हिंदी रंगमंच कई तरह के संकटों से लगातार जूझता रहा है और इनमें तीन संकट तो कई दशकों से मौजूद हैं- पहला है कि दर्शक नहीं है (यानी कम हैं), दूसरा है ऑडिटोरियम मंहगे हैं, तीसरा है अभिनेता लंबे समय तक नहीं टिकते यानी फिल्मों या टीवी/ वेबसीरिज में काम करने के लिए मुबंई भाग जाते हैं। पर दिल्ली के हिंदी रंगमंच पर अब चौथा संकट आ गया है कर यानी टैक्स का। कर बोझ का।
पिछले दिनों भारत के संसद में टैक्स टेररिज्म (कर आतंकवाद) की काफी चर्चा हुई। पर दिल्ली रंगमंच के सामने जो नया संकट आया है वो सबसे दमनकारी किस्म का टैक्स टेररिज्म है क्योंकि इससे नाटकों और दूसरी प्रदर्शनकारी कलाओं की दुनिया इतनी बुरी तरह क्षत विक्षत होगी कि ठीक से बसे बिना ही उजड़ जाएगी। ये कुछ कुछ इसी तरह का मामला है जैसे शहरों में बस्तियां उजाड़ी जाती हैं या उन पर बुल़डोजर चलाए जाते हैं।
क्या है ये ख़तरा?
संक्षेप में दिल्ली नगर निगम के एक नए आदेश के मुताबिक दिल्ली में किसी भी ऑडिटोरियम में नाटक, नृत्य और संगीत के किसी कार्यक्रम के लिए एक नए पोर्टल पर आवेदन देना होगा। इसका नाम `दिल्ली में भोजन/ आवास और बोर्डिंग प्रतिष्ठानों के लाइसेंस के लिए एकीकृत पोर्टल’ है। यानी रंगमंच, संगीत, नृत्य या दूसरे सांस्कृतिक आयोजनों के लिए इस पोर्टल पर आवेदन देना होगा और हर प्रस्तुति के लिए एक हजार रुपए का शुल्क देना होगा। इसके अलावा बिजली, पेस्ट कंट्रोल, अग्निशामक की सुविधाओं का भी ध्यान रखना होगा और फिर प्रस्तुति के पहले दिल्ली पुलिस से भी स्वीकृति लेनी होगी। इसका भी शुल्क देना होगा। कुल मिलाकर दिल्ली में रंगमंच करना एक बाधा दौड़ में भाग लेने जैसा हो गया है। इस तरह हिंदी रंगमंच की लस्त पस्त दुनिया और ज्यादा हांफने की स्थिति में आ गई है। अस्मिता रंग समूह और कुछ अन्य रंगकर्मी इसका लगातार विरोध कर रहे हैं और अधिकारियों से मिल भी रहे हैं लेकिन प्रशासन की ओर से इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिला है।
इस तरह दिल्ली में कला की दुनिया में टैक्स टेररिज्म लागू करने की प्रक्रिया चल रही है। सवाल कई हैं पर कुछ ही ज़रूरी मुद्दों की चर्चा यहां होगी। एक तो ये कि दुनिया के हर विकसित और लोकतांत्रिक कहे जानेवाले देशों में इस तरह की कोई कर प्रणाली लागू नहीं है जिसका भार कलाकारों और कला को उठाना पड़ता है।
ये सही है कि बॉलीवुड नाइट्स या फिल्म गायकों को लेकर आयोजन होते हैं जिनमें हजारों के टिकट होते हैं। इसके आयोजकों को आर्थिक मुनाफा होता है। शायद इसलिए ये नया फैसला लिया गया है। पर ये भी सही है कि ऐसे आयोजन करने के लिए सरकार, यानी दिल्ली प्रशासन अठारह फीसदी टैक्स जीएसटी के नाम पर लेती है। फिर उन या उन जैसे आयोजनों पर अतिरिक्त टैक्स क्यों?
आखिर व्यावसायिक लाभ कोई गुनाह तो नहीं। और शास्त्रीय नृत्य या शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम तो व्यावसायिक लाभ के लिए नहीं होते फिर उन पर अतिरिक्स टैक्स का भार क्यों? और जहां तक रंगमंच का सवाल है, कुछेक प्रस्तुतियों को छोड़ दें तो अधिकतर नाटक घाटे में ही होते हैं। ये रंगकर्मियों का कला प्रेम और जिद है जिसके तहत वे नाटक करते हैं। उनके ऊपर टैक्स का इतना बोझ लादना तो रंगकर्म और दूसरी शास्त्रीय कलाओं को अवरूद्ध करना हुआ।
दूसरा अहम मुद्दा दिल्ली जैसे बड़े शहर में सांस्कृतिक दारिद्र्य पैदा करना है। जी हां, इस तरह के फैसले दिल्ली में सांस्कृतिक दारिद्र्य ही पैदा करेंगे। होना ये चाहिए कि दिल्ली सरकार डेढ़ करोड़ से ज्यादा आबादी वाले शहर में ज्यादा से ज्यादा प्रेक्षागृह या ऑडोरियम बनाए ताकि नाटक या नृत्य- संगीत के अधिकाधिक कार्यक्रम हों और इनसे जुड़े कलाकारों का आर्थिक आधार पुख्ता हो। लेकिन सरकार दिल्ली में उल्टी यमुना बहा रही है और रंगकर्मियों व दूसरे सांस्कृतिक आयोजकों को निरूत्साहित कर रही है। वो माहौल ऐसा बनी रही है जिससे सांस्कृतिक आयोजन कम से कम हों और इन क्षेत्रों में रोजगार की अगर कोई संभावना हो उसे भी फलने फूलने से रोका जा सके। कुछ लोग कह सकते हैं कि ये तो कला का मुद्दा नहीं है। लेकिन गौर कीजिए तो है। कला एक स्तर पर भले ही सौंदर्य की अनुभूति या उसकी रचना का क्षेत्र है पर दूसरे स्तर पर वो भी जीविका और आर्थिक उपार्जन का क्षेत्र है। अगर दिल्ली की मौजूदा सरकार या ये कहे कि दिल्ली के वर्तमान उपराज्यपाल इन पहलुओं से नावाकिफ हैं तो ये माना जाएगा कि उनमें कलाबोध नाम की चीज नहीं है। उपराज्यपाल का उल्लेख इसलिए किया जा रहा है कि मीडिया में जो ख़बरें आई हैं उनके मुताबिक पोर्टल वाला आदेश दिल्ली नगर निगम के चुने हुए जन प्रतिनिधियों का नहीं बल्कि उनका यानी उपराज्यपाल का है।