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चुनाव बाद बढ़ेंगे डीजल-पेट्रोल के दाम? तेल कंपनियाँ तय करती हैं या सरकार

चुनाव बाद बढ़ेंगे डीजल-पेट्रोल के दाम? तेल कंपनियाँ तय करती हैं या सरकार

डीजल-पेट्रोल के दाम कम करने की मांग होने पर सरकार क्यों दलील देती है कि क़ीमतें तेल कंपनियाँ तय करती हैं और यह अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में हर रोज़ के कच्चे तेल के दाम पर निर्भर करता है?

देश में पिछले साढ़े तीन महीने यानी क़रीब 100 दिन से डीजल-पेट्रोल के दाम नहीं बढ़े हैं। जबकि इस दौरान अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम क़रीब 85 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर क़रीब 100 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच गया है। प्रति बैरल 1 डॉलर से भी कम की बढ़ोतरी होने पर भी डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ाने वाली भारतीय तेल कंपनियाँ क़रीब 15 डॉलर यानी 18 फ़ीसदी बढ़ोतरी के बाद भी दाम क्यों नहीं बढ़ा रही हैं? आखिर वे नुक़सान क्यों सह रही हैं? 

इससे पहले देश में डीजल-पेट्रोल के दाम 2 नवंबर को बढ़े थे। उस दिन पेट्रोल के दाम लगातार सातवें दिन बढ़े थे और दिल्ली में पेट्रोल 110.04 रुपए प्रति लीटर पर पहुँच गया था और डीजल 98.42 रुपए पर था। उसी दिन 13 राज्यों में उपचुनाव के नतीजे आए थे। वे नतीजे बीजेपी के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं थे। और फिर 3 नवंबर को केंद्र सरकार ने उत्पाद शुल्क में कटौती का फ़ैसला लिया। 

मोदी सरकार ने 3 नवंबर को फ़ैसला लिया कि सरकार पेट्रोल और डीजल पर पाँच और 10 रुपये का उत्पाद शुल्क कम करेगी और यह फ़ैसला दिवाली के दिन लागू होगा। इससे यह दिखाने की कोशिश भी थी कि सरकार का टैक्स पर नियंत्रण है इसलिए वह इसे कम कर रही है और तेल के दाम तय करना तेल कंपनियों के हाथ में है।

लेकिन सरकार के इस दावे पर सवाल उठ रहे हैं कि क्या सच में तेल की क़ीमतें सरकारी तेल कंपनियों के हाथ में है? आख़िर तेल कंपनियों की क्या मजबूरी है कि उसने 100 दिन से घाटा उठाते हुए दाम नहीं बढ़ाए हैं? ये वही तेल कंपनियाँ हैं जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम बेहद कम होने के बाद भी डीजल पेट्रोल के दाम कम नहीं किए और किए भी तो कभी-कभार नाम मात्र के।

पिछले साल फ़रवरी में फाइनेंशियल एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक़ मोदी सरकार के तब के साढ़े छह साल के कार्यकाल के दौरान क्रूड ऑयल यानी कच्चे तेल की कीमतें करीब 40 फीसदी घट गई थीं। जनवरी 2020 में 1 लीटर कच्चा तेल 28.84 रुपये प्रति लीटर था, तब दिल्ली में 1 लीटर पेट्रोल 77.79 रुपये का था जबकि जनवरी 2021 में 1 लीटर कच्चा तेल सस्ता होकर 25.20 रुपये का था तो 1 लीटर पेट्रोल 87 रुपये से ज़्यादा का हो गया था।

इससे सवाल उठता है कि जब क़ीमतें अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के दाम से तय होती हैं तो कच्चे तेल के दाम कम होने के बाद भी देश में पेट्रोल और डीजल की क़ीमतें कम क्यों नहीं हुई थीं?

और अब जब अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतें बढ़ गई हैं तो अभी दाम क्यों नहीं बढ़ रहे हैं? क्या इसलिए कि अभी पाँच राज्यों में चुनाव है? चुनाव से तेल कंपनियों का क्या लेनादेना है? 

पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान भी इसी तरह से लंबे समय तक डीजल-पेट्रोल के दामों में बढ़ोतरी नहीं हुई थी। पश्चिम बंगाल में चुनाव नतीजे आते ही पेट्रोल-डीजल के दामों में बढ़ोतरी की गई थी। इससे पहले 2020 में 28 अक्टूबर से 7 नवंबर के दौरान बिहार विधानसभा के चुनाव हुए और 10 नवंबर को नतीजे आए। तब 2 सितंबर से 19 नवंबर के बीच पेट्रोल-डीजल के दाम स्थिर रहे थे और फिर 20 नवंबर से 7 दिसंबर तक 15 बार दाम बढ़े थे। दिल्ली और कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान भी ऐसा ही रवैया देखने को मिला था।

फ़िलहाल, उत्तर प्रदेश सहित देश के पाँच राज्यों में विधानसभा के चुनाव चल रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी लोग कह रहे हैं कि 7 दिसंबर को चुनाव ख़त्म होने के बाद डीजल-पेट्रोल के दाम बढ़ सकते हैं। बता दें कि पाँच राज्यों में 10 मार्च को नतीजे आएँगे।

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