पिछले छह-सात वर्षों से वैसे तो केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ दल की ओर से कैलेंडर देख कर हर मौके पर कोई न कोई इवेंट होता रहता है। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा घोषित तमाम योजनाओं को उपलब्धि की तरह पेश करते हुए आयोजन किए जाते हैं, भले ही उन योजनाओं के कोई सकारात्मक परिणाम न मिले हों। लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा लागू की गई नोटबंदी का कोई जिक्र न तो सरकार की ओर से किया जाता है और न भारतीय जनता पार्टी कभी उसका नाम लेती है। हाल ही में नोटबंदी के पांच साल पूरे होने पर भी उसके बारे में कुछ नहीं कहा गया।
इससे पहले भी आठ नवंबर को नोटबंदी की बरसी पर सरकार और सत्तारूढ़ दल दोनों मौन रहे हैं। इस बार भी दोनों चुप्पी साधे रहे। अलबत्ता इस बार सोशल मीडिया में नोटबंदी छाई रही। इससे पहले कभी भी नोटबंदी को लेकर इस तरह प्रधानमंत्री निशाने पर नहीं आए थे।
पांच साल पूरे होने पर विपक्ष तो हमलावर रहा ही, आम लोगों ने भी सोशल मीडिया में अपनी तकलीफें साझा कीं और प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्रियों के उस समय के भाषणों व बयानों के वीडियो क्लिप शेयर करते हुए उनका मजाक उड़ाया।
संयोग से नोटबंदी की बरसी से ठीक पहले भारतीय रिजर्व बैंक ने भी नक़दी का आंकड़ा जारी किया, जिससे पता चला कि नोटबंदी के समय जितनी नक़दी बाजार में थी उससे 57 फीसदी ज्यादा नक़दी अभी चलन में है। रिजर्व बैंक की इस रिपोर्ट से भी सरकार घिरी।
नोटबंदी के समय सरकार का कहना था कि उसने नोटबंदी के जरिए अर्थव्यवस्था से बाहर गैर क़ानूनी ढंग से रखे धन को निशाना बनाया है, क्योंकि इस धन से भ्रष्टाचार और दूसरी गैर क़ानूनी गतिविधियां बढ़ती हैं। टैक्स बचाने के लिए लोग इस पैसे की जानकारी छुपाते हैं।
बैंकों के पास लौटी नक़दी
सरकार का मानना था कि जिनके पास बड़ी संख्या में गैरक़ानूनी ढंग से जुटाई गई नक़दी है, उनके लिए इसे क़ानूनी तौर पर बदलवा पाना संभव नहीं होगा। लेकिन रिजर्व बैंक की अगस्त, 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक बंद किए गए नोटों का 99.3 फीसदी हिस्सा बैंकों के पास लौट आया है।
नक़दी का मतलब काला धन नहीं
रिजर्व बैंक की यह रिपोर्ट चौंकाने वाली थी और इस बात का संकेत दे रही थी कि लोगों के पास नक़दी के रूप में जिस गैर क़ानूनी या काला धन होने की बात कही जा रही थी, वह सच नहीं थी और अगर सच थी तो यह भी सच है कि लोगों ने अपने काले धन को सफेद यानी क़ानूनी बनाने का रास्ता निकाल लिया था। वैसे नोटबंदी के समय ही प्रो. अरुण कुमार सहित कई जाने-माने अर्थशास्त्रियों ने कहा सरकार की इस धारणा को गलत ठहराया था कि नक़दी का मतलब काला धन होता है। इसलिए नोटबंदी से काला धन खत्म होना ही नहीं था। विदेशों में जमा भारतीयों के काले धन पर तो इसका असर पड़ने का कोई सवाल नहीं था।
नोटबंदी का बचाव
नोटबंदी से काला धन खत्म होने के दावे के साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने दावा किया था और बाद में कई दिनों तक उनके मंत्री भी देश को समझाते रहे कि नोटबंदी से नकली नोटों का चलन भी रुकेगा और आतंकवाद पर भी लगाम लग जाएगी। लेकिन जब काला धन खत्म होने के बजाय बढ़ने के संकेत और सबूत मिलने लगे, 500 और 2000 के नए नोटों की शक्ल में नकली नोट बाजार में आने लगे और आतंकवादी वारदातों में कोई कमी नहीं आई तो नोटबंदी की आलोचना भी तेज़ हुई।
तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पैंतरा बदलते हुए कहा था कि देश में कैशलेस इकनॉमी बनाने यानी नक़दी व्यवहार कम करने के लिए नोटबंदी प्रधानमंत्री का मास्टर स्ट्रोक है।
उस समय के एक अन्य मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा था कि नोटबंदी से देश में देह व्यापार में कमी आई है। कुछ अन्य मंत्रियों ने भी नोटबंदी के फैसले का बचाव करने के लिए इसी तरह के उलजुलूल बयान दिए थे।
57 फीसदी ज्यादा नक़दी
बहरहाल, यह प्रचार आज तक हो रहा है कि नोटबंदी के बाद देश में डिजिटल लेन-देन बढ़ गया है। यह सही है कि तब से अब तक डिजिटल लेन-देन बढ़ा है लेकिन सच यह भी है कि नक़दी पर लोगों की निर्भरता भी पहले से कहीं ज्यादा हो गई है और बैंकों पर लोगों का भरोसा कम हुआ है। भारत में नोटबंदी के पांच साल बाद नोटबंदी से पहले के मुकाबले करीब 57 फीसदी नक़दी ज्यादा हो गई है।
नक़दी पर भरोसा बढ़ा
रिजर्व बैंक की परिभाषा के मुताबिक़ जनता के हाथ में नक़दी होने का मतलब है 'करंसी इन सरकुलेशन माइनस कैश इन बैंक्स’ यानी कुल तरलता में से बैंकों की नक़दी अलग कर दें तो जो बचता है वह लोगों के हाथ की नक़दी है और अभी यह 28 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा है। माना जा रहा है कि कोरोना वायरस की महामारी से पैदा हुए हालात ने भी नक़दी के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ाया है।
लेकिन यह तसवीर का एक पहलू है। इस आंकड़े से कैश बबल पर फैलाए गए सरकार के झूठ की कलई तो खुलती ही है, साथ ही यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि नोटबंदी के फैसले के बाद देश में हाहाकार मचा। जिन रसूखदार लोगों के पास भारी मात्रा में 500 और 1000 के नोट थे, उन्हें तो बैंकों से अपने नोट बदलवाने में कोई परेशानी नहीं हुई।
गंवानी पड़ी जान
लेकिन सीमित आमदनी वाले आम लोगों ने अपनी भविष्य की आवश्यकताओं के लिए जो छोटी-छोटी बचत अपने घरों में कर रखी थी, उन्हें अपने नोट बदलवाने के लिए तमाम तरह की दुश्वारियों का सामना करना पड़ा। उन्हें कई-कई दिनों तक बैंकों की लाइन में लगना पड़ा। इस सिलसिले में उन्हें पुलिस के डंडे भी खाने पड़े और बैंक कर्मचारियों से अपमानित भी होना पड़ा। इसमें 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई।
जिस समय नोटबंदी के चलते देश भर में हाहाकार मचा हुआ था, उसी दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने अपने विदेशी दौरों में अपने इस फैसले के लिए अपनी पीठ थपथपाते हुए इसे साहसिक और एतिहासिक कदम बताया था।
काम-धंधों पर पड़ी मार
नोटबंदी के चलते छोटे-मझौले स्तर के कारोबारियों के काम-धंधे ठप हो गए, जो अब भी पूरी तरह से पटरी पर नहीं लौट पाए हैं। लाखों लोगों को नौकरियां गंवानी पड़ी हैं। आज बेरोजगारी आजाद भारत के इतिहास में सबसे ज्यादा है तो इसकी बड़ी वजह नोटबंदी भी है। जिनके पास रोजगार बचा हुआ है, उनकी आमदनी कम हुई है। किसानों की आत्महत्या का सिलसिला तो बहुत पहले से ही चला आ रहा है, लेकिन नोटबंदी के बाद कई छोटे कारोबारियों और बेरोजगार हुए लोगों ने भी असमय मौत को गले लगाया है और यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है।
जीडीपी ग्रोथ को तगड़ा झटका
अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत गिरने का सिलसिला भी नोटबंदी के बाद ही तेज हुआ है। देश से होने वाले निर्यात में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार कमी आई है। नोटबंदी के कारण पहली बार यह शर्मनाक नौबत आई है कि भारत सरकार को अपना खर्च चलाने के लिए रिजर्व बैंक के रिजर्व कोष से एक बार नहीं, दो-दो बार पैसा लेना पड़ा है और मुनाफे में चल रहे सरकारी उपक्रमों को निजी क्षेत्रों को बेचना पड़ रहा है। इन्हीं हालात के चलते नोटबंदी के बाद जीडीपी ग्रोथ पूरी तरह बैठ गई है।
वित्तीय वर्ष 2015-16 के दौरान जीडीपी की जो ग्रोथ रेट 8 फीसदी के आसपास थी वह पिछले साल 2020-21 में माइनस में 7.3 दर्ज की गई है।
बदतर हुए हालात
संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनडीपी तमाम आंकड़ों के आधार पर बता रही है कि भारत टिकाऊ विकास के मामले में दुनिया के 190 देशों में 117वें स्थान पर है। अमेरिका और जर्मनी की एजेंसियां बताती हैं कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में दुनिया के 116 देशों में भारत 101वें स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र के प्रसन्नता सूचकांक भारत के स्थिति में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। 'वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक-2021’ में भारत को 139वां स्थान मिला है। 149 देशों में भारत का स्थान इतने नीचे है, जितना कि अफ्रीका के कुछ बेहद पिछड़े देशों का है। हैरान करने वाली बात यह है कि इस सूचकांक में पाकिस्तान, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार जैसे छोटे-छोटे पड़ोसी देश भी खुशहाली के मामले में भारत से ऊपर है।
देखिए, नोटबंदी पर चर्चा-
खोखली हुई अर्थव्यवस्था
पिछले दिनों जारी हुई पेंशन सिस्टम की वैश्विक रेटिंग में भी दुनिया के 43देशों में भारत का पेंशन सिस्टम 40वें स्थान पर आया है। उम्रदराज होती आबादी के लिए पेंशन सिस्टम सबसे जरूरी होता है ताकि उसकी सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। भारत इस पैमाने में सबसे नीचे के चार देशों में शामिल है। यह स्थिति भी देश की अर्थव्यवस्था के पूरी तरह खोखली हो जाने की गवाही देती है।
सरकार का कहना है कि कोरोना महामारी ने दुनिया भर की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है। यह सच भी है लेकिन सच यह भी है कि भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना महामारी के पहले ही रसातल में जा चुकी थी और इसकी शुरुआत नोटबंदी के बाद ही शुरू हो गई थी।
50 दिन का समय मांगा था
नोटबंदी के शुरुआती दौर में जब इस फैसले की देश-दुनिया में व्यापक आलोचना हो रही थी और विशेषज्ञों द्वारा सवाल उठाते हुए इसे देश की अर्थव्यवस्था के लिए विध्वंसक फैसला बताया जाने लगा था तो मोदी ने गोवा में एक कार्यक्रम के दौरान भावुक और नाटकीय अंदाज में कहा था, ''मैंने भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए नोटबंदी का कदम उठाया है। मैं जानता हूं कि मैंने कैसी-कैसी ताकतों से लड़ाई मोल ली है। मैं जानता हूं कि कैसे लोग मेरे खिलाफ हो जाएंगे, वे मुझे बर्बाद कर देंगे, मुझे जिंदा नहीं छोड़ेंगे, लेकिन मैं हार नहीं मानूंगा। आप ईमानदारी को बढ़ावा देने के काम में मेरी मदद कीजिए और सिर्फ 50 दिन का समय मुझे दीजिए।’’
मोदी ने यह भाषण नोटबंदी लागू होने के पांचवें दिन बाद यानी 13 नवंबर 2016 को दिया था। उन्होंने कहा था, ''मैंने देश से सिर्फ 50 दिन मांगे हैं। मुझे 30 दिसंबर तक का वक्त दीजिए। उसके बाद अगर मेरी कोई गलती निकल जाए, कोई कमी रह जाए, मेरे इरादे गलत निकल जाएं तो देश जिस चौराहे पर खड़ा करके जो सजा देगा, उसे भुगतने के लिए मैं तैयार हूं।’’
प्रधानमंत्री मोदी के उस भाषण के बाद कई ‘50 दिन’ ही नहीं पूरे 1825 दिन बीत गए हैं, लेकिन वे भूल से भी अब नोटबंदी का जिक्र तक नहीं करते हैं।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नोटबंदी के एक साल बाद 7 नवंबर को संसद में कहा था कि ‘नोटबंदी एक ‘आर्गनाइज्ड (संगठित) लूट और लीगलाइज्ड प्लंडर (क़ानूनी डाका)’ है।
अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के शब्दों में नोटबंदी पूरी रफ्तार से चल रही कार के टायरों पर गोली मार देने जैसा कार्य था। आज नोटबंदी के पांच साल बाद उनका कहा सच साबित हो रहा है। सरकार भी इस हकीकत को समझ चुकी है। इसीलिए उसने अपने अपराध-बोध के चलते नोटबंदी के पांच साल पूरे होने पर पूरी तरह खामोशी बरती और सरकार के ढिंढोरची की भूमिका निभा रहा कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया भी सरकार के पसंदीदा खेल हिंदू-मुसलिम में मगन रहा।