ़िनेंस कॉर्पोरेशन) का लोन अपनी और अपने दोस्तों की जेब से चुकाना पड़ा था।
जैसा गुरु वैसा चेला। मसूद ने क़रीब 6 घंटे की समूची शूटिंग अपनी एक्टिंग की एवज़ में मिले मेहनताने में से पैसे बचा कर पूरी की है। मैसूर, बेंगलुरु, मुंबई, कोलकाता, लखनऊ, अपनी कैमरा यूनिट के साथ सब जगह सथ्यू को 'फ़ॉलो' करते रहे। उन्होंने फ़िल्म के 2 'वर्ज़न' बनाये हैं-1 घंटा अवधि और दो घंटा अवधि के। वह इस बात से दुखी हैं कि जिस 'संगीत नाटक अकादमी' ने उन्हें अपने पुरस्कार और 'फेलोशिप' से नवाज़ा, वह उनकी फ़िल्म ख़रीदने को तैयार नहीं। 'दूरदर्शन' ने भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।
मसूद की ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा 'इप्टा' के साथ गुज़रा है। इन दिनों वह मुंबई 'इप्टा’ के महासचिव हैं। इप्टा ने ही उनकी ज़िंदगी में नाटक दिए और इप्टा ने ही उन्हें सथ्यू से मिलवाया। सथ्यू की शागिर्दी में उन्होंने एक्टिंग सीखी और उन्हीं के 'चरणों' में बैठकर शॉट्स लेने सीखे।
'क्या यह डॉक्यूमेंट्री उनकी ओर से गुरु को दी जाने वाली गुरु दक्षिणा है'
मेरा सवाल सुनकर मसूद कुछ क्षण मुस्कराते हैं और फिर जवाब देते हैं ‘लेकिन सथ्यू साब द्रोणाचार्य नहीं हैं।’