लोकतंत्र की बदहाली, असम से दिल्ली तक
भारतीय संविधान की तीसरी अनुसूची में तमाम अन्य शपथों के अतिरिक्त भारतीय राज्यों के मुख्यमंत्रियों के लिए भी बाध्यकारी शपथ की व्यवस्था की गई है। जिसके अनुसार वह व्यक्ति जिसे मुख्यमंत्री बनना है उसे यह प्रतिज्ञा लेकर कहना होता है कि “मैं,….विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूँगा, मैं..राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करूँगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूँगा।”
एक मुख्यमंत्री से ऐसी शपथ संविधान के प्रति ‘सच्ची श्रद्धा’ के साथ साथ भारत की ‘प्रभुता और अखंडता’ को सुनिश्चित करने का ऐसा वादा है जिसे तोड़े जाने की स्थिति में एक मुख्यमंत्री को अपने पद को तत्काल रिक्त कर देना चाहिए।
असम राज्य की जनता और संविधान के समक्ष राज्य के राज्यपाल की उपस्थिति में कुछ ऐसी ही शपथ लगभग एक वर्ष पूर्व असम के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने भी ली थी। बाल विवाह खत्म करने के नाम पर मुसलमानों के खिलाफ हो रही कार्यवाही को लेकर असम विधानसभा में निर्दलीय विधायक अखिल गोगोई के एक सवाल के जवाब में मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने कहा कि "मैंने कुछ ‘अपने लोगों’ को भी उठाया है, क्योंकि आप (विपक्षी सदस्य) सभी को बुरा लगेगा। कार्रवाई के बाद से मुसलमानों और हिंदुओं की गिरफ्तारी का अनुपात 55:45 है।"
मुख्यमंत्री द्वारा इस्तेमाल किया गया शब्द ‘अपने लोगों’ का सीधा मतलब यह समझ में आता है कि मुसलमानों की गिरफ़्तारी पर विपक्ष शोर मचाता और उसे बुरा लगता इसलिए उनके प्रशासन ने ‘अपने लोगों’ अर्थात हिंदुओं को भी इस आरोप में गिरफ्तार किया है। मेरे समझ में तो ‘अपने लोगों’ का अर्थ हिन्दू ही है बशर्ते मुख्यमंत्री अपने किसी व्यक्तिगत रिश्तेदार का हवाला न दे रहे हों।
असम के मुख्यमंत्री को ‘भारत की अखंडता’ को बाधित करने वाली बात नहीं करनी चाहिए थी। क्या उनकी बात से यह साफ जाहिर नहीं हो रहा है कि वह हिंदुओं को ‘अपने लोग’ मानते हैं और मुसलमानों को गैर? क्या इस तरह वह संविधान के समक्ष ली गई अपनी शपथ से नहीं मुकर रहे हैं? मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का आधार ही वह शपथ है जिसका पालन उन्हे हर हाल में करना चाहिए था चाहे इसके लिए उन्हे कोई भी कीमत चुकानी पड़ती। अब जबकि वह एक खास धर्म को मानने वालों को स्वीकार करने की ‘चुनावी मनःस्थिति’ में नहीं हैं तब उनकी संवैधानिक स्थिति भी बदल दी जानी चाहिए। राज्यपाल को उनका इस्तीफा मांगना चाहिए और इस्तीफा नहीं देने पर राष्ट्रपति से अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर देनी चाहिए क्योंकि अनुच्छेद-356 का संदेश साफ है कि यदि कोई सरकार संवैधानिक प्रावधानों के तहत कार्य नहीं कर रही है तो वहाँ राज्यपाल की सिफारिश के बाद राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है।
संविधान की शुरुआत ‘प्रस्तावना’ से होती है और प्रस्तावना की शुरुआत ‘धर्मनिरपेक्षता’ से जोकि केशवानंद भारती मामले(1973) के अनुसार संविधान के ‘मूल ढांचे’ का हिस्सा है और यदि किसी सरकार का मुखिया ही इस मौलिक लक्षण को अपने कार्यों, वक्तव्यों और मंशा से नकार दे तो क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि वह संविधान के मूल ढांचे को तोड़ने की खतरनाक कोशिश कर रहा है? और ऐसे में उसे उसके पद से तत्काल हटा देना चाहिए।
16वीं शताब्दी में बीजापुर सल्तनत के सुल्तान इब्राहीम आदिलशाह-Ⅱ ने अपनी पुस्तक, ‘किताब-ए-नौरस’, जो देवी देवताओं की स्तुतितों और संगीत को समर्पित थी, में लिखा कि “चाहे एक मुस्लिम और ब्राह्मण की भाषाएं अलग-अलग क्यों न हों, उनकी भावनाएं एक ही हैं”। मुझे नहीं पता यह विचार भारत में कितने अंदर तक पहुँच बना पाया है लेकिन कम से कम इतना तो तय है कि ‘अखंड भारत’ के अनंतकाल तक चलने वाले लोकतंत्र के लिए यह एक आवश्यक अवयव है। डर और अविश्वास का माहौल पैदा कर चुनावी लाभ के लिए एक धर्म के साथ खड़े होकर दूसरे का विरोध करना लोकतंत्र के मूल विचार को चोट पहुंचा रहा है।
लोकतंत्र के मूल पर चोट पहुंचाने की घटना सुदूर उत्तर-पूर्व में ही नहीं हुई है, इस पर चोट पहुँचाने की घटना का एक स्तम्भ भारत की राजधानी दिल्ली में भी है जहां विपक्ष के सांसद सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो डाल रहे हैं जिसमें भारत की संसद में विपक्ष की आवाज को ही ‘म्यूट’ करने की जानकारी मिल रही है। लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल कॉंग्रेस ने ट्विटर पर लिखा “पहले माइक बंद हो जाता था, आज सदन की कार्यवाही ही म्यूट (मौन) कर दी गई है। पीएम मोदी के दोस्त के लिए सदन म्यूट है।”
स्पष्ट है राज्यों में उखड़ रहे लोकतंत्र के स्तंभों की शक्ति का स्रोत दिल्ली में स्थित है। जब प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार को उद्योगपति गौतम अडानी के मुद्दे पर विपक्ष के सवालों का जवाब देना चाहिए तब स्वयं सरकार, जिसके ऊपर संसद चलाने का संसदीय दायित्व है, उसे स्थगित कर दे रही है। क्या सवालों से भागकर लोकतंत्र की सेवा कर पाएगी मोदी सरकार?
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‘भय’ हर किसी के लिए प्रलयंकारी होता है फिर चाहे वह सर्वशक्तिमान हो या कमजोर। भारत में इन दिनों चल रही राजनीतिक परिस्थिति यही संदेश दे रही है।
भारतीय जनता पार्टी एक शक्तिशाली राजनीतिक दल है, उनके पास इस समय नरेंद्र मोदी जैसा विख्यात नेता है जिन्हे पार्टी वैश्विक नेता के रूप में स्थापित करना चाह रही है। उनके पास लोकसभा और राज्यसभा में अपने अनुसार कार्य करने के लिए पर्याप्त संख्या बल है। विभिन्न महत्वपूर्ण राज्यों में उनकी सरकारें हैं। कॉंग्रेस का वर्तमान उसके अतीत से काफी कमजोर नजर आ रहा है लेकिन इसके बावजूद कॉंग्रेस नेता राहुल गाँधी द्वारा की गई ‘भारत जोड़ो यात्रा’, पीएम मोदी और अडानी को लेकर उनके द्वारा उठाए सवालों और यूनाइटेड किंगडम में उनके द्वारा दिए गए भाषणों को लेकर बीजेपी और केंद्र सरकार बुरी तरह भयग्रस्त है।
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भय को ‘प्रतिक्रिया’ से नापा जा सकता है। राहुल गाँधी ने जब लोकसभा में गौतम अडानी, हिंडनबर्ग और पीएम मोदी को लेकर सवाल उठाए तो ‘प्रतिक्रिया’ यह हुई कि उनके सवालों के ज्यादातर हिस्सों को लोकसभा की कार्यवाही के रिकॉर्ड से ही हटा दिया गया।
राहुल गाँधी द्वारा कैंब्रिज में दिए गए लेक्चर, जिसमें उन्होंने भारतीय लोकतंत्र की वर्तमान स्थिति को लेकर चिंता व्यक्त की थी, इसे लेकर सरकार ‘प्रतिक्रिया’ में यह भूल गई कि संसद चलाने का काम उसका है, इतना ही नहीं सत्ताधारी दल भाजपा ने पहले अपने रक्षा मंत्री और बाद में राष्ट्रीय अध्यक्ष को इस काम पर लगा दिया कि वह राहुल गाँधी को उनके द्वारा दिए गए लेक्चर के लिए माफी मांगने पर विवश करें। वर्तमान सत्र में राहुल गाँधी फिर से उन्ही सवालों को उठाना चाहते थे जिनका संबंध पीएम मोदी और अडानी से था। इस मुद्दे को लेकर सरकार में भय इतना अधिक है कि पूरा सत्र ही उसके भेंट चढ़ रहा है।
भारत जोड़ो यात्रा के समापन के दौरान जम्मू कश्मीर राज्य में राहुल गाँधी द्वारा दिए गए भाषण में बलात्कार पीडिता का जिक्र किया गया था जिसने पुलिस के पास जाने से इंकार कर दिया था। अब दिल्ली पुलिस इस मामले का स्वतः संज्ञान लेकर राहुल गाँधी से जवाब मांग रही है कि उस महिला का नाम दें अन्यथा यह माना जाएगा कि आपने गलत नीयत से खबर फैलाई है। दिल्ली पुलिस केन्द्रीय गृहमंत्रालय के अंतर्गत कार्य करती है। अब इसे भारत जोड़ो यात्रा का प्रभाव कहें या अडानी मामले को लेकर राहुल गाँधी के मुखर रवैये से पैदा हुए भय को कहें, सत्तारूढ़ दल से आने वाली ‘प्रतिक्रिया’ की गैर-अनुपातिकता और तर्कहीनता यह बताने में सफल है कि सरकार में भय की जड़ें गहरी हो गई हैं। वरना क्या यह बात पुलिस नहीं जानती कि एक महिला को यह बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता कि उसके साथ यौन-दुर्व्यवहार हुआ है, न ही उसे इस संबंध में शिकायत करने के लिए बाध्य किया जा सकता है, यदि उसे लगता है कि वह ऐसा करने में असुरक्षित हो जाएगी तो उसे पूरा अधिकार है कि वह यह बात सामने न आने दे। यह कार्य तो पुलिस, प्रशासन और सरकार का है कि वह ऐसा व्यवहार, नीतियाँ और माहौल बनाए कि महिलाओं को किसी नेता से नहीं बल्कि पुलिस थाने में जाकर अपनी बात कहने में कोई भय न हो।
क्या दिल्ली पुलिस नहीं जानती कि उन्नाव बलात्कार पीड़िता और उसके परिवार के साथ क्या हुआ था, क्या दिल्ली पुलिस चिन्मयानन्द मामले के बारे में नहीं जानती कि क्या हुआ? क्या दिल्ली पुलिस नहीं जानती कि हाथरस बलात्कार कांड में पीड़िता के परिवार वालों के साथ क्या हुआ था? मुझे लगता है निश्चित रूप से जानती है लेकिन जानबूझकर ऐसी परिस्थितियाँ बनाई जा रही हैं ताकि कोई भी सरकार और प्रशासन के खिलाफ कुछ भी बोलने से पहले डरे!
केंद्र में सत्तासीन सरकार की पूरी ‘प्रतिक्रिया’ गैर-आनुपातिक है। भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने राहुल गाँधी का नाम लेकर कहा कि "लोगों द्वारा बार-बार अस्वीकार किए जाने के बाद भी राहुल गांधी भारत के खिलाफ काम करने वाले ‘‘टूलकिट'' का स्थायी हिस्सा बन गए हैं।" अगर नड्डा की बात सच है तो क्यों न राहुल गाँधी को संसद में बोलने दिया जाए, उनका रास्ता न रोका जाए और वहीं संसद में ही बहस और तर्कों के माध्यम से उनके द्वारा किए जा रहे राष्ट्रविरोधी कार्यों को उजागर कर दिया जाए? पर यहाँ भी एक भय है जो केंद्र सरकार को सता रहा है वह ये कि नरेंद्र मोदी 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से लगातार विदेशों में जाकर भारत, भारत की अर्थव्यवस्था, भारत के पूर्व नेताओं, प्रधानमंत्रियों, भारत के अंदर की अपनी खामियों और यहाँ तक कि भारत के डॉक्टरों के बारे में भी ऐसा बहुत कुछ बोल चुके हैं जिस पर यदि संसद में जवाबी चर्चा हो गई तो सत्ता पक्ष को सदन में बैठना मुश्किल हो जाएगा। अप्रैल 2018 में पीएम मोदी ने लंदन में भारतीय डॉक्टरों के बारे में अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया था जिस पर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अपना विरोध भी दर्शाया था लेकिन प्रधानमंत्री ने अपने बयान पर अफसोस जताया हो या डॉक्टर्स को कोई जवाब दिया हो इसकी जानकारी नहीं है।
केंद्र सरकार जानती है कि राहुल गाँधी तो एक सांसद की हैसियत से विदेश गए थे लेकिन नरेंद्र मोदी विदेशी धरती पर जो संवाद कर रहे थे वह प्रधानमंत्री की हैसियत से था। मूल संविधान में प्रधानमंत्री द्वारा ली जाने वाली शपथ में ‘एकता और अखंडता’ का जिक्र नहीं था। लेकिन 1963 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अनुसूची-3 में संशोधन करके प्रधानमंत्री द्वारा ली जाने वाली शपथ व अन्य शपथों में भी ‘भारत की प्रभुता और अखंडता’ सुनिश्चित करने का कार्य किया।
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एक नेहरू थे जिनके लिए संप्रभुता कितनी अहम थी और एक आज का समय है। भारत के प्रधानमंत्री जिन पर भारत की अपनी गोपनीयता रखने का दायित्व है, जिस पर भारत की प्रभुता और अखंडता का दारोमदार है अगर वही जाकर पुरानी सरकारों, नेताओं और भारत के लोगों को नकारने लगे तब तो देश का संविधान के अनुसार चलना मुश्किल हो जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन, दक्षिण कोरिया, जर्मनी,ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका, क़तर, कनाडा और यूके कुछ नहीं छोड़ा, इन सभी देशों में जाकर उन्होंने ऐसे भाषण दिए जो उन्हे नहीं बोलने चाहिए थे आखिर वह भारत के प्रधानमंत्री हैं।
उनके इन देशों में दिए गए ऐसे भाषणों को आसानी से पब्लिक डोमेन में देखा और सुना जा सकता है।
बाहर जाकर कुछ भी बोलने से पूर्व, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सोचना चाहिए कि दुनिया उन्हे इसलिए सम्मान दे रही है क्योंकि वह भारत के प्रधानमंत्री हैं, वह भारत जो सैकड़ों सालों तक औपनिवेशिक प्रताड़ना झेलने के बाद तमाम चुनौतियों के बावजूद, एक परिपक्व लोकतंत्र के रूप में बना रहा। इसलिए उस भारत के डॉक्टर अपने देश में क्या करते हैं इसकी सूचना विदेशी धरती पर देने की उन्हे कोई जरूरत नहीं थी, उस भारत में भ्रष्टाचार है या नहीं इसकी सूचना किसी विदेशी धरती तक पहुंचाने की जरूरत नहीं थी। मई 2022 में जर्मनी में प्रधानमंत्री मोदी एक रुपये में जिस 85 पैसे के भ्रष्टाचार और ‘पंजे’ का जिक्र कर रहे थे क्या कभी अपने देश की ही संसद में भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत की बदहाल स्थिति के बारे में चर्चा करेंगे? भारत लगातार 2022 और 2023 में इस सूचकांक में 85वें स्थान पर है जोकि भारत में एक भ्रष्ट माहौल की ओर संकेत है।
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बात राहुल गाँधी की नहीं पीएम मोदी की है। उन्हे किसी भी हालत में ऐसा कोई बयान नहीं देना चाहिए जिससे भारत की संप्रभुता खतरे में आए। किसी राजनीतिक दल मुख्यतया विपक्ष के नेता को किसी विदेशी मुद्दे को लेकर न बोलने देना भी भारत की संप्रभुता पर चोट है इससे बचना चाहिए। यदि केंद्रीय विधायिका लोकतान्त्रिक मूल्यों का कठोर संदेश देगी तो राज्यों में चल रही सरकारें देश के फैब्रिक और संविधान के दायरे के बाहर जाने का साहस नहीं करेंगी।
मुद्दा राहुल गाँधी का नहीं बल्कि असम से लेकर दिल्ली तक का है, भारत के लोकतान्त्रिक ढांचे में जो हलचल है वह अप्रत्याशित है। नागरिकों को यह समझना होगा कि सवाल विचारधारा के प्रति आस्था से आगे निकल चुका है। यदि सरकारों से सवाल पूछना ऐसी लक्ज़री बन जाये जिसे आप वहन करने की हालत में ना हों तो इसका मतलब ही है कि आप जिस स्थान पर रह रहे हैं वह लोकतांत्रिक सेटअप नहीं है। इसके बाद इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आपके देश में न्यायपालिका है कि नहीं, न्यायाधीश तेज तर्रार हैं या नहीं, चुनाव होते हैं या नहीं, संसद है या नहीं.. लगभग सबकुछ महत्वहीन है।
जब सरकारों से सवाल पूछने पर आपको इंसेंटिव मिलना चाहिए तब आपको जेल या फर्जी केसों की बौछार मिलती है। जब सरकार के अन्यायपूर्ण रवैये के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए भी आपको न्यायपालिका से सुनवाई की गुहार लगानी पड़े और न्यायाधीश सरकारी वकील और उसकी दलील की ओर ज़्यादा आश्वस्त होता दिखाई दे, तो इसका मतलब है कि आप जिस स्थान पर रह रहे हैं वह अलोकतांत्रिक गतिविधियों के प्रति उदासीन और असंवेदनशील है इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आपके देश की जनसंख्या लाखों में है या अरबों में! असल में आप नहीं चेते तो सच में एक दिन जब भारत में सुबह होगी तो ‘पैरों के नीचे जमीन’ नहीं होगी, बस राख मिलेगी, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की जिसे अभी और चलना चाहिए था।