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दिवाली: उत्सव मनाने वाले समाज में नफ़रत का क्या काम?

दिवाली: उत्सव मनाने वाले समाज में नफ़रत का क्या काम?

एक ही पूजा घर में भिन्न भिन्न देवी देवताओं की छवियों से हिंदू मन में कभी भी दुविधा या भ्रम नहीं होता। अगर देवी देवता मात्र अलग अलग रूपाकार नहीं, अलग-अलग विचारों या भावों का प्रतिनिधित्व करते हैं तो क्या उनके अर्थ पर कभी सामाजिक विचार किया गया है?

दीपावली को राम के अयोध्या पुनरागमन की ख़ुशी का त्योहार माना जाता है। लेकिन इस दिन गणेश और लक्ष्मी की पूजा भी की जाती है।दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में इसे नरक चतुर्दशी के रूप में मनाया जाता है। नरकासुर की पराजय का दिन। कुछ वर्षों से हिंदू आबादी का ही एक हिस्सा इसे नरकासुर के स्मृति दिवस के तौर पर मनाता है। वह आज की दीपावली की प्रचलित समझ से ठीक उलट वृत्तांत प्रस्तुत  करती है। अब तक इस अंतर्विरोध पर हिंदू समाज ने बात नहीं की है।

एक बड़ी आबादी इसे काली की आराधना का दिन मानती है। क्या एक को दूसरे से अधिक महत्त्व दिया जा सकता है? हिंदुओं की विशेषता मानी जाती रही है कि वे सभी देवी देवताओं को समान महत्त्व देते हैं। प्रत्येक का अपना स्थान है। अपनी उपयोगिता। दूसरी धार्मिक परंपराओं के अभ्यासियों को यह अटपटा लगता रहा है। लेकिन इसे हिंदुओं की सहज उदारता का प्रमाण भी माना जाता है। वे स्वभावतः विविधता में विश्वास करते हैं। इसे थोड़ा आगे बढ़ाते हुए यह भी दावा किया जाता है कि इतने देवी देवताओं की उपस्थिति का अर्थ ही है कि यह समाज सहअस्तित्व में यक़ीन करता है और किसी को अलग कर ही नहीं सकता। इसलिए इसके असहिष्णु होने का सवाल ही नहीं पैदा होता। 

एक ही पूजा घर में भिन्न भिन्न देवी देवताओं की छवियों से हिंदू मन में कभी भी दुविधा या भ्रम नहीं होता। लेकिन इस सहज स्वीकार में एक दिमाग़ी आलस्य भी हो सकता है। जब जिसकी ज़रूरत, तब उसकी पूजा करने वाले समाज की कोई एक प्रतिबद्धता है या नहीं, यह प्रश्न हमने नहीं किया है। जिसे उदारता या विविधता के प्रिय स्वागत भाव कहते हैं, कहीं वह अवसरवाद तो नहीं? या यह समाज सुविधापरस्त तो नहीं कि सहूलियत के मुताबिक़, वक़्त ज़रूरत के अनुसार आराध्य का चुनाव कर लेता है? 

अगर देवी देवता मात्र अलग अलग रूपाकार नहीं, अलग-अलग विचारों या भावों का प्रतिनिधित्व करते हैं तो क्या उनके अर्थ पर कभी सामाजिक विचार किया गया है?

आज के समय पर जब इतिहासकार विचार करेंगे तो उन्हें ऐसा जान पड़ेगा कि यह हिंदुओं के बीच धर्म के उभार का समय था। मंदिरों का निर्माण, राज्य द्वारा हिन्दुओं के लिए महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थलों का साज सँवार, उन्हें राजकीय संरक्षण, प्रतिष्ठा दी जा रही थी। राज्य खुद को हिंदुओं के राज्य के रूप में ही प्रस्तुत कर रहा था। इसके प्रमाण विज्ञापनों, राजकीय घोषणाओं और अन्य रूपों में मिलेंगे। हम तो आँखों देख रहे हैं जिसे बाद में इतिहासज्ञ अभिलेखागारों में खोजेंगे। लेकिन उन्हें दूसरे प्रमाण भी मिलेंगे। इसके कि विविध प्रकार के देवी देवताओं का उत्सव मनाने वाला समाज, अपने धर्म के उत्कर्ष काल में खुद से भिन्न मनुष्यों से घृणा करता था, उनके खिलाफ हिंसा करता था। इसके प्रमाण उन्हें प्रचुरता से मिलेंगे। फिर उनके बीच इस पर बहस होगी कि करोड़ों देवी देवताओं के साथ रहने की आदत जिस समाज को थी, वह भिन्न प्रकार के मनुष्यों के साथ रहने में इतनी असुविधा क्यों महसूस करता था? 

वे धार्मिक स्वभाव और सामाजिक स्वभाव में इस खाई को समझने की कोशिश करेंगे। खोजेंगे कि क्या इस सवाल पर हिंदुओं के बीच कोई बहस मुबाहिसा हुआ था? और वे इसका समाधान नहीं कर पाएँगे कि जिस समाज को अपने तर्कशील होने का अभिमान था, उसने उसी सवाल को नज़रअंदाज कर दिया जो उसके समय का सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल था। लेकिन क्या हम इतिहासकारों को इस दुविधा से बचा नहीं सकते?

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