पुलिस ने बृजभूषण को जमानत देने का विरोध क्यों नहीं किया?
आप और हम किसी अदालत की अवमानना नहीं कर सकते लेकिन महिला पलवानों के साथ कथित रूप से ज्यादती करने के आरोपी सांसद बृजभूषण को बधाई तो दे ही सकते हैं। बधाई दिल्ली पुलिस को भी दी जा सकती है क्योंकि उसने बृजभूषण को जमानत के मामले में तटस्थता का मुजाहिरा किया यानी न जमानत देने का विरोध किया और न समर्थन। वैसे भी जमानत हर आरोपी का जन्मसिद्ध अधिकार है।
पूरा देश जानता है और मानता है कि बृजभूषण का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, क्योंकि वे सत्तारूढ़ दल के सांसद हैं और अपने दल की महती जरूरत भी। उनके खिलाफ एफआईआर तो फरियादियों का दिल रखने के लिए दर्ज की गयी थी।
बृजभूषण के गले से नेतागीरी का आभूषण उतारने के लिए देश की महिला पहलवानों के साथ उनकी बिरादरी के अलावा किसानों और दूसरे वर्ग के लोगों ने लंबा आंदोलन चलाया लेकिन इस आंदोलन को देश के गृहमंत्री और खेल मंत्री ने खेल-खेल में पंचर कर दिया। सरकार ने अंत तक बृजभूषण की गिरफ्तारी नहीं होने दी। आखिर होता वही है जो सरकार चाहती है। हमारे देश की न्याय व्यवस्था बेमिसाल है। इस न्याय व्यवस्था में जिन्हें जमानत की दरकार होती है उन्हें जमानत नहीं मिल पाती और जिन्हें जमानत नहीं मिलना चाहिए वे जमानत खुदरा बाजार में आम की तरह हासिल कर लेते हैं जमानत। हमारे लोकप्रिय हत्यारे संत राम-रहीम साहब को जब चाहे तब जमानत मिल जाती है इसमें कुछ अजूबा नहीं है।
देश की अदलातें क़ानून के हिसाब से चलतीं हैं या क़ानून उनके हिसाब से चालता ये कोई नहीं जानता। किसी को इस रहस्य को जानने की ज़रूरत नहीं है। इस रहस्य को जानना न देश हित में है और न क़ानून के हित में। ऐसा करना जनहित में तो बिलकुल नहीं है। सब लोग खामखां अदालतों पर दबाब बनाने की कोशिश करते हैं। अदालतों को हमेशा दबाब मुक्त होना चाहिए। संयोग से हमारे मुल्क में अदलातें अभी दबाव मुक्त हैं। उनके ऊपर कोई दबाव होगा भी तो वो दिखाई नहीं देता और जो दिखाई नहीं देता उसे स्वीकार भी नहीं किया जा सकता, स्वीकार किया भी नहीं जाना चाहिए।
हमारी देश की अदलातें फैसला देते वक्त छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब कुछ नहीं देखती। वे तर्क सुनती हैं। प्रमाण देखती हैं, गवाहों की बात सुनती हैं फिर कानून के मुताबिक़ फैसला करती हैं। इसलिए अदालतों के फैसलों पर किसी को उंगली नहीं उठाना चाहिए। फिर भी हमारी अदालतें इतनी उदार हैं कि उन्होंने आम जनता तक को अपने फैसलों के बारे में रचनात्मक, समीक्षात्मक टिप्पणियां करने की रियायत दी हुई है।
हमें अदालत की इस उदारता का सम्मान करना चाहिए। मेरा तो आज भी देश की अदालतों पर अखंड विश्वास है। देश में आज अदलातों को छोड़कर भरोसे के लायक बचा ही कौन है?
देश की अदालतें ही हैं जो मानहानि जैसे मामलों में अब संजीदगी के साथ फैसले सुनाने लगी हैं। कांग्रेस के राहुल गांधी को मानहानि के मामले में जब से नीचे की अदालत ने सजा सुनाई है और ऊपर की अदालत ने उसकी पुष्टि की है तब से मेरा अदालतों के प्रति भरोसा और बढ़ गया है। मैंने लिखने, पढ़ने और बोलने तक में एहतियात बरतना शरू कर दी है। मैं हत्या, बलात्कार या चमत्कार के आरोपी को भी माननीय और जी कहकर सम्बोधित करता हूँ। मेरी पूरी कोशिश होती है कि मेरी ओर से किसी की मानहानि न हो। राहुल गांधी को मानहानि के मामले में सजा मिलने से भाजपा और मोदी समाज को छोड़ सभी चिंतित हैं लेकिन मैं एकदम निश्चिन्त हूँ। मै मानता हूँ कि जो जैसा करेगा, वो वैसा भरेगा। राहुल गांधी भारत को जोड़ने का दुरूह काम करने वाले नेता हैं इसलिए उन्हें किसी की मानहानि करने की रियायत थोड़े ही दी जा सकती है। ये रियायत तो नसीब वालों को ही नसीब होती है।
बहरहाल, बात बृजभूषण से शुरू हुई थी सो उन्हीं पर समाप्त होना चाहिए। बृजभूषण सत्तारूढ़ दल का आभूषण हैं। अदालत ने उन्हें नियमित जमानत देकर बड़ा उपकार और स्तुत्य कार्य किया है। सिंह साहब केवल देश के बाहर नहीं जा सकते। वैसे भी चुनावी साल में वे देश के बाहर जाकर करेंगे भी क्या? चुनावी मौसम में देश को, पार्टी को उनके क्षेत्र की जनता को उनकी सेवाओं की ज़रूरत है। बृजभूषण को जमानत मिलने के बाद फरियादियों को भी समझ लेना चाहिए कि किसी भद्र जनसेवक पर इतने गंभीर आरोप ठोक-बजाकर लगना चाहिए अन्यथा परिणाम ठनठन गोपाल ही निकलता है। जैसे राहुल गांधी पर पूरी गंभीरता से आरोप लगाए गए तो उन्हें सजा हुई कि नहीं? बृजभूषण को भी सजा हो सकती थी, लेकिन उन्हें सजा से पहले ही जमानत मिल गयी। इस मामले में बृजभूषण का नसीब राहुल गांधी के नसीब से अच्छा है।
देश संसद से ज्यादा अदालतों पर भरोसा रखता है। इसलिए अदालतों की जिम्मेदारी अपने आप बढ़ जाती है। अदालतें भी इस हकीकत को समझती हैं। दिल्ली सरकार के लिए केंद्र सरकार द्वारा बनाये गए अध्यादेश को इसीलिए अदालत ने संविधान की पीठ को सौंप दिया है। अब इस हालत में देश की संसद में भी इस पर विमर्श या हंगामा नहीं हो सकता। वैसे भी संसद बहस की जगह है, हंगामे की नहीं। दुर्भाग्य ये है कि संसद में जो भी दल विपक्ष में होता है वो बहस की मांग के साथ ही हंगामा ज्यादा करता है। मेरी मान्यता है कि बहस से ज्यादा हंगामा आसान क्रिया है। इसके लिए होमवर्क भी नहीं करना पड़ता। हंगामा बिना रियाज के हो सकता है। सदन के अध्यक्ष यदि मेरी मानें तो मैं कहूँगा कि संसद में श्रेष्ठ सांसद के साथ ही श्रेष्ठ हंगामेबाज संसद को भी सम्मानित किया जाना चाहिए। क्योंकि हर सांसद का मकसद सूरत बदलना कम हंगामा करना ज़्यादा होता है।
कहावत भी है कि बड़े लोग जिस रास्ते जाएँ उनका अनुशरण किया जाये। हमारे हंगामेबाज सांसदों को प्रधानमंत्री का अनुशरण करते हुए हंगामे के बजाय मौन की साधना करनी चाहिये। हंगामे से मौन ज्यादा मारक होता है। प्रधानमंत्री को मौन साधना का आदर्श पुरुष कहा जा सकता है। वे मणिपुर पर भी पूरे ढाई महीने मौन रहे। बोले भी तो तब बोले जब संसद का सत्र शुरू होने वाला था। लम्बे मौन के बाद यदि आप बोलेंगे तो तय है कि सामने वाले की बोलती बंद हो जाएगी।
(राकेश अचल के फेसबुक पेज से)