दिल्ली का मेयर कौनः आप के सामने बीजेपी क्यों फजीहत करवा रही
वो कहावत तो आपने सुनी ही होगी-प्याज और जूते दोनों ही खाने वाली! कहीं दिल्ली में बीजेपी को कुछ ऐसी ही स्थिति का सामना तो नहीं करना पड़ेगा। 7 दिसंबर को दिल्ली में नगर निगम चुनाव के नतीजे आ गए थे और दो महीने में भी दिल्ली को पहली मेयर नहीं मिल पा रही। तीन बार की कोशिश नाकाम हो चुकी है और चौथी कोशिश मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने से पहले 16 फरवरी को रोकनी पड़ी है। बीजेपी और आम आदमी पार्टी दोनों ही इस मामले में एक-दूसरे को दोषी करार देते रहे हैं लेकिन सच्चाई यह है कि प्रचार के मामले में और सोशल मीडिया पर धारणा बनाने के मामले में बीजेपी, आम आदमी पार्टी का मुकाबला नहीं कर सकती। आम आदमी पार्टी ने अपने तर्कों से और व्यवहार से लोगों के दिमाग में यह जरूर स्थापित कर दिया है कि बीजेपी इस सारे ‘खेल’ के लिए जिम्मेदार है।
अब फैसला सुप्रीम कोर्ट के हाथों में है लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को पहली ही सुनवाई के दौरान जिस तरह मौखिक राय जाहिर की, वह बीजेपी के लिए अच्छा संकेत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने साफतौर पर कह दिया कि संविधान में एल्डरमैन को वोट देने का अधिकार नहीं है। 6 फरवरी की मीटिंग में पीठासीन अधिकारी सत्या शर्मा ने जो व्यवस्थाएं दी थीं, उनमें से एक को तो कोर्ट ने साफ तौर पर संविधान के विरुद्ध घोषित कर दिया है। दिल्ली नगर निगम के सदन में आज तक मेयर के किसी भी चुनाव में एल्डरमैन ने हिस्सा नहीं लिया लेकिन 6 फरवरी की मीटिंग में पीठासीन अधिकारी ने कहा कि इस बार वे हिस्सा लेंगे। अब आगे-आगे देखिए होता है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने मामले की पूरी सुनवाई की दलील मान ली है। यह परंपरा है कि पीठासीन अधिकारी सिर्फ मेयर का ही चुनाव कराते हैं और उसके बाद की सारी कार्यवाही नए मेयर के संचालन में होती है।
अब देखना यह है कि सत्या शर्मा की इस व्यवस्था पर सुप्रीम कोर्ट का क्या फैसला आता है कि मेयर, डिप्टी मेयर और स्थायी समिति के सदस्यों का चुनाव एक साथ ही होगा। मतलब वही सारा चुनाव कराएंगी, चुनी हुई मेयर को यह अधिकार नहीं मिलेगा। सत्या शर्मा ने आम आदमी पार्टी के दो विधायकों की वोटिंग का अधिकार भी खत्म करने का फैसला कर लिया था जिन्हें अदालत ने एक मामले में सजा तो सुनाई है लेकिन वे इसके खिलाफ अपील फाइल करके स्थगनादेश ला चुके हैं।
इन तीनों ही व्यवस्थाओं से ऐसा लग रहा था कि बीजेपी मेयर का चुनाव नहीं होने देना चाहती और वह इसके लिए किसी भी स्तर तक जाने को तैयार है। अब अगर सुप्रीम कोर्ट में भी बीजेपी हार गई तो फिर यही माना जाएगा कि वह चुनावों में हार का सामना करने के लिए मजबूर हुई ही, मेयर का चुनाव टालने में जनता की नजर में बुरी भी बनी और भी उसे मेयर का चुनाव कराना ही पड़ा। अभी तक की गणना के अनुसार मेयर चुनाव में हार उसकी और किरकिरी करा सकती है।
हालांकि अभी सुप्रीम कोर्ट ने हर पहलू पर नजर दौड़ाकर फैसला करना है लेकिन ऐसा लगता है कि आज बीजेपी की यह जिद है कि वह दिल्ली नगर निगम में आम आदमी पार्टी को सत्ता में नहीं देखना चाहती, चुनाव हारने के बाद भी नहीं देखना चाहती। अगर ऐसा है तो फिर यह बीजेपी के लिए सुखद स्थिति नहीं है यह सच है कि लोग ये भूल गए कि गोवा में, मणिपुर में, कर्नाटक में और मध्य प्रदेश में चुनाव हारने के बाद भी बीजेपी ने सरकार बना ली लेकिन उन सभी की स्थिति दिल्ली से अलग थी। वहां बीजेपी ने छल-बल-धन या किसी भी तरह से ऑपरेशन लोटस चलाकर सरकार बनाई लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं है। दिल्ली में बीजेपी आप के निगम पार्षदों को तोड़ नहीं पाई है। मगर, फिर भी जिद है कि आप की सरकार नहीं बनने देंगे।
यह अपने आप में हैरानी की बात है कि बीजेपी को दिल्ली के मामलों में ऐसी सलाह कौन देता है जो उसके लिए आत्मघाती साबित होती है। यह सच है कि बीजेपी को नगर निगम चुनावों में 104 सीटें जीतने की उम्मीद नहीं थी। बीजेपी के एक पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ने निजी बातचीत में माना कि अगर उन्हें पता होता कि 104 सीटें आ रही हैं तो फिर नगर निगम का यह चुनाव नहीं हारते। दरअसल अरविंद केजरीवाल ने 220 से ज्यादा सीटें जीतने का जो व्यापक भ्रम पैदा कर दिया था, उसने बीजेपी के हौसले अंदर तक तोड़ दिए थे। इसीलिए कम वोटिंग हुई और पॉश इलाकों में तो और भी कम हुई। बीजेपी के वर्कर वोटरों को बाहर ही नहीं निकाल पाए वरना 20 सीटें और जीत लेना बीजेपी के लिए बहुत ज्यादा मुश्किल नहीं था।
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बीजेपी नेताओं के मन में यही टीस है कि आखिर वे केजरीवाल के दावों से क्यों घबरा गए। यही टीस उन्हें 2013 के विधानसभा चुनावों को लेकर अब तक सता रही है जब 32 सीटें जीतने के बाद भी उन्होंने सरकार बनाने से इनकार कर दिया था और बाद में केजरीवाल ने कांग्रेस के समर्थन से 49 दिनों की सरकार चलाई थी। तब भी बीजेपी ने केजरीवाल के इस दावे पर यकीन किया था कि न किसी से समर्थन लेंगे और न ही देंगे। शायद यही टीस है जो मेयर की कुर्सी पर आम आदमी पार्टी के पार्षद को बैठता नहीं देखना चाहती।
मगर, लोग मानते हैं कि इसका तो बीजेपी को नुकसान होगा। जनता के मन में आम आदमी पार्टी के प्रति सहानुभूति पैदा होगी जो बाद में केजरीवाल के समर्थन में तब्दील हो जाती है। यह बात बीजेपी खुद भी देख चुकी है जब वह केजरीवाल को अनारकिस्ट, धरना देने वाला, मुसलमानों का हमदर्द या ऐसे ही आरोप लगाती है। दिल्ली की घटनाओं को तो पूरा देश देख रहा है और केजरीवाल 2024 में नरेंद्र मोदी के सामने विकल्प बनने का दम भर रहे हैं। तो क्या बीजेपी दिल्ली की घटनाओं को पूरे देश में भुगतने का जोखिम उठा रही है।
इस तरह के हठ की बजाय बीजेपी को केजरीवाल के दिल्ली में विकल्प तलाश करने चाहिए। आखिर दिल्ली में केजरीवाल का मुकाबला बीजेपी क्यों नहीं कर पाई? इससे पहले शीला दीक्षित के मुकाबले में उनके पास कोई नेता नहीं था। सच्चाई यह है कि मदन लाल खुराना के बाद दिल्ली में बीजेपी कोई स्थाई और विश्वसनीय नेता खड़ा ही नहीं कर पाई। यही वजह है कि 1998 के बाद दिल्ली विधानसभा का कोई चुनाव बीजेपी नहीं जीत सकी। कभी वह अचानक विजय कुमार मलहोत्रा को लाकर खड़ा कर देती है, कभी डॉ. हर्षवर्धन को, कभी किरन बेदी को और कभी बिना चेहरे के ही चुनाव में उतर जाती है।
बीजेपी में नेतृत्व दरिद्रता स्पष्ट दिखाई दे रही है और साथ ही परिपक्व राजनीतिक सोच का अभाव दिख रहा है। दिल्ली में पिछले सालों में बीजेपी की कमान जिन हाथों में रही है, वे कहीं भी खुराना-मलहोत्रा-साहनी की नेतृत्व आभा के सामने नहीं टिकते।
इसकी वजह यह है कि बीजेपी हाईकमान दिल्ली के किसी भी नेता पर विश्वास नहीं कर रहा। दिल्ली की वास्तविक स्थिति का उसे अहसास ही नहीं हो पाता। 2025 के विधानसभा चुनावों में अब ठीक दो साल बचे हुए हैं। बीजेपी अभी से किसी चेहरे को आगे लाकर उसे खुराना जैसा विश्वसनीय नेता क्यों नहीं बनाती? क्यों नहीं डॉ. हर्षवर्धन को सीएम का चेहरा बनाकर अभी से स्थापित कर दिया जाता?
अगर डॉ. हर्षवर्धन से परहेज हो तो क्यों नहीं स्मृति ईरानी को अभी से केजरीवाल के सामने उतार दिया जाता और अभी दिल्ली बीजेपी उनके हवाले कर दी जाती? स्मृति ईरानी को चांदनी चौक से लोकसभा का चुनाव लड़ाया जा चुका है। क्यों नहीं रामवीर सिंह बिधूड़ी, विजेंद्र गुप्ता या विजय गोयल को चेहरा बनाकर अभी से विधानसभा चुनावों के लिए स्थापित कर दिया जाता? नगर निगम चुनाव हारने के बाद बीजेपी ने आदेश गुप्ता से तो इस्तीफा ले लिया लेकिन दो महीने से भी ज्यादा समय से कार्यवाहक अध्यक्ष से काम चलाने की मजबूरी क्या है?
अगर बीजेपी हाईकमान दिल्ली को स्थाई और परिपक्व नेतृत्व देने के लिए तैयार नहीं है तो फिर वही होगा जो अब तक होता आया है। बार-बार विधानसभा चुनावों की हार तो सामने है ही, नगर निगम की हार पचा पाना भी मुश्किल हो रहा है। बीजेपी के लिए यह शर्मिन्दगी की बात नहीं तो और क्या है?