अगले साल के शुरू में होने वाले दिल्ली नगर निगम के चुनाव राजधानी की राजनीति की दिशा तय करेंगे। नगर निगम चुनावों की धमक बहुत दूर तक सुनाई देती है। दिल्ली नगर निगम के पहले चुनाव 1958 में हुए थे। अब की बीजेपी और तब की जनसंघ ने पहली बार अगर किन्हीं चुनावों में हिस्सा लिया था तो वे दिल्ली नगर निगम के ही चुनाव थे। वहीं से उसकी यात्रा शुरू हुई थी और उसके बाद जनसंघ और फिर बीजेपी पूरे देश में फैली।
दिल्ली नगर निगम के चुनाव बड़ी ही प्रतिष्ठा वाले होते हैं। यही वजह है कि बीजेपी किसी न किसी तरह इन चुनावों को जीतना चाहती है। पांच राज्यों में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के ठीक बाद दिल्ली नगर निगम के चुनाव हैं और पार्टी इन चुनावों को भी उतनी ही तवज्जो देना चाहती है।
पिछली बार दिल्ली नगर निगम चुनावों से ठीक पहले बीजेपी ने एक बड़ा जोखिम उठाया था। तब भी अब जैसे ही हालात थे। आम आदमी पार्टी (आप) ने नगर निगम में भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा बनाया हुआ था। नगर निगम में बीजेपी के पार्षदों को बेईमान और रिश्वतखोर साबित करने में आप ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
सभी के टिकट काटे थे
बीजेपी ने तब एक बड़ा फैसला लेते हुए अपने सारे पार्षदों के टिकट काट दिए और 272 नए चेहरों के साथ मैदान में आ गई। बीजेपी को तब यह मालूम था कि उसके पार्षदों के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी काम कर रही है। इसलिए तमाम चेहरे बदलने का दांव बीजेपी के पक्ष में रहा और बीजेपी ने उत्तरी दिल्ली में 104 में से 64, दक्षिण दिल्ली में 104 में से 70 और पूर्वी दिल्ली में 64 में 47 सीटें जीतकर लगातार तीसरी बार नगर निगम में अपना परचम फहरा दिया। आप तीनों नगर निगमों में कुल मिलाकर 49 और कांग्रेस 31 सीटें जीत सकी।
इस बार बीजेपी के लिए हालात और भी खराब हैं। 15 साल से वह सत्ता में है। आप पिछले छह महीने से भी ज्यादा समय से लगभग रोजाना ही बीजेपी की जड़ें खोदने के लिए नगर निगम में भ्रष्टाचार के सच्चे-झूठे आरोप लगा रही है। बीजेपी इस दौरान लगातार डिफेंसिव मोड में रही है।
सैलरी देना हुआ मुश्किल
केजरीवाल सरकार ने नगर निगम को फंड के मामले में भी जिस तरह लाचार बनाया हुआ है, उसे देखते हुए तीनों ही नगर निगम विकास का कोई काम कराना तो दूर, कर्मचारियों की सैलरी भी नहीं दे पा रहे। नगर निगम के करीब डेढ़ लाख कर्मचारी हैं और लगभग 55 हजार पेंशनर हैं।
नगर निगमों की हालत यह है कि कर्मचारियों को कभी तीन महीने में, कभी छह महीने में वेतन मिल पा रहा है। उसके लिए भी उन्हें अदालत का सहारा लेना पड़ता है।
तब मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल या उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया नगर निगम का फंड जारी करते हुए ऐसे बयान देते हैं जैसे वे भ्रष्टाचार में डूबे निगम को एक पैसा भी नहीं देना चाहते लेकिन कर्मचारियों पर तरस खाते हुए यह राशि दी जा रही है। कभी वे कहते हैं कि आपसे अस्पताल नहीं संभलते तो हमें दे दो और कभी कहते हैं कि स्कूल नहीं संभलते तो हमें दे दो।
2017 के राजनीतिक माहौल पर भी नजर डालें तो उस दौरान आप का सितारा बहुत ज्यादा नहीं चमका था। तब भी पंजाब में वह जीत का दावा कर रही थी लेकिन 20 सीटों पर सीमित रह गई थी।
गोवा में उसके लगभग सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी। इसके अलावा उसी दौरान शुंगलू कमेटी की रिपोर्ट भी आई थी जिसने केजरीवाल सरकार पर कई आरोप लगाए थे जिनमें आप वालंटियरों को दिल्ली सचिवालय में मोटी तनख़्वाह पर नौकरी पर रखना, दिल्ली महिला आयोग में कर्मचारियों की नियुक्ति में धांधली और जल बोर्ड का घोटाला आदि शामिल थे।
बीजेपी ने उन चुनावों को नगर निगम के कामकाज की बजाय दिल्ली सरकार पर जनमत संग्रह में बदल दिया था। तब केजरीवाल सिर्फ बिजली हाफ और पानी माफ के नारे से आगे नहीं बढ़ पाए थे। फ्री वाई-फाई, सीसीटीवी कैमरे, 200 यूनिट तक बिजली मुफ्त, बसों में महिलाओं की मुफ्त यात्रा, बुजुर्गों को मुफ्त तीर्थ यात्रा वगैरह...वगैरह एलान तो नगर निगम चुनावों में हार के बाद ही किए गए थे। उस पर बीजेपी ने अपने सारे पार्षदों के चेहरे बदलकर एंटी इनकम्बेंसी को भी धो दिया था। इस बार आप बेहतर स्थिति में है।
हालांकि नगर निगम चुनावों से पहले पंजाब, यूपी, गोवा और उत्तराखंड में आप के प्रदर्शन पर भी निर्भर करेगा कि उसके पक्ष या विपक्ष में कैसी हवा बनती है लेकिन पार्टी इस बार आत्मविश्वास से लबरेज है।
गुजरात की जीत
सूरत नगर निगम चुनावों में कांग्रेस की जगह मुख्य विपक्ष दल का दर्जा हासिल करना और अभी हाल ही में गांधीनगर में भी 17 फीसदी वोट हासिल करके आप ने काफी उम्मीद संजो ली हैं। पंजाब, गोवा और उत्तराखंड से भी उसे काफी उम्मीदें हैं।
अब सवाल यह है कि बीजेपी के पास इस बार कौन-सा तुरूप का पत्ता है जिसे खेलकर वह दिल्ली नगर निगम के चुनाव जीतना चाहती है। बीजेपी के अंदरूनी सूत्र जिन कदमों की चर्चा कर रहे हैं, उनमें सबसे बड़ा कदम है तीनों नगर निगमों को मिलाकर फिर से एक निगम बनाना।
बीजेपी की रणनीति
दरअसल, बीजेपी दिल्ली की जनता में यह बात घर करवाना चाहती है कि तीनों नगर निगमों का यह हाल इसलिए हुआ है कि दिल्ली सरकार ने नगर निगमों को उसके हिस्से का फंड नहीं दिया। यह सब इसलिए हुआ है कि दिल्ली के तीनों नगर निगम दिल्ली सरकार के रहमोकरम पर हैं। बात सच भी है।
2012 में जब दिल्ली नगर निगम को तीन हिस्सों में बांटा जा रहा था, तभी यह आशंका जाहिर की गई थी कि नगर निगमों में आर्थिक संकट पैदा होगा। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि खासतौर पर उत्तरी दिल्ली नगर निगम और पूर्वी दिल्ली नगर निगम के पास आय के बड़े साधन नहीं हैं।
निगमों में आर्थिक संकट
दक्षिण दिल्ली में पॉश इलाके बहुत ज्यादा हैं, इसीलिए प्रॉपर्टी टैक्स बहुत ज्यादा आता है। बाकी दोनों निगमों में देहात, अनधिकृत कॉलोनियों, 1962 से पहले की आबादी या फिर बेतरतीब कॉलोनियां ज्यादा हैं। इसलिए वहां प्रॉपर्टी टैक्स भी कम आता है। इसके अलावा दक्षिण दिल्ली के इलाकों में विकास पर कम खर्च होता है जबकि बाकी दोनों नगर निगमों में विकास की ज्यादा जरूरत है।
दक्षिण दिल्ली नगर निगम में खर्चे भी कम हैं क्योंकि वहां नगर निगम का कोई बड़ा अस्पताल नहीं है और स्कूल भी कम हैं। उत्तरी दिल्ली निगम में हिंदूराव अस्पताल समेत तीन बड़े अस्पताल हैं और पूर्वी दिल्ली में भी दयानंद अस्पताल है।
अस्पतालों में सैलरी के अलावा और भी बहुत ज्यादा खर्चे होते हैं। यही वजह है कि 2012 में ही कहा गया था कि नगर निगम का विभाजन उत्तरी और पूर्वी दिल्ली के लिए घातक होगा। तब मुख्यमंत्री शीला दीक्षित हर हालत में नगर निगम के विभाजन पर आमादा थीं।
वह नगर निगम से रामबाबू शर्मा जैसा कोई नेता आगे नहीं बढ़ने देना चाहती थीं जो बाद में उन्हें चुनौती दे सके। 2012 से पहले दिल्ली नगर निगम को सीधे केंद्र से ही फंड जारी किया जाता था। इसीलिए उन्होंने दिल्ली सरकार में स्थानीय प्रशासन नाम से नया विभाग बनवाकर निगम के खर्चों को वहन करने की जिम्मेदारी दिल्ली सरकार पर ही डाल दी।
जहां तक केजरीवाल का सवाल है, उन्हें नियमों और परंपराओं पर चलने की आदत नहीं है। इसीलिए उन्होंने तीनों नगर निगमों को पंगु बना दिया है।
बीजेपी की मांग
ऐसी हालत में अब बीजेपी के पास एक ही विकल्प बचता है कि वह जनता के सामने यही मुद्दा लेकर जाए कि केजरीवाल ने तीनों नगर निगमों को तबाह कर दिया है। इसलिए मजबूर होकर नगर निगम को एक करना पड़ रहा है।
जहां तक बीजेपी की इस रणनीति पर अमल करने का सवाल है तो पिछले महीने बीजेपी के कई वरिष्ठ नेता केंद्र सरकार से मिलकर नगर निगमों को एक करने की मांग कर चुके हैं। इसके अलावा नगर निगम की कर्मचारी यूनियनों से भी यही मांग करवाकर माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है।
उत्तरी दिल्ली नगर निगम के पूर्व मेयर जयप्रकाश तो खुलेआम इसकी वकालत कर चुके हैं। यानी बीजेपी में यह चर्चा तो चल रही है लेकिन इसके साथ हैरानी इस बात की भी है कि बीजेपी न जाने क्यों अभी इस मामले में तेजी से काम नहीं कर रही।
शायद उसे आशंका है कि केजरीवाल इस चाल का कोई तोड़ निकाल सकते हैं। इसीलिए बीजेपी एकदम से इस विकल्प को लेकर आएगी-ठीक उसी तरह जैसे एकाएक राष्ट्रीय राजधानी एक्ट में संशोधन करके उपराज्यपाल को ज्यादा अधिकार दे दिए गए हैं।
इसके लिए दिल्ली विधानसभा की सहमति या फिर दिल्ली सरकार के किसी प्रस्ताव अथवा उपराज्यपाल से उसके अनुमोदन की भी जरूरत नहीं है। जिस तरह केंद्र सरकार ने संसद में बिल लाकर दिल्ली नगर निगम को तीन हिस्सों में बांट दिया था, उसी तरह की प्रक्रिया से केंद्र सरकार तीनों नगर निगमों को मिलाकर फिर से एक कर सकती है।