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गंभीर चेतावनी है कन्हैया कुमार पर हमला

गंभीर चेतावनी है कन्हैया कुमार पर हमला

चुनाव रैली में स्वागत करने के बहाने किसी नेता को थप्पड़ मार देना, काली स्याही फेंक देना सबसे आसान है। महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे ने सबसे पहले महात्मा का पैर छुआ, फिर उन्हें गोली मार दी। कांग्रेस प्रत्याशी कन्हैया कुमार के साथ भाजपा के लोगों ने ऐसी ही हरकत की। हार पहनाया, फिर थप्पड़ मारे। भगवावादियों में से किसी में इतना साहस नहीं है कि कन्हैया से बहस करे और अपने सवालों से कन्हैया को हरा दे। इसीलिए यह घटिया और नीच तरीका अपनाया गया कि थप्पड़ मार दो। भारत में चुनाव ऐसे दौर में प्रवेश कर गया है जिसमें एक उग्र लोगों का एक समूह किसी की कोई बात सुनने को तैयार नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार प्रेम कुमार की टिप्पणीः

दिल्ली में कन्हैया कुमार पर जो हमला हुआ वो कानूनी रूप से कम महत्वपूर्ण है। हमले में कोई हथियार इस्तेमाल नहीं हुआ, इसलिए हमलावरों को सज़ा भी शायद ही मिले। यह हमला गंभीर इसलिए है क्योंकि यह उस वातावरण को बयां करता है जिस कारण कन्हैया कुमार पर जान का ख़तरा आगे भी बना रहने वाला है। 

यह वातावरण क्या है? कन्हैया कुमार को जेएनयू से और जेएनयू को कम्युनिस्ट सेंटर के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है। कन्हैया कुमार को ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और इसके लीडर के रूप में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह पेश करते रहे हैं। पूरी मीडिया इसी आवाज़ को मजबूत करती रही है। मीडिया पर बेरोकटोक कन्हैया कुमार को देशद्रोही बोलने की इजाजत रही है। 

कोई भी बीजेपी का प्रवक्ता या बीजेपी का पैरोकार टीवी पैनलिस्ट चाहे पत्रकार हो या राजनीतिक विश्लेषक बड़े आराम से कन्हैया कुमार के खिलाफ विषवमन कर सकता है। एंकर की सहमति ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि कन्हैया कुमार के खिलाफ लगाए जाने वाले सारे आरोप मानो सच्चे हैं। 

क्यों हुआ हमलाः कन्हैया कुमार पर हमला क्यों हुआ? हमलावर को न कन्हैया जानते हैं न ही हमलावरों की उनसे कोई दुश्मनी है। इसके बावजूद हमलावरों में कन्हैया के लिए नफ़रत है। ये नफ़रत कैसे पैदा हुई? कौन हैं इस नफ़रत का जिम्मेदार? टुकड़े-टुकड़े गैंग, अर्बन नक्सल जैसे शब्द वैधानिक नहीं हैं और न ही संसदीय। फिर भी देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री लगातार इसका इस्तेमाल करते हैं। मीडिया भी इन शब्दों का बिना किसी रुकावट के इस्तेमाल करता है।

ऐसे में आम नागरिक भी उन लोगों से नफरत करता है जो इन अवैधानिक संबोधनों के दायरे में आते हैं। आम नागरिक जो देशभक्त भी हो वह अगर टुकड़े-टुकड़े गैंग के खिलाफ लड़ने को कमर कसता है तो उसे गलत कैसे ठहराया जा सकता है? खासकर तब जब प्रधानमंत्री के स्तर पर यह मान लिया गया हो कि ऐसा कोई गैंग है और यह देश के लिए ख़तरा भी है। कन्हैया कुमार पर हमला गलत है। 

हमलावर किसी के उकसावे में हैं। वे छद्म राष्ट्रवाद, छद्म देशभक्ति, छद्म हिन्दुत्व, छद्म गोरक्षा के नारों में बंधकर ये एक ऐसी लड़ाई में आत्मउत्सर्ग को तैयार हैं जो वास्तव में गलत के खिलाफ नहीं है। वे सही को ही गलत मान बैठे हैं क्योंकि राजनीति ने ऐसा करना सिखाया है। यह विडंबना ही है कि बहुसंख्यक समाज को खतरे में बता दिया जाता है। अल्पसंख्यक समाज का ख़तरा दिखा दिया जाता है और नौजवान उस ख़तरे से लड़ाई को बेचैन हो जाते हैं। ये नौजवान गलत दिखते हैं लेकिन इन्हें गलत राह पर ले जाने वाला पूरा इको सिस्टम इसका जिम्मेदार है।

हमले की शैली गोडसे वाली

कन्हैया कुमार पर हमला करने वाले दोनों युवकों को अपने किए का कोई पछतावा नहीं है। वे तो खुद को ऐसे पेश कर रहे हैं मानो वे धर्मयोद्धा और देशभक्त हों। ऐसे चरित्र को थोड़ा समझने की जरूरत है। नाथूराम गोडसे ने कब समझा कि उसने गलत किया? महात्मा गांधी की हत्या पर उसे कभी पछातावा नहीं हुआ। पछतावा भगत सिंह को भी अपने किए पर कभी नहीं हुआ और वे हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ गये। लेकिन, क्या नाथूराम गोडसे और भगत सिंह को एक तराजू पर तौला जा सकता है? 

भगत सिंह समाज में परिवर्तनकारी विचारों के लिए अपने प्राण उत्सर्ग कर रहे थे। नाथूराम गोडसे परिवर्तकारी विचारों के प्रणेता महात्मा गांधी के प्राण ले रहा था। इस फर्क को समझना पड़ेगा।


जिन नौजवानों ने कन्हैया कुमार पर हमला बोला, हमले को सही ठहराया- उन्होंने गोडसेवादी तरीका ही अपनाया। कन्हैया कुमार को फूलो का हार सौंपा और फिर मौका मिलते ही थप्पड़ चलाए। गोडसे ने भी गोली मारने से पहले महात्मा गांधी के पैर छुए थे। गोडसे समेत गांधी के तमाम हत्यारे हत्या से पहले और हत्या के बाद विनायक दामोदर सावरकर से मिले थे। ताजा मामले में भी यह जानने की जिज्ञासा जरूर रहेगी कि हमलावरों के संपर्क या फिर उठना-बैठना किन लोगों के साथ रहा है। जो तस्वीरें आ रही हैं उससे पता चलता है कि दोनों हमलावर स्थानीय सांसद मनोज तिवारी के करीबी रही हैं। राजनीतिक कार्यक्रमों में मंच पर साथ भी दिखे हैं। साध्वी प्राची जैसे लोगों के साथ भी इनकी तस्वीरें साझा हो रही हैं। लोकसभा चुनाव प्रगति पर है। चुनाव के दौरान हमने अपने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को खोया है। लिहाजा चिंता है।

 कन्हैया कुमार पर थप्पड़ वाला हमला छोटा दिखता जरूर है लेकिन विस्फोटक वातावरण को बयां करता है। कहीं ऐसा ना हो कि यह किसी बड़ी घटना की पूर्वगामी घटना हो। ताजा चुनाव में नफरत की सियासत अब तक सफल नहीं हो सकी है। मगर, इसकी कोशिशें कम नहीं हुई हैं। स्वयं कन्हैया कुमार इस लड़ाई के योद्धा हैं। अपनी जान की परवाह किए बगैर वे चुनाव मैदान में हैं। मगर, ये लड़ाई न तो चुनाव तक के लिए है और न ही चुनाव के बाद खत्म हो जाने वाली है।     

(पाठकों की सूचना के लिए बता दें कि पूर्वी दिल्ली के न्यू उस्मानपुर इलाके में शुक्रवार को यह घटना कन्हैया के साथ हुई थी। इसमें कई महिला पत्रकारों को भी चोट आई थी। हमलावरों ने वीडियो जारी कर दावा किया कि चूंकि कन्हैया कुमार ने देश को तोड़ने के नारे लगाए थे और भारतीय सेना के खिलाफ बोला था, इसलिए हमने ऐसा किया। हालांकि आरोपियों और हमलावरों के ऐसे बयान झूठे हैं, क्योंकि यह प्रमाणित हो चुका है कि जेएनयू में हुई इस घटना में कन्हैया कुमार ने ऐसा कोई नारा नहीं लगाया। कन्हैया ने सेना के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया। यह अंश इस लेख का हिस्सा नहीं है।) 

 

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